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सियासत

जहां डब्बों में खड़े होने की जगह नहीं मिलती, वहां ये घाटा कैसे पूरी रेल में पसर जाता है?

RAIL

रेल में अगर मूलभूत सुविधाएं नहीं मिलती तो किराया बढ़ने की बजाय कम होना चाहिए. जब सारी रेलें ठसाठस भरी होती हैं तो घाटा कहाँ से और कैसे हो गया, ये सोचने का विषय है. जिन देशो में रेलों में सवारियों की कमी हैं वहाँ तो माना सकता हैं कि कम किराए में रेल नहीं चल सकती मगर भारत में जहां रेल डब्बों में खड़े होने की जगह नहीं मिलती तो इसका मतलब रेल को पैसा तो बहुत आ रहा है. इतनी भीड़ में घाटा कैसे आ गया टिकिट लेने के बाद भी जगह ना मिले तो इसका मतलब ये अतिरिक्त आमदनी हैं रेलवे की.

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रेल में अगर मूलभूत सुविधाएं नहीं मिलती तो किराया बढ़ने की बजाय कम होना चाहिए. जब सारी रेलें ठसाठस भरी होती हैं तो घाटा कहाँ से और कैसे हो गया, ये सोचने का विषय है. जिन देशो में रेलों में सवारियों की कमी हैं वहाँ तो माना सकता हैं कि कम किराए में रेल नहीं चल सकती मगर भारत में जहां रेल डब्बों में खड़े होने की जगह नहीं मिलती तो इसका मतलब रेल को पैसा तो बहुत आ रहा है. इतनी भीड़ में घाटा कैसे आ गया टिकिट लेने के बाद भी जगह ना मिले तो इसका मतलब ये अतिरिक्त आमदनी हैं रेलवे की.

अगर किराया बढ़ा हैं तो मूलभूत सुविधा तो मिलनी ही चाहिए जैसे प्लेटफार्म पर बैठने की थी व्यवस्था हो, पानी आराम से मिल जाए, सीट आराम से मिल जाए, घक्का मुक्की ना हो. समझ में नहीं आता कि जब लोग बड़ी मुश्किल से रेल के भीतर घुस पाते हैं और सीट मिलने का तो सवाल ही नहीं तो फिर ये घाटा कैसे चढ़ता होगा रेल में और बिना घक्का मुक्की के पूरी रेल में कैसे पसर कर बैठता है.

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जब कहा जाता है कि रेलवे घाटे में है, या कि स्लीपर कोच चलाना घाटे का सौदा है, या पैसेंजर गाड़ी चलाने में बड़ा घाटा है, तो यह घाटा किसे होता है और यह घाटा कहाँ से कवर किया जाता है. ज़ाहिर सी बात है सरकारी कोष में जो भी पैसा आता है उसका बड़ा अंश आम जनता से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की उगाही से आता है.

इस उगाही से देश का जो वृहद् कोष बना, उसे जिस क्षेत्र में जैसी ज़रुरत हो वैसे खर्च किया जाता है. मसलन अगर आबकारी से भारी मात्र में पैसा आता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उगाहा हुआ सारा पैसा आबकारी के ऊपर ही खर्च कर दिया जाएगा.
 
देश में बहुत सारी योजनायें और कार्यक्षेत्र सिर्फ मुनाफ़ा कमाने के लिए नहीं चलाये गये. इनका उद्देश्य जनता को सस्ता परिवहन मुहैय्या कराना था. भारत की वह आम जनता जिसके लिए पैसेंजर ट्रेन चलाई गयी, कि गाँव-गाँव के लोगों को जुड़ने का एक साधन मिल सके, वह जनता जिसके लिए बड़ी और नामी गाड़ियों में अब महज दो या तीन डिब्बे बचे हैं, जिनमे वे जानवरों से भी बदतर हालात में खुद को ठूंसे जाने पर मजबूर होते हैं.

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इसी देश में चालीस करोड़ से ज़्यादा लोग तो हमारे लिए महज़ कीड़े-मकोड़े हैं जिनसे हमारा रिश्ता बस इतना है कि ये सड़क पर कहीं दिख जाएँ तो अव्वल तो हम नोटिस नहीं लेते और फिर भी अगर ये हमारी गाड़ी के बिलकुल सामने ही आ जाएँ तो इन्हें हम हिकारत से देखकर दुत्कार देते हैं.

इसलिए जब रेल किराया बढ़ता है, जब मालभाड़ा बढ़ता है तो हमारी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता, और जिन पर फर्क पड़ता है वे बहुत पहले इंसानी दर्जे से ही बेदखल किये जा चुके हैं. वे दुत्कारा जाना अपनी नियति मान चुके हैं. गंदे कपड़ों में खुद को जैसे तैसे ढंके वे लोग तो सभ्य और डिजायनर कपडे पहने शाइनिंग इण्डिया के आगे आकर उनका मूड नहीं खराब करना चाहते.
 
ये लोग हमारी तरह उपभोक्ता नहीं हैं, यानी खाने उड़ाने वाले, मौज करने वाले. हम जो खाते हैं ये उसे बनाने और उगाने वाले लोग हैं, ये घुटनों तक पानी में बुआई करने और तेज़ धूप में अपने को जलाकर फसलें काटते और सुखाते लोग हैं, ये गाड़ियां बनाने वाले लेबर हैं, ये कपड़ा बुनने और सिलने वाले डेली लेबर हैं जिनके लिए बड़ी बड़ी कम्पनियां उन्हें निकालने का अधिकार चाहती हैं कि सरकार उन्हें यह अधिकार दे कि वे एक हज़ार डेली लेबर को एक झटके में बिना कोई मुआवजा दिए निकाल सके. अभी कंपनी केवल ऐसे सौ लोगों को निकाल सकती है. यही श्रम क़ानून में सुधार है, जिसकी गति उन्हें तेज़ चाहिए.
 
ये जो उपभोक्ता नहीं हैं, जो माल से सामान नहीं खरीद सकते, जो पिज़्ज़ा, बर्गर नहीं खा सकते, जो शैम्पेन नहीं छलका सकते, जो डिजायनर कपडे नहीं खरीद सकते, जो गाड़ियां, क्रेडिट कार्ड नहीं अफोर्ड कर सकते, बाज़ार उन्हें घिन्हे आदमी की तरह हिकारत से देखता है. लेकिन खतरनाक तब है जब सरकार भी बाज़ार के साथ खडी हो जाए, वह वही कहे और करे जो कम्पनियां कहें, वो रेल के डब्बे कंपनियों को इसलिए बेच दे कि कम्पनियां उससे अपना पेट भरें, जनता के लिए गैस के दाम बढ़ाने में उसे संकोच न हो.

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अम्बानी के लिए गैस के दाम इसी सरकारी कोष से तय से कई गुना चुकाए जाएँ और तब सरकार यह न कहे कि अम्बानी की महंगी गैस से घाटा हो रहा है, जब कंपनियों को कौड़ी के दाम ज़मीने दी जाएँ और उन्हें दस साल तक टैक्स में छूट दी जाए और सरकार एक बार भी न कहे इस भारी भरकम छूट से जनता की कमर टूट रही है. जनता दोनों तरफ से पिस रही है एक तरफ जनता के ही कोष का पैसा उन पर लुटाया जाये, और दूसरी तरफ कर भी न वसूले जाएँ और ऊपर से गिफ्ट के रूप में उन्हें सस्ते श्रम के बतौर भारतीय नौजवान दे दिए जाएँ.
 
तो जो उपभोक्ता नहीं हैं, बल्कि जो निर्माण कर रहे हैं, जो दिन रात चुपचाप काम में लगकर अपनी हड्डियां और ज़िन्दगी गला रहे हैं उनके लिए अच्छे दिन के क्या मायने हैं?

 लेखिका संध्या नवोदिता कवि और सोशल एक्टिविस्ट हैं।

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0 Comments

  1. Ravi

    June 24, 2014 at 6:32 am

    असल में सरकार कोई भी आई वो जनता की हितैषी नहीं रहीं और न ही वर्तमान सरकार है। इनको बस अपने बैंक खातों को भरने से मतलब है। इनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं। जनता के पैसों पर ऐश करते हैं।स्विस बैंक में काला धन जमा करते हैं। और सरकारी खज़ाना खालीने दुहाई देकर महंगाई बढ़ा देते हैं। किसी भी नेता या मंत्री का 15-20 साल पुराना इकनोमिक कंडीशन देख लीजिये और आज का। कैसे ये लोग अरबों ₹ के मालिक बन जाते हैं घोटाले कर कर के। और कोई अदालत कोई सरकार
    कुछ नहीं कर सकती जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और एक ऐसा नेता नहीं चुनेगी जो इमानदार हो।

  2. mohan

    June 28, 2014 at 3:56 am

    दरअसल इसी बात पर हमारे एक साथी से हमारी बहस हो रही थी वह कह रहा था यार रेल में सुबिधाएं बढ़ाने के लिए रेल भाड़ा बढ़ाया गया है। देखना कुछ दिन के बाद रेल जर्जर रेल नही रह जायेगी। मैने उत्सुकता बस पूछा क्या हो जायेगा उसने कहा यह विश्व स्तर की ट्रेन कहलायेगी । मैने कहा उस सूत्र वाक्य की तहर की अच्छे दिन ायेगे। लेकिन आये तो नही बल्कि गरीबों के बूरे दिन शुरु हो गये …

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