मुहम्मद जाकिर हुसैन
भारतीय स्टेट बैंक की रिटायर चेयरपर्सन अरूंधति भट्टाचार्य नोटबंदी जैसे चुनौतीपूर्ण समय में उन चुनिंदा लोगों में से एक रही हैं, जिन्हें आर्थिक मोर्चे पर देश का माहौल सामान्य करने की जवाबदारी मिली थी। एक साल के सेवा विस्तार के बाद श्रीमती भट्टाचार्य अब उस दायित्व से मुक्त हो चुकी हैं और अब उच्च शैक्षणिक संस्थानों में लेक्चर देने के अलावा विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में खुद को संलग्न रखती हैं। फिलहाल रिटायरमेंट के बाद एक साल पूरा होने (अक्टूबर 2018) तक वे ”कूलिंग पीरियड” पर हैं, इस लिहाज से नीतिगत मामलों पर वह ज्यादा कुछ नहीं बोलतीं।
पिछले माह 9 जून को जब वे अपने बचपन के शहर भिलाई (छत्तीसगढ़) आईं तो अनौपचारिक चर्चा में उन्होंने नोटबंदी के दिन के हालात और बैंकिंग करियर से जुड़े कुछ मुद्दों पर बड़ी साफगोई से अपनी बात रखीं। इस दौरान उन्होंने ऑन रिकार्ड जो कुछ बताया उन्हीं के शब्दों में:-
दोपहर में अचानक आया फोन
नोटबंदी का फैसला इस कदर गोपनीय था कि देश के हम सारे बैंक के प्रमुखों को आम जनता के साथ ही टेलीविजन प्रसारण से सब कुछ पता लगा। 8 नवंबर 2016 की दोपहर मुझे भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर के ऑफिस से फोन आया कि शाम को 6:30 बजे जरूरी बैठक रखी गई है। जब मैनें एजेंडे के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि बैठक में ही जानकारी दी जाएगी और इसके लिए कोई तैयारी की जरूरत नहीं है। इससे मुझे थोड़ी हैरानी हुई कि रिजर्व बैंक की आपात बैठक बगैर एजेंडा और बिना तैयारी के कैसे हो रही है? खैर, वहां देश के सभी बैंक के प्रमुख आने लगे।
मीटिंग शुरू हुई तो इधर-उधर की बातें चलने लगी
उस बैठक में रिजर्व बैंक के गवर्नर नहीं थे। बैठक की अध्यक्षता डिप्टी गवर्नर कर रहे थे और उन्होंने आने के बाद इधर-उधर की बातें ही की। तब हममें से किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या होने वाला है। ऐसे ही बातें करते-करते पौने 8 बज गए। तब रिजर्व बैंक के दूसरे अफसर भी बोर्ड रूम में आए। फिर 8 बजे प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन शुरू हुआ और हम सब की नजरें टेलीविजन पर टिक गईं। इस तरह पूरे देश के साथ हम लोगों को नोटबंदी के फैसले के बारे में पता चला।
पहली बार हम लोगों को दिखाए गए 2 हजार के नए नोट
प्रधानमंत्री की उद्घोषणा खत्म होते ही आगे की रणनीति के लिए आरबीआई ने बैठक ली। हमें सवा अरब की आबादी वाले अपने देश की 63 प्रतिशत करेंसी रद्द करने की दिशा में काम करना था। इस दौरान हम लोगों को पहली बार 2 हजार के नए नोट दिखाए गए। हम लोग नोट देखकर तो चौंक गए क्योंकि ये नोट आकार में अब तक चल रहे नोट से काफी छोटे थे। ऐसे में एटीएम में बदलाव सहित तमाम चुनौतियों पर हम लोगों ने चर्चा की। तब तक रात के 9:30 बज चुके थे। यहां से अपने आफिस पहुंचने के बाद मैनें तुरंत बैठक बुलाई।
56 हजार एटीएम में करना था बदलाव
हम लोगों ने रात 12 बजे तक पूरी तैयारी की। तब देश भर में हमारे अपने 56 हजार एटीएम थे। इनमें बदलाव सहित ढेर सारी तैयारियां करनी थी। अगले दिन फिर सुबह 6 बजे से नोटबंदी के मुताबिक नई व्यवस्था के लिए सारी तैयारियों को अमली जामा पहनाने वीडियो कान्फ्रेंस शुरू की गई। तब सबसे ज्यादा गोपनीयता 2 हजार के नए नोट को लेकर बरती गई थी। यहां तक कि करेंसी चेस्ट की जिम्मेदारी संभालने वालों को सख्त हिदायत दी गई थी कि वो नए नोट के बारे में कहीं भी बात नहीं करेंगे और इसके लिए उनसे लिखित में डिक्लयरेशन ले लिया गया था।
ये असल नोट है, मुश्किल था यकीन कराना
सबसे बड़ी दिक्कत तो गांव और दूर-दराज के इलाके में हुई। ऐसी जगह पर लोगों ने प्रधानमंत्री का लाइव टेलीकास्ट देखा नहीं था लिहाजा उन्हें नोटबंदी के बारे में पता नहीं था। जब ऐसे लोगों के हाथों में 2 हजार के नए नोट आए तो ये लोग इसे चूरन वाले नोट समझ रहे थे। हमारे बैंक कर्मियों को यह भरोसा दिलाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि ये असली वाले नोट हैं।
बैंकिंग सर्विस में जाने का लक्ष्य पहले से नहीं रखा
आज मुझे लगता है अब बच्चों पर सफलता को लेकर प्रेशर ज्यादा है। इससे उनमें बचपन की उमंग कम होते जा रही है। जबकि हम लोगों के वक्त ऐसा प्रेशर नहीं था कि असफल हुए तो आपकी जिंदगी खत्म हो गई या करियर तबाह हो गया। मैनें बैंकिंग सर्विस में जाने का लक्ष्य पहले से नहीं रखा था। हां, जीवन में बहुत पहले एक इरादा जरूर कर लिया था कि 21 साल की होते तक मुझे इंडिपेंडेंट होना है। जब स्कूल पास आउट हुई तो पिताजी का रिटायरमेंट होने वाला था। उस समय उन्हें पेंशन तो नहीं मिलती थी। फिर हम युवाओं को तब पब्लिक-प्राइवेट सेक्टर में नौकरी मिलना मुश्किल था। अगर आपका कनेक्शन न हो या जान पहचान न हो तो बंगाल जैसी जगह पर यह और भी मुश्किल था। ऐसे में ऑल इंडिया कंपीटेटिव एक्जाम से नौकरी मिलना मुझे सबसे आसान लगा।
आईएएस के बजाए चुना बैंकिंग को
मैं आईएएस के लिए यूपीएससी का फार्म भी ले आई थी लेकिन दिक्कत यह थी कि उसमें उन दिनों एक मूल विषय लेना होता था जो अंग्रेजी या हिंदी साहित्य से अलग होना चाहिए था। मैं तब इंग्लिश लिट्रेचर लेकर पढ़ रही थी और दूसरे किसी विषय के लिए मुझे पूरी की पूरी पढ़ाई नए सिरे से करनी पड़ती। ऐसे में मैनें आईएएस का इरादा छोड़़ दिया और बैंक एक्जाम में बैठी। इसमें उन दिनों तीन पेपर होते थे। इसमें इंग्लिश का पेपर मेरा अपना विषय होने की वजह से मेरे लिए आसान था। जनरल नॉलेज के लिए तब कंपटीशन मास्टर बुक होती थी और लॉजिक रीजनिंग की तैयारी मैनें खुद से की।
तब तो शीर्ष पद के बारे में सोचा भी नहीं था
बैंकिंग एक्जाम में सफलता के बाद हमारा बैच सितंबर 1977 से बतौर प्रोबेशनर दाखिल हुआ। तब हैदराबाद स्टाफ कॉलेज में इंडक्शन के दौरान सीनियर आकर हमें बता रहे थे कि एसबीआई में जितने भी चेयरमैन हुए हैं, वह सब यहीं आकर ज्वाइन किए हैं। तब उस रोज लगा कि मैं भी यहीं ज्वाइन कर रही हूं तो शीर्ष तक जरूर पहुंच जाऊंगी लेकिन यह एहसास सिर्फ उसी दिन था फिर उसके बाद तो पूरे 40 साल काम में ऐसे डूबे कि कभी ऐसा खयाल ही नहीं आया। हैदराबाद में बोला जरूर गया था लेकिन तभी से शीर्ष पद के लिए टारगेट कर रही थी ऐसा कुछ नहीं है।
40 साल…एक ही संस्थान
इतना लंबा करियर देख कर कई बार लोग पूछते हैं कि 40 साल एक ही संस्थान में…बोर नहीं हो गए..? मेरा यह कहना है कि बैंक बहुत सारी जगह-जगह दूसरे ट्रांसफर करता है। हम एक जगह बैठे रहे ऐसा नहीं है। मुझे देश की चारों दिशाओं में सेवा का मौका मिला और विदेश में भी कई जिम्मेदारियां संभाली हैं। मैं मानती हूं कि बैंक में आपका करियर डेवलपमेंट अच्छी तरह से होता है। वहां आपको अलग-अलग क्षेत्र में अनुभव का अवसर मिलता है। मुझे रिटेल बैंकिंग और ट्रेजरी सहित अलग-अलग एरिया में काम करने मिला। नया बिजनेस शुरू करने का मौका मिला। इससे सभी क्षेत्र का अनुभव हो जाता है।
हार्ड वर्क जरूरी लेकिन ”लक” भी साथ देना चाहिए
पूरे सेवाकाल में कई चैलेंज से रूबरू होने का मौका मिला। अगर आप चैलेंज को स्वीकार करते हैं और इससे पार पाने में खुद को इन्वाल्व रखते हैं तो इनसे उबरने पर सुकून मिलता है। मेरी नजर में बैंकिंग एक ऐसा सेक्टर है, जहां आप अगर अच्छी तरह से काम करेंगे तो आगे चल कर आपका हार्ड वर्क आपके करियर में जरूर दिखेगा। सफलता चाहे मेरी व्यक्तिगत हो या किसी की भी, मैं मानती हूं कि कुछ तो निश्चित तौर पर भाग्य की बात है। क्योंकि कोई कितना भी हार्ड वर्क कर ले लेकिन लक साथ न दे तो कुछ नहीं होता। लेकिन सच यह भी है कि लक ही सब कुछ नहीं होता आपको उसके लिए कोशिश भी करनी होती है। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे परिवार, दोस्तों और समाज से बहुत सपोर्ट मिला।
जैसे ही कन्फर्म हुआ पहला फोन बेटी को लेकिन…
एसबीआई की चीफ बनना मेरे करियर का अहम मोड़ था। उस दिन जैसे ही मेरे नाम पर मुहर लगी, मैनें तुरंत अपनी बेटी सुकृता को फोन लगाया। मैनें बात शुरू ही की थी कि पीछे से इतने ज्यादा कॉल आने लगे कि पूरी बात करने का मौका नहीं मिला। खूब बधाईयां मिली। इसके बाद तो सफर काफी चुनौतीपूर्ण रहा। एक साल के एक्सटेंशन के बाद अक्टूबर 17 में मैं रिटायर हुई और फिलहाल एक साल का कूलिंग पीरियड है। जिसमें मैं अक्टूबर 2018 तक दूसरा कोई संस्थान ज्वाइन नहीं कर सकतीं। इस बीच शैक्षणिक संस्थानों में लेक्चर दे रही हूं। वहीं देश में उद्योग के क्षेत्र में निवेश करने वाले देशी-विदेशी निवेशकों को जरूरी सलाह भी दे रही हूं। आईआईएम संबलपुर और आईआईटी खडग़पुर के निदेशक मंडल (बोर्ड) में शामिल हूं और सामाजिक गतिविधियों में भी व्यस्तता रहती है। मैनें रिटायरमेंट के बाद परिवार से वादा किया है कि शनिवार-रविवार हम सब इकट्ठा रहेंगे लेकिन कई बार यह वादा भी टूट जाता है।
पत्रकार और लेखक मुहम्मद जाकिर हुसैन वर्तमान में दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि भिलाई में सेवा दे रहे हैं। भारत-सोवियत संघ के सहयोग से निर्मित इस्पात नगरी भिलाई और भिलाई स्टील प्लांट के इतिहास पर केंद्रित उनकी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और प्रकाशनाधीन भी हैं। उन्हें साल 2013 में एनएफआई की राष्ट्रीय फैलोशिप मिल चुकी है। उनसे मोबाइल नंबर 9425558442 पर संपर्क किया जा सकता है।