सिद्धार्थ कलहंस-
लखनऊ : रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई,
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
यह मेरी खुशकिस्मती है कि ईशमधु तलवार हमारे दोस्त, हमपेशा, राह दिखाने वाले और बहुत कुछ रहे हैं। दो दशक से भी ज्यादा वक्त हुआ हमारी जान पहचान और दोस्ती को पर इस दौरान शायद ही कोई मौका आया जब उन्होंने हमें नाराज किया हो। बस ये काम भी कर दिया तलवार साहब ने अपने आखिरी वक्त में। पहली बार इस तरह से कभी न लौट आने के लिए चले गए और इस तरह नाराज करके कि अब हमारे पास आंसुओं के सिवा कुछ न बचा।
राजस्थान के अलवर शहर से पत्रकारिता शुरु कर बहुत जल्द ईशमधु तलवार राजधानी जयपुर पहुंचे और फिर वहीं के होकर रह गए। तीन दशक से भी ज्यादा समय उन्होंने देश प्रदेश के लगभग सभी बड़े अखबारों में गुजारा। बीच में कुछ दिनों के चंडीगढ़ भी गए जहां उन्होंने इरशाद कामिल जैसा काबिल गीतकार दोस्त भी कमाया पर जल्दी ही वापस राजस्थान लौट आए।
राजस्थान का लोक अगर महान साहित्यकार विजयदान देथा की कहानियों में बोलता है तो ईशमधु तलवार की जुबान से वही बरसता था। यों तो पत्रकारिता में लगभग हर क्षेत्र में उन्होंने हाथ अजमाया और नाम कमाया पर दिल फिल्म, संगीत और साहित्य मे रमा रहा। जब भी उनकी कलम इन विषयों पर चली तो लोगों की नजरें न हट पाईं। शानदार संगीतकार और राजस्थान के रहवासी दान सिंह को मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री जो मुकाम न दे सकी वो ईशमधु तलवार ने उन पर वो तेरे प्यार का गम किताब लिखकर दे दिया।
गुमनामी के अंधेरे में डूब चुके किसी महान शख्सियत को समाज में कैसे पुनर्स्थापित किया जाता है ये तलवार साहब ने कर दिखाया। कुछ दिन पहले ही उनका कालजयी उपन्यास रिनाला खुर्द छपकर आया तो धूम मच गयी। इसी उपन्यास के जरिए चाई जी का कैरेक्टर इतना मशहूर हुआ कि लोग उनसे मिलने पर उनका हालचाल पूंछते थे। पाकिस्तान पर लिखे किसी भी अन्य उपन्यास के मुकाबले रिनाला खुर्द लोगों को अलग नजरिया देता है।
जिंदगी की तमाम जिम्मेदारियां निपटा एक बेहतरीन परिवार को व्यवस्थित कर इन दिनों ईशमधु तलवार पूरी तरह से साहित्य में डूब गए थे। हालांकि बहुत अपनों के इसरार पर उन्होंने विश्ववार्ता से जुड़ना मंजूर किया था और पाक्षिक पत्रिका में लगातार राजस्थान की राजनीति, सरकार व अन्य विषयों पर लिख रहे थे। विश्ववार्ता पत्रिका में उनका ही नाम राजस्थान ब्यूरो चीफ के तौर पर जाता था। इन सब के बाद साहित्य के मोर्चे पर एक एक्टिविस्ट की तरह सक्रिय थे।
राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव के तौर उनकी सक्रियता देश भर में मिसाल बन गयी थी। हर दिन उनके खींसे में कोई न कोई कार्यक्रम होता और देश भर के साहित्यकारों को उन्होंने राजस्थान पहुंचा दिया था। साहित्यकारों से जुड़े स्थलों की यात्रा हो या उनके उपन्यासों के पात्रों की खोज, तलवार साहब बच्चों सरीखे उत्साह के साथ लग जाते थे। रांगेय राघव के उपन्यास का पात्र सुखराम नट को उन्होंने कुछ दिन पहले राजस्थान के एक गांव में खोजा डाला और उस पर एक लेख भी लिखा।
ईशमधु तलवार का जिक्र पत्रकारिता की राजनीति के लिए न हों तो बहुत कुछ अधूरा रहेगा। राजस्थान श्रमजीवी पत्रकार यूनियन से लेकर जयपुर के पिंक सिटी प्रेस क्लब का अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने कामयाबी के झंडे गाड़े। कुछ साल पहले आईएफडब्लूजे के पुनर्गठन के वो सूत्रधार रहे और आखिरी दिन तक वही आधार स्तंभ थे। पत्रकार संगठन से उन्होंने बहुत से नए लोगों को जोड़ कर उन्हें काढ़ा और नेतृत्व सौंपने लायक बताया। उनके अजीज हरीश गुप्ता जो फिलवक्त राजस्थान यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष हैं उन पर क्या बीत रही होगी अंदाजा भी नहीं लग सकता। अपनी मृत्यु के ठीक पहले वो अलवर के दौरे पर हरीश गुप्ता के साथ थे और वहां झील किनारे बैठे हुए अपनी तस्वीर मुझे भेजी थी।
यारबाश इस कदर थे ईशमधु तलवार कि शायद ही उनका कोई शत्रु मिल सके। हिन्दी साहित्य की खींचतान व कीचड़ उछाल राजनीति में वो कमल की तरह खिलते थे। जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल के बरअक्स उन्होंने पैरेलल लिटरेरी फेस्टिवल (पीएलएफ) शुरु किया तो देश भर में धूम मच गयी। अलग अलग खेमें में बंटे साहित्यकार उनके नाम पर एक मंच पर आसानी से आ जाते थे। उत्सवधर्मिता उनमें कूट कूट कर भरी थी और आयोजनों के बादशाह थे वो। कभी भी कहीं भी आयोजन करने को उत्साहित रहते थे जैसे उन्हें इससे ऊर्जा मिलती थी।
शब्द भी कम पड़ रहे हैं तलवार साहब के बारे में और पन्नों की भी सीमा है। कभी नहीं खत्म होगी जो वो दास्तान थे वो। बस इतना ही कहना है……
तुम्हारी याद भी अब तो किसी मुफलिस की पूंजी है,
जिसे हम पास रखते हैं जिसे हम रोज गिनते हैं।
अलविदा साथी