Chandra Bhushan-
किसान का बेटा हूं लेकिन रोटी अबतक अखबार की ही खाई है। उसे विरोध स्वरूप जलाया जाना, उसपर पेशाब किया जाना बुरा लगता है। तुम्हारा धंधा कुछ और है संजय गुप्ता, यह बात तुम नहीं समझोगे।
Rising Rahul-
सोशल मीडिया पर अभियान चलाने से दैनिक जागरण बंद नहीं होगा। दैनिक जागरण बंद करने का एक ही तरीका है, नोट कर लीजिए या कहीं सेव कर लीजिए- ‘अपने हॉकर से कहिए कि अगर वो दैनिक जागरण बेचेगा तो आप उससे कोई अखबार नहीं लेंगे।’
हॉकरों ने दैनिक जागरण बेचना बंद कर दिया तो कम से कम दैनिक जागरण की औकात नहीं है कि वह अपना अखबार खुद बेच पाए।
Anupam-
शब्द सूखते जा रहे अब तो..
समझ नहीं आ रहा क्या बोलें…
बस इतना पता है कि सबका हिसाब होगा..
नरेंद्र मोदी का, उसका साथ देने वाले अनैतिक लोगों का, अधिकारियों का, दैनिक जागरण जैसे अखबारों और जी न्यूज जैसे चैनलों का..
..एक एक का हिसाब होगा!
Raghvendra Dubey भाऊ-
ख्यात लेखक अशोक कुमार पांडेय से सहमत हूं कि यह (दैनिक जागरण) हत्यारों का मुखपत्र है… बहिष्कार करो दैनिक जागरण का…
शर्म आती है , लंबे समय तक इस अखबार में काम किया। हालांकि मैंने जिस दैनिक जागरण में काम किया विनोद शुक्ल जी के नेतृत्व में , वह यह नहीं था। तब जागरण लखनऊ साम्यवादी , समाजवादी , गांधीवादी जाहिरा रुझानों की उत्कृष्ट प्रतिभाओं का जमघट हुआ करता था। एसके त्रिपाठी, जय प्रकाश शाह , नवीन जोश , रामेश्वर पांडेय ‘काका’, ज्ञानेंद्र शर्मा, आलोक जोशी, सब ने जागरण में काम किया।
पटना दैनिक जागरण में भी मुझे फ्री हैंड मिला । शैलेन्द्र दीक्षित के नेतृत्व में तो बहुत प्रयोग हुए। कोई सोच सकता है कि नक्सलवादियों के जन सरोकार को लेकर जागरण जैसे अखबार में रपट की 21 कड़ियां छपें। मैंने लिखी। प्रतिरोध के साहित्य और सिनेमा पर विशेष परिशिष्ट निकाले गये। समकालीन विमर्श का परिशिष्ट ‘ कसौटी ‘ निकाला गया जिसकी पटना पुस्तक मेले में विचारक और शीर्ष उपन्यासकार राजेन्द्र यादव ने बेहद तारीफ की। इसका प्रभारी और संपादक मैं था।
लेकिन इस अखबार में कभी इलाहाबाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नगर प्रचार रहे और लखनऊ में किराने की दुकान चला रहे लोग भी घात लगा चुके थे। लखनऊ से दिल्ली तक वे पसरते गये। मैंने पहले वाले शख्स के बारे 1994 – 95 में ही कहा था — बस मौका मिले ये दैनिक जागरण को पांचजन्य बनाकर मानेगा।
आज वही अखबार की चालक सीट (स्टेयरिंग ह्वील) पर हैं, नतीजा सामने है। इस अखबार का बहिष्कार होना चाहिए।
Sanjaya Kumar Singh-
दैनिक जागरण के 4 अक्तूबर अंक में मुख्य शीर्षक था, किसानों का उपद्रव, आठ की मौत। उपशीर्षक बताता है, कार से ‘दुर्घटना’ हुई और उपद्रवियों ने चार भाजपा समर्थकों की हत्या की। ‘दुर्घटना’ में चार किसान मर गए थे। इसमें किसानों का उपद्रव कहां है? शायद तस्वीर में। अगर आपने वीडियो देखा हो तो समझ सकते हैं कि पैदल चले जा रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ा देना दुर्घटना नहीं है।
फिर भी, खबर क्या है और रिपोर्ट क्या हो रही है। यह चिन्ता की बात नहीं है। यह सब पुरानी बात हो गई।
आज के अखबार में इस गलती को सुधारने की गुंजाइश थी। किसानों का उपद्रव – था या नहीं, चार मरे या आठ या चार की हत्या के आरोप में चार मार दिए गए है – जो भी सच हो या आप जिसे भी सच मानिए, तथ्य यह है कि केंद्रीय मंत्री और बेटे पर केस दर्ज हुआ है? क्या यह उपद्रव से छोटी बात है? अगर किसानों का उपद्रव बैनर बन सकता है तो मंत्री और मंत्री पुत्र ने वही किया था। इसीलिए केस दर्ज हुआ है – खबर छापने में शर्म क्यों आ गई? इसे बैनर क्यों नहीं बनाया?
किसान करें तो उपद्रव। मंत्री करें तो सरकारी पर्दा और मजबूरी में केस दर्ज करनी पड़े तो खबर छापने में हाथ कापते हैं? दूसरी ओर, सरकार जागरण पर विज्ञापनों की मेहरबानी तो करती ही है सरकारी खरीद का मौका भी नहीं चूकती।