आगे क्या हुआ, यह जानने के लिए मैंने ‘जेल जर्नलिज्म’ को आनलाइन खरीदा. हाथ में आने पर बस दो सीटिंग में निपटा दिया. आमतौर पर भारी और बोझिल किताबें कई कई सीटिंग के बावजूद खत्म नहीं हो पातीं. पर कानपुर के युवा पत्रकार मनीष दुबे की लिखी आत्म संस्मरणात्मक किताब ‘जेल जर्नलिज्म’ किसी बांधे रखनी वाली शानदार सिनेमा की तरह बस एक ब्रेक लेकर ही दो बैठकी में चट कर गया.
दरअसल जेलें अपने आगोश के भीतर आने वाले उन मनुष्यों को अंदर से मथ डालती हैं जो संवेदना और शब्द रखते हैं. जेलों में बंद हर शख्स की कहानी होती है. जेलें उग्र से लेकर व्यग्र प्राणियों का ठिकाना होती हैं. जेलें अथाह इंतजार और असीम मजबूरियों की कब्रगाहें भी हैं. मनीष दुबे दिल्ली आए थे नौकरी करने, मीडिया में. सब कुछ तय हो गया. उन्होंने ज्वाइन भी कर लिया. लेकिन नए वर्ष के स्वागत की पूर्व संध्या पर जिन कुछ अनजान लोगों के साथ उनकी पहली बैठकी और पियक्कड़ी हुई, उसने उनकी जिंदगी की दशा-दिशा ही बदल दी. यह किताब फौरन तो यही एलर्ट करती है आपको कि अगर संगत ग़लत हुईआपकी, जाने या अनजाने में, तो एक रोज बहुत लंबा फंसेंगे, नपेंगे, झेलेंगे.
तिहाड़ जेल के भीतर का जीवन मनीष ने कुछ यूं सच्चे-साफ और कनपुरिया शब्दावली-मुहावरों के साथ वर्णित किया है कि किताब पढ़ते वक्त पाठक की संवेदना जेल को झेल रहे नायक के साथ हो जाती है. किताब का नायक दरअसल एक विचित्र चक्रव्यूह में फंसा कर जेल भेजा गया है इसलिए वह कभी कभी खुद को अपने परिवार, मां पिता सबके लिए परेशानी उत्पन्न करने वाला खलनायक भी मानता रहता है. किताब के नायक का जेल से छूट पाने का न खत्म होने वाला इंतजार पाठक को भी व्यग्र किए रहता है कि आखिर ये बेचारा छूटेगा कब?
मैं खुद गाजियाबाद की डासना जेल में 68 दिन रह चुका हूं. जब वहां से बाहर निकला तो फौरन ‘जानेमन जेल’ किताब लिखी, जेल के भीतर के अपने मन-जीवन की स्थिति को हूबहू दुनिया के सामने पेश करने के लिए. इस किताब का लोगों ने सराहना की. मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैंने सब कुछ कह बता कर खुद को बेहद मुक्त कर लिया, अपने को राहत दे दी. ‘जानेमन जेल’ मेरी पहली किताब थी. आगे किताब टाइप कुछ लिखूंगा या नहीं, ये नहीं पता. जानेमन जेल का अगला पार्ट लिखूंगा या नहीं, ये भी नहीं पता. पर मनीष की किताब पढ़ते हुए ऐसा लगा, जैसे मनीष नहीं, खुद यशवंत ही तिहाड़ काट कर आए हों और अपनी नई जेल यात्रा पर नई किताब ‘जेल जर्नलिज्म’ लिख मारी हो.
मनीष की ‘जेल जर्नलिज्म’ किताब कहीं कहीं खटकती है. भाषा व्याकरण के दोष कई हैं. किताब में जगह जगह ढेर सारा लंबा वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक चिंतन है. पर ये खटकने वाली थोड़ी सी बातें इसलिए किनारे की जा सकती हैं क्योंकि आप एक ऐसे आदमी की बात सुन रहे हैं जिसे अचानक एक खौफनाक दुनिया में भेज दिया गया जहां हर तरफ केवल हल्ला, हमला और अंधेरा ही है. ऐसे माहौल की गहन पीड़ा से निकला शख्स जो लिखेगा, उसमें वह भोगा हुआ चौबीस कैरेट का भयंकर सच होगा जिसे शब्दों की चासनी से जबरन सुंदर नहीं बनाया जा सकता.
जेल जर्नलिज्म पर जल्द ही कोई वेब सीरिज या फिल्म बनाने की घोषणा कर दे तो ये बड़ी बात न होगी. मनीष ने जो कुछ भोगा है और उसे जिस मौलिक तरीके से लिखा है, वह उनके बेहद जीवट व क्रिएटिव होने का सुबूत है. तिहाड़ जेल के अधिकारी, कर्मचारी और बंदी इस किताब के जरिए खुद को आइना दिखा सकते हैं. सुधार गृह के रूप में प्रचारित जेलें असल में किस तरह शोषण, दमन, उत्पीड़न और अमानवीय कृत्यों का केंद्र बन गई है, यह भी मनीष की किताब से जाना जा सकता है. अगर आप इस बीत रहे बरस की कुछ अच्छी किताबों की लिस्ट मुझसे मांगेंग तो मैं मनीष की किताब जेल जर्नलिज्म को कई वजहों से टाप थ्री में रक्खूंगा. मनीष जल्द ही जेल जर्नलिज्म का पार्ट दो भी लेकर आ रहे हैं, यह जानकारी सांस थामे रहने को मजबूर करती है कि अब ऐसा क्या कुछ जेल में घटित हुआ जिसको बताने के लिए किताब का सेकेंड पार्ट ले आ रहे हैं.
जेलों के भीतर के हालात और भोगे गए दुख-सुख पर लिखी गई किताबों की लिस्ट में जेल जर्नलिज्म वाकई अपना प्रमुख स्थान बना चुकी है. मनीष के लिखने की जो कनपुरिया स्टाइल है, वह कौतुक पैदा करती है, रोचकता बनाए रखती है, कई कई जगह चमत्कृत करती है, कि कोई इतना सहज कैसे एक्सप्रेस कर सकता है, लेखन के जरिए.
किताब आनलाइन मंगाने के लिए आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-
मनीष को बधाई. एक शानदार किताब के लिए. इस किताब के अगले पार्ट की मुझे प्रतीक्षा है.
यशवंत सिंह
संस्थापक-संपादक
भड़ास4मीडिया डॉट कॉम
बृजेश शर्मा
September 29, 2019 at 7:42 pm
धन्यवाद यशवंत जी और आपकी प्रसंशा भी तरीफोकाबिल है मनीष के लिए
मनीष दुबे
September 29, 2019 at 7:51 pm
आपका प्यार व आभार है भड़ासी बाबा
अमित त्रिपाठी आनंद
September 30, 2019 at 11:26 pm
मित्रों,
किताब खरीदने के लिए कहना बहुत तुक्ष बात होगी,
लेकिन नहीं पढ़ा तो खुद से बेईमानी ज़रूर होगी,
दर्द होगा अगर छू लोगे एक अदद हर्फ भी पन्नों में,
खुल जाएंगी आंखें जब हकीकत रूबरू होगी ।।
आपकी रचना, ये किताब आपकी सफलता में एक नया अध्याय अवश्य जोड़ेगी । ढेरों बधाइयां ।
अमित आनंद
मनीष दुबे
October 2, 2019 at 7:26 pm
धन्यवाद अमित जी
Ashish sharma
October 1, 2019 at 6:50 am
1. No.dhanyawad bhai apki puri padhi dil gadgada ho gya bhai
Dhanyawad bhai
Dhasu hai novel
Ashwani Sharma
October 1, 2019 at 3:57 pm
Excellent work..Manish Dubey Ji…
altamash
October 1, 2019 at 4:00 pm
1..no…
Rameshwar Pathak
October 1, 2019 at 6:39 pm
Very nice novel….loved to read this….it talks about real life ….must read.
Durgesh Kumar Pandey
October 2, 2019 at 12:24 am
A true and honest work by Manish Je. The entire book is like a flow of river and on every movement readers quarisity increases i. e. What next. All the best Manish Je
rahul yadav
October 2, 2019 at 10:42 am
i personally know this book writer MANISH DUBEY.
this book is really OUTSTANDING
must read
Vansh savita
October 2, 2019 at 10:46 am
1 .No book mera bhai ji
राहुल यादव
October 2, 2019 at 11:00 am
गजब की किताब है। सीखाने सीखने के लिए अत्यंत उम्दा. इसके लेखक बड़े भाई मनीष दुबे को पर्सनली जानने का एक सुखद अहसास होता है किताब पढने के बाद.
बहुत बहुत शुभकामनाएं भईया हमें ऐसी विषयवस्तु से रूबरू कराने के लिए
Reetu shukla
October 4, 2019 at 8:59 am
Hme apke second part ka besabri se intjar h bhai
Reetu shukla
October 4, 2019 at 9:13 am
Jel journalism wo novel h jise pdkr hme bhut kuch acha sikhne ko milega so ye novel sbhi ko jrur lekr pdni chahiye
Abhinav
October 9, 2019 at 12:40 pm
This novel is showing story of jail life.
Good work
Carry on write.
mohit shukla
January 12, 2021 at 12:02 pm
manish ji hame or bhi book ka intejar hai
wase online kase khared sakte hai ye bhi bataiye