शोभित जायसवाल-
फिल्म झुंड कल निपटा दी। हमारा समाज जिसे फिल्म कहता है, उन मानकों पर इसे नहीं बनाया गया है। हमारी सामान्य समझ का सिनेमा चमत्कारों, गलेबाजी, कुदरत के खूबसूरत कहे जाने वाले नजारों को समेटता है। लेकिन ये सिनेमा अनगढ़ लोगों को लेकर बना है। यह अनगढ़ता का सिनेमा है। वैसे भी झुंड होता भी अनगढ़ है।
फिल्म वास्तव में सोसाइटी की बनाई बाउंड्री को कैप्चर करती है और वह सिंबॉलिकली ईंट पत्थर की दीवार को कैप्चर करती है। फिल्म के सभी अहम बिंदुओं पर दीवार खड़ी है।
ऐसी दीवारें मैंने खूब देखीं हैं। मुखर्जी नगर के SFS फ्लैट और इंदिरा विहार को जोड़ पर जो दीवार है उसमें आने जाने के लिए एक गेट लगा था। लेकिन वो गेट फ्लैट वालों ने बंद करवा कर एक चौकीदार बैठा दिया। ठीक इस फिल्म की तरह। ऐसी ही एक दीवार शाहपुर जट गांव और एशियाड गेम्स विलेज फ्लैटस की चौहद्दी बनाती है।
मैं खुद करीब 20 साल पहले मुंबई के वडाला इलाके की ऐसी ही शहीद नगर बस्ती में कुछ दिन रहा हूं, वहां की तपिश से गुजरा हूं।
बहरहाल, हमारे सिनेमा में कलाकारों को मलिन बस्ती का निवासी ‘बनाया’ जाता है लेकिन झुंड में मलिन बस्ती के बच्चों को ही कलाकार ‘बनाया’ गया है। ये जो विपरीत दिशा की यात्रा है, वो केवल निर्देशक नागराज मंजुले जैसे चंद लोग ही कर सकते हैं।
मधुर भंडारकर की ट्रैफिक सिग्नल, जोया अख्तर की गल्ली ब्वाय में मलिन बस्ती का परिवेश है। झुंड में भी है लेकिन कहीं अधिक प्रामाणिकता के साथ।
अमिताभ बच्चन की शायद यह इकलौती फिल्म होगी जहां वे ‘अकड़े’ हुए, ‘ठुकराए गए’ कैरेक्टर से बाहर आए हैं। उनकी लड़ाई ‘ऐसे लोग’ के लिए है, अपने लिए नहीं। वे फिल्म के नायक भी नहीं हैं। नायक है अंकुश। जो फिल्म के अंत में एक दूसरी दुनिया में प्रवेश करता है। ऐसी दुनिया जहां के गेट से वह कई बार कोशिश भी गुजर नहीं पा रहा है। वो अपराध छोड़ कर ही इस दुनिया में आ सकता है।
फिल्म स्पष्ट कहती है कि रीटेलिएट, रिएक्शनरी नहीं होना है। ईगो खत्म करो, खुद पर फोकस करो, खुद को बदलो। प्रतिनायक आकाश, अंकुश को तो घूरता है लेकिन वह खुद के घूरे जाने पर दल बल सहित हमलावर हो जाता है। अंकुश की नई जिंदगी का सफर घूरे दिए जाने के ईगो को खत्म करने से शुरू होता है क्योंकि उसके लिए वही एक, एकमात्र रास्ता है, हवाई जहाज पकड़ने का।
फिल्म ‘ह्रदय परिवर्तन’ जैसी चमत्कारी चीजों से दूर है। मंजुले की इससे पहले की फिल्मों, शार्ट फिल्मों में उदार हो जाने वाले चरित्र नहीं होते। उनकी पिस्तुल्या, फंड्री और सैराट में ऐसे कैरेक्टर नदारद हैं।
झुंड फिल्म का एक इंटरेस्टिंग कैरेक्टर एक आदिवासी पिता का है जो बेटी का पासपोर्ट बनवाने गांव से निकला है। उसके पास कैसा भी सरकारी कागज नहीं है। न ही अपना न ही खिलाड़ी बेटी का। वह किसी भी तरह की पहचान तक से महरूम है। गांव का सरपंच उससे कहता है पहचान पत्र बनवाने के लिए पहचानना भी तो आना चाहिए।
एक और बूढ़ा कैरेक्टर है। जो लाइफ में फ्रस्टेट है लेकिन बच्चों को गोल मारता देख जोश से भर जाता है। वो राजकीय चिन्ह अशोक की लाट को तीन मुंडी वाला शेर कहता है। इतना नेचुरल संवाद लिखा नहीं जा सकता। वो वही बोल सकता है जो झुंड का बाशिंदा है। कोई नकली आदमी नहीं।
ऐसी सैकड़ों फिल्में हैं जो मुंबई की चॉल का जीवन दिखाती हैं। मैंने पहली बार फिल्म धारावी में कैमरे को चॉल से भी नीचे जाते देखा। अनुराग कश्यप की निरूद्देश्य फिल्मों में खूब देखा। सैराट और शानदार फिल्म कोर्ट में भी प्रामाणिकता के साथ देखा।
नागराज का भी कैमरा, चॉल से नीचे के जीवन मलिन बस्ती की जिंदगी को शानदार ढंग से पकड़ता है। उनके सिनेमा का शिल्प एक अलग ही डिटेल की मांग करता है। जिसमें बिरसा मुंडा, महात्मा फुले, दीक्षाभूमि बैकग्राउंड में रह कर भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराते है।
फिल्म फुटबॉल के वास्तविक कोच ‘विजय बरसे’ पर बनी है। विजय बरसे के विजन और हिम्मत को सलाम।
शोभित जायसवाल
March 22, 2022 at 12:37 pm
यशवंत भैैया
स्टोरी मेरी है न कि जितेंद्र जी की।
उन्होंने मेरी story को अपनी वॉल पर शेयर किया है।
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शोभित जायसवाल