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सुख-दुख

बचपन चाचा चौधरी के साथ

मैने कॉमिक्सें पढनी अबसे करीब 25 साल पहले छोड़ दी थीं लेकिन बचपन के उन 7-8 साल की यादें जब मैं कॉमिक्सें पढता था, आज भी ताजा हैं। वो दौर नब्बे के दशक का था जब मैं कॉमिक्सों और बाल पत्रिकाओं का आदी हो गया था। चंपक, टिंकल, लोटपोट, पराग और बालहंस मेरी पसंदीदा बाल पत्रिकाएं थीं। इनके अलावा चाचा चौधरी, महाबलि शाका, नागराज, राजन-इकबाल और मोटी-पतलू के कॉमिक्सों को पढने में काफी दिलचस्पी थी। दिलचस्पी इतनी ज्यादा कि अक्सर घर पर बड़ों से डांट खानी पड़ती थी कि लड़के का पढाई-लिखाई में मन नहीं लग रहा है, स्कूली किताबों के बजाय कॉमिक्सों में ही घुसा रहता है।

मैने कॉमिक्सें पढनी अबसे करीब 25 साल पहले छोड़ दी थीं लेकिन बचपन के उन 7-8 साल की यादें जब मैं कॉमिक्सें पढता था, आज भी ताजा हैं। वो दौर नब्बे के दशक का था जब मैं कॉमिक्सों और बाल पत्रिकाओं का आदी हो गया था। चंपक, टिंकल, लोटपोट, पराग और बालहंस मेरी पसंदीदा बाल पत्रिकाएं थीं। इनके अलावा चाचा चौधरी, महाबलि शाका, नागराज, राजन-इकबाल और मोटी-पतलू के कॉमिक्सों को पढने में काफी दिलचस्पी थी। दिलचस्पी इतनी ज्यादा कि अक्सर घर पर बड़ों से डांट खानी पड़ती थी कि लड़के का पढाई-लिखाई में मन नहीं लग रहा है, स्कूली किताबों के बजाय कॉमिक्सों में ही घुसा रहता है।

कॉमिक्सों की ऐसी लत लग गई थी कि मां को एक बार स्कूल में मेरी क्लास टीचर से शिकायत करनी पडी कि इसकी कॉमिक्सों की आदत छूट नहीं रही है, आप ही कुछ कीजिये। सच भी था। स्कूल से लौटने के बाद मेरा ज्यादातर वक्त कॉमिक्सों की कल्पनाभरी दुनिया में ही गुजरता था। घर से स्कूल में खाने पीने के लिये जो भी रूपये-दो रूपये मिलते थे उन्हें बचाकर मैं कॉमिक्सों खरीद लेता था। मेरे पास कॉमिक्सों का भंडार हो गया था। एक वक्त तो ऐसा आया कि मेरे पास 200 से ज्यादा कॉमिक्स इकट्टठा हो गये। पिताजी ने जब ये भंडार देखा तो पीटने दौडे – “कॉमिक्सों के चक्कर पडा रहेगा को आगे कुछ कर नहीं पायेगा”। बडी मुश्किल से मां ने पिटने से बचाया। उसके बाद मैने अपनी सारी कॉमिक्सें पडोस के एक दोस्त के यहां छुपा दीं और पिताजी से झूठ कह दिया कि कॉमिक्सों को अब रद्दी वाले को बेच दिया है। मेरी ही तरह मेरे कई हमउम्र दोस्त भी कॉमिक्स पढने के शौकीन थे। उन दिनों फेसबुक, यू ट्यूब और व्हाट्स अप कहां था भई। आज हम इन सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर तस्वीरें और वीडियो “शेयर” करते हैं। उन दिनों हम आपस में कॉमिक्सें “शेयर” करते थे।

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इन कॉमिक्सों और बाल पत्रिकाओं में ऐसा क्या था जो ये बच्चों को इतना लुभातीं थीं?  कॉमिक्सों और बाल पत्रिकाओं को छापना इतना आसान काम नहीं है, ये बात थोडी उम्र होने पर ही समझ में आती है, एक बाल पाठक के रूप में नहीं। कॉमिक्सों की कहानी, उनके चित्र और शब्दों के चयन के लिये खुद बच्चा बनकर सोचना पडता है। दिवंगत कार्टूनिस्ट प्राण और अमर चित्र कथा के संस्थापक अनंत पई इसमें पारंगत थे और भारत के कॉमिक्स जगत पर उनका दबदबा था। भारत में कॉमिक्सें सिर्फ बच्चों के मनोरंजन का माध्यम नहीं रहीं। पई ने अमर चित्र कथा के माध्यम से बच्चों को भारतीय संस्कृति, धर्म और मान्यताओं से परिचय करवाने का भी मिशन चलाया। तमाम ऐसे कॉमिक्स बाजार में आये जिनका उद्देश्य शैक्षणिक था। कई बाल पत्रिकाओं ने बच्चों की लेखन प्रतिभा को प्रोत्साहित करने में भी अहम भूमिका निभाई। राजस्थान पत्रिका ग्रुप से एक बच्चों की हिंदी पत्रिका निकलती है जिसका नाम है “बालहंस”। 90 के दशक में इसमें व्यावसायिक बाल साहित्यकारों की रचनाओं के अलावा बच्चों की रचनाएं भी प्रकाशित की जातीं थीं (पता नहीं अब ऐसा होता है या नहीं)।

उस वक्त बालहंस के संपादक अनंत कुशवहा हुए करते थे। मई 1992 के अंक में इस पत्रिका ने एक निबंध लेखन प्रतियोगिता आयोजित की। देशभर के बच्चों से हिंदी में “मेरी मां”  विषय पर निबंध मंगवाये गये। मैं तब आठवीं कक्षा में था। स्कूल में कुछेक कविताओं और निबंध की प्रतियोगिताएं जीत चुका था। सोचा बालहंस की इस प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेकर देखा जाये। विजेता को 250 रूपये का ईनाम दिया जाने वाला था। मैने अपना निबंध भेज दिया। 2 महीने बाद के अंक में प्रतियोगिता के नतीजे घोषित हुए। देखकर यकीन नहीं हुआ कि ये प्रतियोगिता मैने जीत ली थी। चंद दिनों बाद ढाई सौ रूपये का चेक बतौर लेखक मेरी पहली कमाई के तौर पर डाकिया लाया। ढाई सौ रूपये उन दिनों मेरे लिये बडी रकम थी लेकिन ज्यादा खुशी पत्रिका में अपना छपा हुआ नाम देखकर हुई। मेरे निबंध को स्कूल के नोटिस बोर्ड पर प्रिंसिपल ने मेरी प्रशंसा करते हुए लगवाया। खुश होकर उन्होने मुझे फादर कामिल बुल्के का हिंदी-इंग्लिश शब्दकोष भी भेंट किया। उसके बाद लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वो आज तक थमा नहीं।

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आज कॉमिक्सों का दौर खत्म हो चला है…लेकिन ये प्राकृतिक है। हम अपनी उम्र में जो करते थे, उस उम्र में आज के बच्चे वे सब नहीं करते। कॉमिक्सों की जगह इन दिनों कैंडी क्रश, टेंपल रन, एंग्री बर्ड्स वगैरह जैसे ऑनलाईन गेम्स ने ले लिया है जिन्हें छोटे छोटे बच्चे भी टैब पर खेल रहे हैं। 80 और 90 के दशक के तमाम बच्चों को कॉमिक्सों और बाल पत्रिकाओं ने प्रभावित किया था, आज के बच्चों को ये कर रहे हैं। आज कार्टूनिस्ट प्राण के निधन पर चाचा चौधरी और साबू को याद किया जा रहा है। कल को ये भी इसी तरह यादों में समा जायेंगे क्योंकि बचपन पर तब कोई और हावी होगा।

एबीपी न्यूज, मुंबई के ब्यूरो चीफ जीतेंद्र दीक्षित के ब्लाग ‘जितेंद्र डायरी’ से साभार. जीतेंद्र का लिखा ये आर्टकिल भी पढ़ सकते हैं…

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नवभारत टाईम्स की भाषा को बिलकुल नापसंद करने के बावजूद ये अखबार आज भी मेरे घर आता है

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0 Comments

  1. सिकंदर हयात

    August 7, 2014 at 9:02 am

    डायमंड कॉमिक्स के तीन स्तम्भ – प्राण आशु और कृपा शंकर भारद्वाज और मधुमुस्कान के हरीश एम सूदन और जगदीश इन पांच लोगो ने बचपन में हमें इतना आनंद दिया था की अरबो रुपया खर्च करके भी आप वो आनद नहीं पाया जा सकता जितनी भी तारीफ की जाए काम होगी

  2. सिकंदर हया

    August 8, 2014 at 9:09 am

    डायमंड कॉमिक्स के तीन स्तम्भ – प्राण , आशु और कृपा शंकर भारद्वाज और मधुमुस्कान के हरीश एम सूदन और जगदीश इन पांच लोगो ने बचपन में हमें इतना आनंद दिया था की अरबो रुपया खर्च करके भी अब वो आनद नहीं पाया जा सकता हे कमाल थे ये लोग जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी मुझे नहीं लगता की विदेशो में भी कोई इन पांचो की टक्कर का होगा -मेने भी अब तक 20 25 व्यंगय लिखे हे लोग हमारे ह्यूमर की तारीफ करते हे और इसका पूरा क्रेडिट में इन महान लेखको को देता हु जिन्होंने बचपन में ही हमें ह्यूमर की तालीम दी थी खासकर कृपा शंकर भारदवाज़ जी को तो में अपना गुरु मानता हु और उमीद करता हु की प्राण साहब तो चले गए मगर बाकी सभी -अभी हयात होंगे

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