Anil Sinha : सचमुच कठिन समय है। आपातकाल का विरोध करने वाले आज कश्मीर में अखबार और इंटरनेट पर लगी रोक पर चुप्पी साधे हैं। एक सभा में एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र ने कहा कि मीडिया आयोग बनना चाहिए क्योंकि आईएसआईएस से लड़ाई अकेले सरकार नहीं लड़ सकती। यह काम एक स्वतंत्र मीडिया के सहारे ही हो सकता है और इसके लिए आयोग जरूरी है। उन्होंने इस आयोग का गठन इसलिए भी जरूरी बताया कि कन्हैया एपिसोड के कारण फसल बीमा जैसी क्रांतिकारी योजना को जरूरी कवरेज नहीं मिल पाया और ऐसी घटनाएं फिर से नहीं होनी चाहिए। मित्र से मुलाकात होगी तो पूछूंगा- मीडिया आयोग बनाना चाहते हैं या प्रचार आयोग? जय हिंद.
Sandeep Verma : खबर है कि पिछले तीन दिनों से कश्मीर में अखबार नहीं छपने दिए गये है. इमरजेंसी के नाम पर हर साल छाती पीट पीट कर स्यापा मनाने वाले संघी और भाजपाई प्रेस की स्वतंत्रता छीने जाने को इतिहास को काला अध्याय बताकर याद करते नहीं थकते. यूपी सहित कई प्रदेशों में ऐसे वीर बाँकुरे तो करदाताओं की रकम से मोटी सरकारी पेंशन भी हर माह हजम करते रहते हैं. कश्मीर में अखबारों को बंद करवाने की प्रसाशन की हरकत पर आखिर ऐसे पेंशनभोगी और वार्षिक विलापी मुंह में दही जमाकर चुप क्यों बैठे हैं. कश्मीर में प्रेस की स्वतंत्रता बहाल करने के लिए शेष भारत की जनता खुद को कश्मीर की जनता से अलग नहीं समझ सकती. कश्मीर की जनता और उसकी अभिब्यक्ति की स्वंत्रता के लिए हम सभी उसके साथ हैं.
Ambrish Kumar : श्रीनगर में अख़बारों पर सरकार ने जिस तरह का हमला किया है उसके खिलाफ किसी भी पत्रकार संगठन ने अभी तक विरोध करने का कोई एलान नहीं किया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां प्रेस सेंसरशिप के खिलाफ देशभर में आवाज उठानी चाहिए. कई पत्रकार संगठन के पदाधिकारी जो फेसबुक पर हैं और सूखा बाढ़ पर चिंता जताते है उन्हें भी आगे आना चाहिए.
Nadim S. Akhter : क्यों रे सांभा! ई कश्मीर में कित्ते अखबारों-न्यूज चैनलों पर बैन लगाया है रे… ससुरा ई कश्मीरी मीडिया तो देशद्रोही निकला! सबको सजा मिलेगी… बरोब्बर मिलेगी… आsss थू !. अऊर ई नैशनल मीडिया वालन को भी बुलाओ… गब्बर इनको ईनाम देगा.. बरोब्बर देगा…हो हो हो…हा हा हा..ठांय-ठांय-ठांय..आह! ….सांभा !…मौत गब्बर के सिर पर नाच रही थी और तूने बताया भी नहीं..?!
Pawan Karan : कश्मीर में शुक्रवार 15 जुलाई की रात अख़बारों पर छापे की कार्रवाई के बाद आधिकारिक रूप से तीन दिनों तक उनके प्रकाशन पर लगी रोक के बाद अब तक स्थानीय पत्रकारों के अलावा कथित मुख्यधारा में मीडिया के किसी भी हिस्से की ओर से विरोध का स्वर नहीं उठा है। दिल्ली में अभिव्यक्ति की आज़ादी के घोषित उद्देश्य को लेकर बैठी संस्था प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने अब तक कोई निंदा बयान आदि जारी नहीं किया है। कश्मीर में मीडिया पर पाबंदी के ताज़ा घटनाक्रम में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी करते हुए इसकी निंदा की है। घाटी में 1990 के बाद से वैसे तो कई बार प्रेस पर राजकीय बंदिश लगाई जा चुकी है, लेकिन पहली बार एक नई चीज़ देखने में सामने आ रही है। इस बार कश्मीरी मीडिया बनाम भारतीय मीडिया का एक फ़र्क पैदा हुआ है जिसे आने वाले लंबे समय तक पाटना मुश्किल होगा। अंग्रेज़ी की पत्रिका कारवां को दिए अपने साक्षात्कार में कश्मीर रीडर के संपादक हिलाल मीर ने जो बातें कही हैं वे भारतीय मीडिया बनाम कश्मीरी मीडिया के अंतर को साफ़ रेखांकित करती हैं: ”इसमें (प्रेस पर प्रतिबंध) आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। वे चाहते हैं कि उनका प्रोपगेंडा तंत्र अबाध रूप से काम करता रह सके। स्थानीय मीडिया न केवल यहां के संकट को कवर कर रहा था बल्कि भारतीय मीडिया के प्रोपगेंडा पर भी सवाल उठा रहा था। सामान्य दिनों में भी वे यही करते हैं लेकिन दूसरे तरीकों से, मसलन मालिकान और संपादकों पर दबाव बनाकर। क्या आपको यह आश्चर्यजनक नहीं दिखता कि (पत्रकार) बरखा दत्त को 1500 लोग घायल दिखाई देते हैं- जिन्हें वे खुद अपनी आंखों से एसएचएमएस (श्री महाराजा हरि सिंह) अस्पताल में देखती हैं- और उसके बाद वे सेना के अस्पताल में जाती हैं जहां 14 सुरक्षाकर्मी उन्हें बिस्तरों पर आराम से बैठे हुए दिखाई देते हैं, और वे इन दोनों की आपस में तुलना कर देती हैं जैसे कि दोनों बातें समान हों?”
अख़बारों के दफ्तरों और छापेखानों पर 15 जुलाई की रात में छापा डाला गया और 16 जुलाई को अख़बारों के संस्करण नहीं छप सके। पुलिस ने छपी हुई प्रतियां ज़ब्त कर ली थीं। राज्य के सबसे बड़े अखबार ग्रेटर कश्मीर ने एक ऑनलाइन रिपोर्ट में बताया कि पुलिस ने उसके उर्दू अख़बार कश्मीर उज़्मा की 50,000 से ज्यादा प्रतियां ज़ब्त कर लीं, प्रिंटिंग प्लेटों को छीन लिया गया और कर्मचारियों की पिटाई की गई। जिस प्रति को ज़ब्त किया गया था, उसकी लीड स्टोरी की हेडलाइन थी ”ब्लडबाथ कंटीन्यूज़” (जारी है खूनी खेल)। कारवां के मुताबिक शनिवार की दोपहर अख़बारों के संपादकों और मालिकान ने श्रीनगर में एक आपात बैठक बुलाई थी। एक साप्ताहिक पत्रिका कश्मीर लाइफ ने बाद में रिपोर्ट दी कि बैठक में शामिल समूह ने जब सरकारी प्रवक्ता से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, ”अगले तीन दिनों के दौरान कश्मीर घाटी में अमन का माहौल बिगाड़ने की मंशा से पैदा किए जाने वाले गंभीर संकट की आशंका के मद्देनज़र कठोर कर्फ्यू लगाया जाएगा इसलिए अख़बारों के कर्मचारियों की आवाजाही और उनका वितरण मुमकिन नहीं हो पाएगा।”
हिंदुस्तान टाइम्स में शुजात बुखारी की रिपोर्ट कहती है कि कश्मीरी प्रेस जिस आपातकाल के दौर से गुज़र रहा है, उसने स्वतंत्र आवाज़ों को दबाने के मामले में एक नया पैमाना कायम कर दिया है। वे कहते हैं कि अख़बारों को रोककर राज्य सरकार अफ़वाहों के बाज़ार के लिए ज़मीन तैयार कर रही है जो कहीं ज्यादा ख़तरनाक साबित हो सकता है। वे लिखते हैं, ”इतना ही नहीं, कुछ राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने अपने तरीके से आग बुझाने का काम अपने हाथों में ले लिया है और यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं गोया कश्मीर की जनता ने एक जंग छेड़ दी है। उनकी रिपोर्ताज और हंगामेदार बहसें आग में घी डालने का काम कर रही हैं जबकि औसत कश्मीरी खुद को बेहद दबा हुआ महसूस कर रहा है। स्थानीय मीडिया इकलौता औज़ार हो सकता है जो हालात को सामान्य करने में मदद कर सकता है। इस फैसले के पीछे का तर्क समझ में नहीं आता कि अख़बारों के मालिकों को आधिकारिक रूप से इसकी सूचना क्यों नहीं प्रेषित की गई।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कश्मीर में जब-जब माहौल खराब हुआ है, कश्मीरी मीडिया उसका शिकार बना है। उमर अब्दुल्ला की सरकार में 2010 में तो सात दिनों तक अखबारों को नहीं छपने दिया गया था और सरकार ने डीएवीपी के विज्ञापनों के माध्यम से भी उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इसके अलावा भी अलग-अलग मौकों पर 2008 और 2013 में अखबारों पर रोक लगाई जा चुकी है। पहले भी दिल्ली में बैठे अभिव्यक्ति के रखवाले संस्थानों ने कोई आवाज़ नहीं उठाई थी और इस बार भी वे चुप हैं। शनिवार को श्रीनगर में हुई अखबार संपादकों और मालिकान की बैठक में जो वक्तव्य जारी किया गया, वो निम्न है:
“कश्मीर स्थित अखबारों के संपादकों/मालिकों की एक आपात बैठक शनिवार दोपहर में आयोजित की गई जिसमें प्रिंटिंग प्रेसों पर पुलिस के छापे से उभरे माहौल पर खुलकर चर्चा की गई। अखबारों के प्रसार पर रोक लगाने वाली सरकार की कार्रवाई की कड़ी निंदा की गई। भागीदारों ने इसे प्रेस की आज़ादी पर हमला करार दिया और इसके खिलाफ़ हर कीमत पर लड़ने का संकल्प लिया। बैठक ने सरकार के इस औपचारिक प्रतिबंध की कठोर निंदा की जो न केवल निंदनीय है बल्कि एक लोकतांत्रिक ढांचे के मानकों के विपरीत है। संपादकों ने पाठकों को आश्वस्त किया कि सरकार जैसे ही प्रेस पर लगी इमरजेंसी को हटाएगी, हम अपने प्रकाशनों को चालू कर देंगे।”
इस दौरान 17 जुलाई को इंडियन जर्नलिस्ट्स यूनियन (आइजेयू) ने अखबारों पर छापेमारी की घटना की निंदा में एक बयान जारी किया है जिसे राइजि़ंग कश्मीर ने यहां छापा है। बयान के मुताबिक आइजेयू ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस सीके प्रसाद को लिखा है कि वे जम्मू और कश्मीर पुलिस की इस गैर-कानूनी कार्रवाई का स्वत: संज्ञान लें और प्रेस की आज़ादी की सुरक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाएं।
इंडिया टुडे समूह की वेबसाइट डेलीओ पर अपने लेख में गौहर गीलानी ने नाम लेकर भारतीय टीवी चैनलों के दुष्प्रचार का खुलासा किया है और कहा है कि कश्मीर में ”इराक की तर्ज पर एम्बेडेड पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया जा रहा है” जहां कई दक्षिणपंथी पत्रकारों को कश्मीर में केवल इसलिए भेजा जा रहा है ताकि वे भारत के प्रोपगेंडा को विश्वसनीयता प्रदान कर सकें। गीलानी ने इस संबंध में कई ट्वीट किए हैं। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष राहुल जलाली ने बरखा दत्त की पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता पर एक लंबी टिप्पणी की है।
सौजन्य : फेसबुक
abhishek
July 19, 2016 at 8:30 am
शर्म आनी चाहिए.. आपताकाल के समय की तुलना कश्मीर के आज के परिस्थिति से नहीं कर सकते.. आफतकाल किसी आतंकी के मरने पर नहीं लगाया गया था.. और आपसे भी ज्यादा बेकार हैं वो जो इस तरह के आर्टिकल को जगह देते हैं.
baikunth nath shukla
July 19, 2016 at 2:02 pm
kasmeer me jo v kadam sarkar uthha rahi hai wah kabile tareef hai……