अजित अंजुम-
मेरे सबसे प्यारे दोस्त और मेरी नज़र में दुनिया के सबसे अच्छे इंसान अरुण पाण्डेय आज हम सबको छोड़कर चले गए .
इतना लिखते हुए भी उंगलियां कांप रही है . सब कुछ सामने देखकर भी यकीन नहीं हो रहा है .
कोरोना के शिकार थे. 20 दिन अस्पताल में रहे लेकिन बचाया नहीं जा सका .वो भी तब जब वो नेगेटिव हो चुके थे . 30 सालों की दोस्ती तोड़कर चले गए . उफ्फ इतने अच्छे इंसान के साथ ऐसा क्यों हुआ ?
अब तक नसीब वाला था कि अरुण पांडेय जैसा दोस्त मेरे साथ था . आज खुद को बदनसीब महसूस कर रहा हूं कि इतना प्यारा दोस्त हाथ छोड़ गया .साथ छोड़ गया. ऐसा इंसान जो सबका प्यारा था . निश्छल , निष्कपट और निर्दोष .
उनसे जुड़ी यादें कोलाज की शक्ल में मेरे जेहन में तैर रही है .मुझे बेचैन कर रही है . अरुण पांडेय अब नहीं हैं ? नहीं बात होगी अब उनसे ?
हर मिनट खुद से ये सवाल पूछता हूं .
ऐसा लग रहा है जैसे कोई अंग जिस्म से अलग हो गया हो . मैं उनसे जितना प्यार करता था , उससे कहीं ज्यादा वो करते थे .
न जाने क्या क्या बातें दिन में दस बार एक दूसरे से करते थे . आज सोच सोचकर सिहर रहा हूं कि बगैर अरुण पांडेय ज़िंदगी का एक हिस्सा तो खाली हो जाएगा .
उस शख्स की खासियतों पर हजारों शब्द लिखा जा सकता है लेकिन हाथ कांपने लगते हैं .
बहुत लोग हैं उन्हें प्यार करने वाले क्योंकि वो थे ही ऐसे .
कोरोना से उबर गए थे . नेगेटिव होकर घर आ गए थे . दिन में चार पांच बार हम एक दूसरे का हाल ले रहे थे . लगा अब तो कोरोना को शिकस्त देने की जंग जीत ली है लेकिन नियति ने तो कुछ और तय कर रखा था .
इन दिनों अरुण जी एक किताब लिख रहे थे .उसके पन्ने मुझे सुनाया करते थे . अब वो किताब भी अधूरी छोड़ गए और ज़िंदगी भी
अमिताभ श्रीवास्तव-
अरुण पांडे की ख़बर ने बुरी तरह तोड़ दिया है। अपना ही एक हिस्सा ख़त्म हो गया है। कभी सोचा ही नहीं था ऐसा दिन देखना पड़ेगा। यह वज्राघात है । बहुत निजी नुक़सान । मन बहुत उद्विग्न है। कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ।
शरद श्रीवास्तव-
ये शख़्स जो फ़ोटो में दिखाई दे रहा है ना, ये लक्ष्मी टॉकिज चौराहे पर, इसी मुद्रा में लगभग 40 साल पहले हमें मिला। साथी विनोद श्रीवास्तव ने अरुण पांडे से हमारा परिचय करवाया।
इसके बाद तो छात्र राजनीति का दौर। आंदोलन, चुनाव और बहस्ं और बहसें और बहसें। दुनियाँ को बदल देने की बहसें। बहसें तो ख़ैर अभी हाल तक जारी रहीं।
अरुण हम से पाँच छ: साल छोटे थे। समझदारी, जीवट और हँसमुख स्वभाव उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग।
अरुण चुनाव कवर करने के लिए कलकत्ता गए थे और वही से महामारी का संक्रमण लेकर दिल्ली वापस आए लगभग 20 दिन अस्पताल के चक्कर और बीमारी से जूझते हुए, कल ख़बर आयी कि उन्हें हार्ट अटैक हो गया, और फिर देर रात……!!!
हमारी लंबी बातचीत अरुण के साथ कलकत्ता से हुई, बंगाल चुनाव का विश्लेषण किया, थोड़ी बहस भी हुई। इसके बाद हमारी बात अस्पताल के बिस्तर से हुई। उसकी आवाज़ सुनकर मैंने मना करने की कोशिश की। अरुण बोले साथी चिंता मत करें, जल्द घर पहुँचकर बात करता हूँ। पर वो बात तो हुई ही नहीं, और न हो पाएगी।
शायद सत्तानवे की बात है। अरुण, श्री प्रभाष जोशी को साथ लेकर “सूचना के अधिकार”आंदोलन में भाग लेने अजमेर आए। अरुण ने ही हमारा परिचय “ सूचना के अधिकार” से करवाया। फिर 2004 महाराष्ट्र चुनाव कवर करने अरुण मुंबई आया। उन दिनों हम मुंबई आ चुके थे। लगभग एक या डेढ़ महीने अरुण बम्बई रहे और उस दौरान मुंबई की सड़कें नापी गईं, अरुण ने नयी पीढ़ी से मिलवाया। इसके बाद तो जब कभी हम दिल्ली जाते या अरुण मुंबई आते तो कम से कम एक शाम हम साथ बिताते। अरुण को ढाबों, ठीहों पर अड्डेबाज़ी करना बहुत पसंद था।
पर अब सब कुछ यादों में ही रह जायेगा। बहुत याद आओगे साथी।
उर्मिलेश-
बहुत कठिन समय है! क्रूरता की सारी हदें तोड़ता हुआ समय! पता नहीं क्यों, कल रात तक भी मेरा भरोसा टूटा नही था. मुझे लग रहा था, अपना अरुण जल्दी ही किसी दिन हॉस्पिटल से हाथ में कोई किताब लिये घर लौट आयेगा. फोन करने पर बोलेगा: ‘हं, भाई साहब, तोड़कर रख दिया कोरोना ने. बड़ी मुश्किल से जान बची.’ फिर मैं उसे हिदायतें देते हुए थोड़ी डांट भी लगाऊंगा और बताऊंगा कि तुम्हारे लिए कितने सारे पुराने इलाहाबादी न जाने किन-किन शहरों में परेशान थे. इनमें कुछ तो मुझे फोन कर तुम्हारा हालचाल ले रहे थे. ज्यादा लोग Tariq Nasir से पूछा करते थे. अभी तो बीती रात ही स्वयं कोरोना के हमले से उबरी Kumudini Pati ने पूछा. अद्यतन जानकारी के लिए मैने पहले तारिक़ को और फिर ब्रिज बिहारी चौबे को फोन किया. चौबे जी और परिवार के अन्य लोग कुछ ही समय पहले अस्पताल से लौटे थे. कोरोना से उबरने के बाद की शारीरिक परेशानियों और जटिलताओं ने अरुण के सामने मुश्किलें पैदा की थीं. ये जटिलताएं कल सुबह ह्रदय तक पहुंच गईं पर डाक्टरों ने कार्डियक अटैक से तब अरुण को बचा लिया. पर जीवन और मौत के बीच कशमकश चलता रहा. आज सुबह सोशल मीडिया से ही अरुण के जाने की बेहद बुरी खबर मिली. पुराने दिनों के हमारे वरिष्ठ साथी Ramji Rai के अलावा किसी से बात करने की हिम्मत नही जुटा सका.
सोशल मीडिया पर सुबह जब देखा: वरिष्ठ हिंदी पत्रकार Arun Pandey नहीं रहे! इस पर भरोसा करने का जी नहीं कर रहा था. मैंने हडबडी में अरुण के कई निकटस्थ पत्रकारों या उनके पूर्व सहकर्मियों के फेसबुक पेज खोले, देखा हर जगह यह खबर दर्ज है. उस बुरी खबर को मानने के लिए अपने मन को भी मनाना पड़ा.
अरुण को मैने किशोर से युवा होते देखा था, उसका जुझारूपन, कभी न हारने वाला और कभी न थकने वाला रूप देखा था. इसलिए मुझे इस बार भी लगता था कि वह अस्पताल से स्वस्थ होकर लौट आयेगा.
ठीक-ठीक याद नहीं, अरुण पांडेय से मेरी मुलाकात किस सन् में हुई! अनुमान लगा सकता हूं, यह सन् 1979-80 का वर्ष रहा होगा. इलाहाबाद में एक नया छात्र संगठन बना था. तब उसका नाम रखा गया-PSA यानी प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स एसोसिएशन. इसकी पहली बैठक नये बने ताराचंद हॉस्टल के एक कमरे में हुई थी. संभवतः वह सन् 1978-79 का सत्र था. वह कमरा Sharad Shrivastva या Arvind Kumar का रहा होगा. मैने कुछ ही समय पहले SFI से इस्तीफा दिया था. इस नये संगठन की स्थापना में हम आठ-दस लोग लगे हुए थे, इसमें शरद, अरविंद और हमारे अलावा रामजी राय, रवि श्रीवास्तव, निशा आनंद, राजेंद्र मंगज, हिमांशु रंजन, हरीश और कुछ और लोग शामिल थे. नये संगठन के दो सह-संयोजक चुने गए थे: रामजी राय और उर्मिलेश. यही PSA कुछ महीने बाद PSO यानी Progressive Students Organization बन गया. इसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जो पहला चुनाव लड़ा, उसमें हमारी एक मात्र उम्मीदवार थीं: सुनीता द्विवेदी, जो उपाध्यक्ष पद के लिए लड़ रही थीं. उस चुनाव को हम लोगों ने जीत लिया. जीत के बाद विश्वविद्यालय रोड पर PSO का जो Victory March निकला, वह अभूतपूर्व और ऐतिहासिक माना गया.
अगर मैं भूल नहीं रहा हूं तो अरुण पांडेय कुछ समय बाद कैम्पस में आये और PSO से जुड़े. बहुत जल्दी ही संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता बनकर उभरे. उस दौर में बहुत सारे प्रतिभाशाली छात्र PSO से जुड़ने लगे थे. इनमें प्रमुख थे हमारे एक समकालीन साथी-अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, जो बाद में PSO के बैनर से चुनाव लड़कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने. आज भी वह बदलाव की राजनीति के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं.
उनके अलावा कमल कृष्ण राय, लाल बहादुर सिंह, राजकुमार, अनिल सिंह, कुमुदनी पति, विनोद श्रीवास्तव, राम शिरोमणि, शिवशंकर मिश्र, तारिक़ और भी कई लोग (बहुत पुरानी बात है, माफ करेगे, याददाश्त से लिखने के चलते कुछ नाम छूट रहे होंगे.) भी जुड़े. इनमें कमल, लालबहादुर और कुमुदनी भी छात्र संघ के पदाधिकारी बने. सभी अपने-अपने ढंग से आज भी बदलाव की वैचारिकी से जुड़े हैं.
संगठन में अरुण की छवि एक बहुत मेहनती, समझदार और जुझारू कार्यकर्ता की थी. लोगों का दिल जीतने और जन-संपर्क में माहिर. जहां तक याद है, अरुण और विनोद संगठन के कोष के प्रभारी बनाये गये थे. कुछ समय बाद मुझे इलाहाबाद छोड़ना पड़ा क्योंकि फेलोशिप के साथ M.Phil./Ph.D. करने दिल्ली के JNU में दाखिला मिल गया. इलाहाबाद में फेलोशिप नही मिली वरना मैं दिल्ली आता भी नहीं. मुझे इलाहाबाद बहुत पसंद था. दिल्ली आने के बाद भी सन् 1981 तक मेरा इलाहाबाद आना-जाना बना रहा. छात्र संघ के चुनाव में अपने प्रत्याशी के प्रचार के लिए जरूर पहुंचता था. हर बार अरुण पांडेय को संगठन का कामकाज संभालने वालों की अग्रिम कतार में देखता. अपनी पढ़ाई और लड़ाई(छात्रों की जेनुइन मांगो के लिए संघर्ष ), दोनों मोर्चो पर वह अव्वल थे.
पत्रकारिता में आने के बाद भी अरुण ने अपना झंडा बुलंद रखा. सहारा जैसे अखबार में ‘हस्तक्षेप’ जैसा परिशिष्ट/पत्रिका निकालना कोई आसान काम नही था. पर अरुण पांडेय ने वह कर दिखाया. ‘हस्तक्षेप’ को हिंदी पत्रकारिता में उनके बड़े अवदान के रूप में याद किया जायेगा. उन्होंने कई टीवी न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया.
सूचना के अधिकार पर अरुण ने बहुत अच्छा काम किया. उनकी किताब भी आई. वह किताब मुझे भेंट की. जल्दी ही पढ़ गया. कुछ नोट्स भी लिये थे कि कभी लिखेंगे इस पर. अफसोस, उस दौर में मैं उस पर कुछ लिख नही पाया. उन दिनों मेरा लिखा(रिपोर्ट के अलावा) मेरे अखबार में बहुत कम छपता था और अपने नाम से बाहर तो लिख नही सकता था. अभी कुछ ही महीने पहले उस किताब को खोजता रहा पर मेरे घर की बेहद अस्त-पस्त और अव्यवस्थित लाइब्रेरी में मैं उसे खोज नहीं सका. जल्दी ही खोजूंगा और सहेज कर रखूगा.
अपने प्यारे भाई अरुण पांडेय को सादर श्रद्धांजलि और परिवार के प्रति शोक-संवेदना!
प्रियदर्शन-
सोच रहा था, अब किसी की मौत पर नहीं लिखूंगा। लेकिन तब तक अरुण पांडेय की मर्मांतक सूचना आ गई।
मुझे बीस बरस पुराना एक दिन याद आया। 5 अगस्त 2001 की शाम हम अचानक अपने घर में आ टपके। अचानक इसलिए कि अपने मकान में हमें एकाध दिन में आना तो था लेकिन प्रभाष जोशी जी ने हमें इसी दिन ‘गृह प्रवेश’ करने का आदेश दिया क्योंकि वह उनके मुताबिक शुभ दिन था। मैंने उन्हें बताया कि दिन देख कर घर में जाने का फ़ैसला नहीं किया था और न ही गृह प्रवेश की पूजा का इरादा है। मगर उन्होंने कहा कि अपनी पत्नी से बात कराओ। उन्होंने उसे घर में कलश स्थापित करने का आदेश दिया। यह भी कहा कि कलश न हो तो मेरे घर से एक लोटा ले जाओ।
तो उनके आदेश का मान रखने के लिए हम लोग अचानक वसुंधरा की इस जनसत्ता सोसाइटी में पहुंच गए जहां तब तक कुल जमा ग्यारह परिवार रहते थे। उन दिनों वसुंधरा बिल्कुल सन्नाटे में डूबी जगह थी जहां अंधेरा होने पर कहीं निकल पाना लगभग असंभव था।
तो उस शाम घर में प्रवेश की औपचारिकता निभा लेने के बाद हमें नोएडा में अपने किराये के घर लौटना था। तब अरुण पांडेय और अरुण त्रिपाठी ने अपने स्कूटर निकाले और हम लोगों को मंडी तक छोड़ा जहां से आगे के लिए बस मिल जाती।
हालांकि दोनों से परिचय पुराना था लेकिन यह नए रिश्ते की शुरुआत थी। जनसत्ता सोसाइटी के उजाड़ में सबने एक-दूसरे का हाथ बहुत कस कर पकड़ रखा था। कोई छींकता भी तो बारह परिवार उसके यहां इकट्ठा हो जाते। बच्चों की जन्मदिन की पार्टियां भी एक बड़ा अवसर होतीं। तब जनसत्ता के इस पूरे ई ब्लॉक में हम दो ही परिवार थे- एक अरुण पांडेय-बृजबिहारी चौबे का और दूसरा हमारा। तो हमें एक-दूसरे की ज़रूरत भी ज़्यादा पड़ती और हमारा एक-दूसरे से संवाद भी ज़्यादा होता। अरुण जी के यहां तब टेलीफोन था जो गाहे-बगाहे हमारे भी काम आ जाया करता था।
अरुण जी में एक सहज गर्मजोशी थी और मित्र बनाने की कला। वे बहुत मिलनसार और पेशेवर पत्रकार थे। राष्ट्रीय सहारा की हस्तक्षेप टीम के प्रमुख सदस्य थे। उनसे किसी भी मुद्दे पर बात की जा सकती थी, असहमत हुआ जा सकता था और साथ बैठ कर चाय पी जा सकती थी। उनको उग्र या असंतुलित होते कभी नहीं देखा। लेकिन अपनी बात वे दृढ़ता से रखते थे। उन्होंने बताया था कि एक बार भारत की जनसंख्या को लेकर सहाराश्री की किसी विशेष टिप्पणी से उन्होंने असहमति जताई जिससे वे नाराज़ भी हो गए थे। जो लोग सहारा में काम कर चुके हैं, वे जानते हैं कि यह कितने साहस का काम था।
कम लोगों को अब याद होगा कि उन्होंने अभय कुमार दुबे के संपादन में निकली पुस्तक शृंखला ‘आज के नेता’ के तहत ज्योति बसु पर एक किताब लिखी थी। उन दिनों बंगाल में वाम मोर्चे की अजेयता का उन्होंने बहुत गहन विश्लेषण किया था। उनकी एक किताब मीडिया पर भी थी जो उन्होंने किसी बड़ी फेलोशिप के तहत लिखी थी।
जनसत्ता सोसाइटी पर लौटें। जैसे-जैसे सोसाइटी साधन-संपन्न होती गई, जैसे-जैसे हम लोग नई नौकरियों में गए, वैसे-वैसे हमारी आपसी पकड़ ढीली पड़ती चली गई। अब एक-दूसरे की ज़रूरत कम पड़ने लगी, व्यस्तता बढ़ने लगी, संवाद घटने लगा। अरुण जी से भी बाद के वर्षों में कम बात होती थी- बस घर से निकलते हुए मिलने पर अपना या देश-दुनिया का हाल-चाल लेने तक। हमारे बच्चे इस बीच बड़े हो चुके थे। वे अपना जन्मदिन अपने दोस्तों के बीच मनाने लगे थे। बेशक हम एक-दूसरे का हाल-चाल लेते रहते। अरुण जी की बेटी गौरी बहुत शिष्ट और मेधावी रही और पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी अच्छी नौकरी में हैं। बचपन में बहुत चुलबुला रहने वाला तन्मय अब एक गंभीर छात्र हैं।
इन दिनों सुबह की सैर पर अरुण जी और उनकी पत्नी पुतुल से भेंट हुआ करती थी। मैं कभी-कभार मज़ाक में कहता, हम सब बूढ़े हो रहे हैं, अरुण जी युवा बने हुए हैं। आख़िरी बातचीत अरुण जी से तब हुई जब वे अस्पताल में थे। मैंने फोन पर पूछा, अस्पताल क्यों चले गए, घर पर रहते। उन्होंने बताया, ऑक्सीजन स्तर काफ़ी नीचे जा चुका था। अस्पताल से लौट कर जब उन्होंने जनसत्ता सोसाइटी के वाट्सैप समूह पर अपने स्वस्थ होने की सूचना दी तो मैंने भी सबके साथ उन्हें शुभकामनाएं दीं।
लेकिन शुभकामनाएं इन दिनों काम नहीं आ रहीं। मौत नाम की चील जैसे शिकार खोजने निकली है। कभी भी किसी का वक़्त आ सकता है। अलविदा अरुण जी, देर-सवेर हम सब आपके पीछे आएंगे। आपके मित्र आपके न होने को कभी भुला नहीं पाएंगे।
MANOJ
May 12, 2021 at 5:35 pm
VERY VERY SHOCKING, I AM UNABLE TO BELIEVE, I AM TERRIBLY SAD.
S.K. SINGH
October 8, 2021 at 12:40 pm
I missed my endeared “Pandey Baba” . He was my room mate in Allahabad University. We met at GIC Ghazipur. Pre corona nightmare we were very much in touch. Today I was planning to meet him and then this news. All of sudden a normal happy day turned into the saddest day of my life. Love you “Pandey Baba”. S.K Singh