नीतेश त्रिपाठी-
ऑक्सीजन के बिना लोग मरे, कुत्ते लाश नोच रहे थे, मैंने भी 2 लोगों को खोया, तीसरे को बचा लिया, आपबीती…
वो 3 मई की बात थी. मैं कोविड के 14 दिन आइसोलेशन में गुजार चुका था. दादा जी बोले तबियत थोड़ी सही नहीं लग रही. पूछने पर बोले- ‘थोड़ा अनइजी’ लग रहा है. दवाई वगेरा कुछ भी नहीं लिए, सब ठीक था. खूब बढ़िया खाते पीते और अख़बार पढ़ते थे. 5 मई को बोले कि थोड़ा फीवर की तरह लगा रहा. चेक किया तो फीवर बहुत कम था. डोलो 650 दे दिया. आइसोलेशन से निकलने के बाद अब दादा जी की सेवा में लग गया था.
तब मुझे खुद बहुत ज्यादा कमजोरी थी और चलने फिरने का मन नहीं करता था. लेकिन, दादा जी के लिए खूब सारी ताकत न जाने कहां से आ जाती थी. 6 मई को दादा जी को खांसी हुई. डॉक्टर से बात कर सिरप के अलावा इन्हेलर दिया. थोड़ा आराम लगा. 8 मई को गोरखपुर में डॉक्टर को दिखाया गया. डॉक्टर से कहा गया एडमिट कर लो, उसने दवाइयां दीं और बोली कि रिकवर हो जाएगा. एतियात के तौर पर 9 मई को घर पर एक छोटा ऑक्सीजन सिलेंडर का जुगाड़ कर लिया. तब ऑक्सीजन मिलना भगवान को पाने जैसा था. इधर, 9 मई को चाचा की तबियत थोड़ी खराब हुई और सिलेंडर में रखे कुछ ऑक्सीजन का इस्तेमाल उनके लिए हो गया.
10 मई की सुबह दादा जी को बहुत ज्यादा खांसी आने लगी, इन्हेलर दिया आराम नहीं हुआ. ऑक्सीजन कम हो गया था. घर में रखा सिलेंडर लगाया लेकिन, उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिल पा रहा था. ऐसा लगा कि सिलेंडर से रात में लीक हो गया हो. ये बदकिस्मती थी. भाई तुरंत दूसरा ऑक्सीजन लेने गया, उसके सिलेंडर लेकर पहुंचने से 10 मिनट पहले दादा जी गुजर गए. वो बहुत स्वस्थ और हट्टे-कठे थे. अभी वो कम से कम दस साल और जीते. 10 मई की वो तारीख इतिहास के कैलेंडर में अथाह पीड़ा लिए हुई दर्ज हो गई.
इधर एक दिन बाद 11 मई को चाचा की तबियत फिर ज्यादा खराब हो गई और ऑक्सीजन कम हो गया. उनको ऑक्सीजन सपोर्ट पर लेकर खुद की गाड़ी से रात 11 बजे के करीब बिहार के गोपालगंज के हथुआ निकल गया. क्योंकि उस समय पहली प्राथमिकता ऑक्सीजन ही थी. अचानक किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में बेड खोजने तक बाहर इंतजार करना जीवन को दांव पर लगाने जैसा था. हथुआ के DSP से बात हुई और रात बारह बजे सरकारी अस्पताल में एक बेड का जुगाड़ हुआ. वहां कोई ऑक्सीजन सिलेंडर लगाने वाला भी नहीं था. खुद से सिलेंडर उठाकर ले जाया गया और ऑक्सीजन सपोर्ट दिया गया.
उस अस्पताल की एक खास बात यह थी कि वहां ऑक्सीजन भरपूर था पर डॉक्टर नहीं थे और दवाइयां नहीं थी. ऑक्सीजन सपोर्ट पर मरीज खूब थे. उस आधी रात और दिन के 1 बजे तक वहां गुजारने के बाद गोरखपुर के एक अस्पताल में बेड की व्यवस्था होने पर चाचा को गोरखपुर ले जाकर एडमिट करा दिया गया. एडमिट के वक्त डॉक्टर ने जब कागजी कार्रवाई के वक्त ‘मरीज की जान जाने पर हॉस्पिटल जिम्मेदार नहीं होगा’ के पन्ने पर साइन करने को कहा तो मेरे हाथ कांप रहे थे. लगा कि अभी कल ही तो दादा जी को खोया है, और ये इस फॉर्म पर क्या भरने को कहा जा रहा है.
इतनी कम उम्र में आज तक कभी हॉस्पिटल का मुंह न मैंने देखा था न घर किसी अन्य सदस्य ने. मैं और छोटा भाई दोनों साथ थे. मेरे लिए ये सब कुछ बहुत डरावना था और कई बार मैं घबरा जाता था. क्योंकि हथुआ के अस्पताल में 12 घंटे में हुई कुछ मौत देखकर बहुत ज्यादा डर गया था. भोर में डेड बॉडी जब बाहर आती तो उसे नोचने के लिए कुत्ते दौड़ पड़ते थे. मैं कैसे बताऊँ कि मैंने क्या-क्या झेला है और क्या क्या देखा देखा है. ये तो बस मैं ही समझ सकता हूं.
बहरहाल, 12 मई से चाचा का इलाज गोरखपुर में शुरू हुआ. अटेंडेंट के तौर पर मैं बाहर रहता था और फोन पर चाचा से बात होती थी. कोरोना से निकलने के बाद मैं बहुत ज्यादा कमजोर हो चुका था और चलने बोलने तक की शक्ति नहीं बची थी, लेकिन हिम्मत से खड़ा रहा. डटा रहा. 13 मई को दिन में डॉक्टर बाहर आकर सभी मरीजों का हाल बताने लगे. बाकी परिजनों की तरह मैं भी लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगा. अपने सदस्य का हाल जानने के लिए मुझसे आगे जितने भी लोग खड़े थे, सबके मरीज की हालत खराब बताई जा रही थी. मैं भी बहुत चिंतित था.
मैंने डॉक्टर से पूछा-वे बोले उन्हें ऑक्सीजन लगा है और सांस ठीक से नहीं ले पा रहे. मैं डर गया और तुरंत चाचा को फोन लगाया. उन्होंने कहा कि पिछले 24 घंटे होने को हैं और मुझसे ऑक्सीजन नहीं लगा है. मुझे यकीं नहीं हुआ, मुझे लगा डॉक्टर सही बोल रहा होगा चाचा मुझसे छुपा रहे होंगे. फिर मैंने वीडियो कॉल करने को बोला, उन्हें ऑक्सीजन नहीं लगा था, फिर यकीन नहीं हुआ तो वीडियो कॉल पर नर्स से बात हुई, उन्होंने बताया नहीं लगा है. बस दवाई चल रही है. 4 दिन गोरखपुर रहा. इस बीच उस अस्पताल से मैंने एक व्यक्ति को छोड़कर किसी को भी जिंदा लौटते नहीं देखा. बस डेड बॉडी बाहर आती थी.
मेरी तरह एक नौजवान लड़के की डेड बॉडी बाहर आई तो देखकर कलेजा फट गया. एक आंटी थीं उनके पति ICU में थे वे ठीक होने की दुआ में हॉस्पिटल के बाहर ही वो रामचरित मानस या गीता शायद कुछ था पढ़ने लगीं. देखकर बहुत रुलाई आती थी, सोचता था भगवान सबको ठीक कर दो. इस आंटी की बात भी सुन ले. लेकिन अगले दिन उनके पति नहीं रहे और डेड बॉडी बाहर आई तो स्ट्रेचर से एम्बुलेंस तक ले जाने में 10 मीटर की दूरी में 30 मिनट से ज्यादा का वक्त लगा. ऐसी ही कई दृश्य मैंने देखे. उनकी बेटी जिसकी शादी होनी थी मई में वो और मां दोनों चिल्ला रहे थे. क्या क्या बताऊँ आपको. कितना दर्दनाक मंजर देखा है.
बहरहाल, डॉक्टर ने चाचा को चार दिन बाद घर ले जाने को बोला और दवाई दे दी. ऑक्सीजन 97-98 मेंटेन हो रहा था. 15 मई की रात हम उन्हें घर लेकर आ गए आए. 16 मई की सुबह दादा जी के छोटे भाई मेरे छोटे दादा जी इस दुनिया से चले गए. अब बर्दाश्त की सीमा खत्म हो गई थी और लगने लगा था कि अब कुछ बचा नहीं है. 6 दिन में दो लोग चले गए. 1 को बचा लिया गया. आंखो से देखे ये हालात और अपनों का जाना भीतर से कितना तोड़ देता है ये वो सरकार नहीं समझेगी जो बंगाल में रैलियां कर रही थी और इधर लोगों के लिए श्मसान में जगह भी नसीब नहीं होती थी.
सरकार कहती है कोई मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई. सरकार ने बस टीवी में दिल दहलाने में वाले दृश्य देखे हैं. मैंने अपनों को खोया है और अपस्ताल के भीतर कोविड वार्ड में और बाहर ऐसे दिल दहला देने वाली तस्वीर देखी है. दरअसल, जिसने झेला है, भोगा है वही समझ सकता है. वो 4 मई से लेकर और अब तक के दिन कैसे कट रहे हैं, आज भी यादकर सिहर जाता हूं.
दादी, दादा जी को रोज खोजती हैं, उम्र ज्यादा होने से रिकॉल नहीं कर पाती. हमलोगों ने उन्हें बताया भी नहीं. दादी पूछती हैं कि बाबा कहां हैं तुम्हारे? हम सब कहते हैं बाजार गए हैं पान खाने, अभी थोड़ी देर में आ जाएंगे. फिर खुश हो जाती हैं. रोज यही सवाल और रोज इसी तरह के दिलासा देने वाले जवाब. दरअसल उन्हें नहीं मालूम कि दादा जी अब कभी नहीं आएंगे. दादा जी अरुणाचल से प्रिंसिपल से रिटायर हुए थे और घर रहते थे. छोटे दादा जी किसानी देखते थे.
एक आम इंसान का दर्द ये सरकार क्या समझेगी…!!!