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आई-नेक्स्ट अखबार की मारी प्रतिमा भार्गव के लिए न्याय पाने का कोई न्यायसम्मत मार्ग नहीं सुझा पाए जस्टिस काटजू

: सॉरी जस्टिस! आपको सुनकर निराश हुआ : नई दिल्ली। दैनिक जागरण समूह के आई-नेक्स्ट अखबार की प्रताड़ना झेल रहीं आगरा की समाजसेविका श्रीमती प्रतिमा भार्गव के समर्थन में बुधवार को भड़ास4मीडिया की ओर से आयोजित कार्यक्रम में जस्टिस मार्कंटेय काटजू को सामने से सुनने का मौका लगा। इससे पहले उनकी शोहरत से दूर से वाकिफ था। उनको घंटों सुनना उनकी सोच और समझ की बनावट को समझने के लिए फायदेमंद रहा। इसके लिए भड़ास4मीडिया के ओजस्वी संचालक भाई यशवंत को आभार। मुझे यह समझने में मदद मिली कि किसी समाज और सभ्यता के स्थापित प्रतिमानों को छेड़ते जाओ, तो विवाद पैदा होगा। फिर इस तरह विवादास्पद रहकर दबंगता से जी लेना जस्टिस काटजू के अलावा किसी और के बस की बात नहीं है।

: सॉरी जस्टिस! आपको सुनकर निराश हुआ : नई दिल्ली। दैनिक जागरण समूह के आई-नेक्स्ट अखबार की प्रताड़ना झेल रहीं आगरा की समाजसेविका श्रीमती प्रतिमा भार्गव के समर्थन में बुधवार को भड़ास4मीडिया की ओर से आयोजित कार्यक्रम में जस्टिस मार्कंटेय काटजू को सामने से सुनने का मौका लगा। इससे पहले उनकी शोहरत से दूर से वाकिफ था। उनको घंटों सुनना उनकी सोच और समझ की बनावट को समझने के लिए फायदेमंद रहा। इसके लिए भड़ास4मीडिया के ओजस्वी संचालक भाई यशवंत को आभार। मुझे यह समझने में मदद मिली कि किसी समाज और सभ्यता के स्थापित प्रतिमानों को छेड़ते जाओ, तो विवाद पैदा होगा। फिर इस तरह विवादास्पद रहकर दबंगता से जी लेना जस्टिस काटजू के अलावा किसी और के बस की बात नहीं है।

जस्टिस काटजू जिस सफलता से पत्रकारों की सोच को अवैज्ञानिक होने का हवाला देकर खुद को अभिव्यक्त करते रहे, विवाद खड़े करने वाले मसलों को छेड़कर हिल्कोरते रहे इसके लिए वाकई वह तारीफ के काबिल हैं। बुजुर्ग जस्टिस काटजू का हमारे बीच बने रहना मशहूर लेखिका नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी जैसे बुद्धिजीवियों को करारा जबाव है जो निराशा से भरकर सरकारी सम्मान लौटा देने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं।

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जस्टिस काटजू इत्तमिनान से डेढ़ घंटे तक अनवरत बोलते रहे। न सिर्फ बोलते रहे बल्कि सभ्यता और संस्कृति को लेकर हमारे स्थापित प्रतिमानों को आसान तर्कों से ध्वस्त करने की चेष्टा करते रहे। बीफ और पोर्क खाने की बात फिर सहजता से बोल गए। अपने नजरिए को ऐतिहासिक होने का हवाला देते हुए महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और गुरूदेव रवीन्द्र टैगोर तक को नहीं छोड़ा और भारतीय परंपराओं का जमकर खिल्ली उड़ाते रहे। महात्मा और गुरूदेव को ब्रिटिश सरकार का तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस को जापान के तात्कालीन शासकों का एजेंट बता गए। प्रतिक्रिया देने के बजाय बस हम मुस्कुराते हुए, उनको सुनते रहे। चकित होते रहे। हम स्थापित प्रतिमानों के बिना अपनी पहचान कैसे बचाए रख पाएंगे?  इस पर उनका भड़काऊ जबाव था- क्रांति आने वाली है। बस इंतजार कीजिए। हम उनके बताए जिस कथित क्रांति के मुहाने पर खड़े हैं। वह कब आएगा ? इसपर उनका टका सा जबाव “पता नहीं” हमें परेशान करता रहा। 

प्रति जवाब में उन्होंने रूस की क्रांति के प्रणेता लेनिन की मिसाल दी कि 1916 तक रूस में  क्रांति के वक्त को लेकर लेनिन भी आशंकित थे। लेनिन कहते रहे थे कि क्रांति आने में दस-पंद्रह लग जाएगा मगर साल भर बाद ही 1917 में अचानक से क्रांति आ गई। रूस के लोगों ने जार की साम्यवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका। उनके मुताबिक जिस तरह औद्योगिक क्रांति के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन में करोड़ो लोगों ने शहादत दी है, वैसी ही क्रांति भारत में आने वाली है। उनके कथित वैज्ञानिक तर्कों के सहारे बताया कि 2020 तक भारत की सड़कों पर डिग्री लिए दस करोड़ बेरोजगार नौजवानों की फौज खड़ी होगी। उनके आसरे क्रांति का आना तय है। जिसमें हम जैसे करोड़ों मारे जाएंगे और समाधान निकल आएगा।

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उन्होंने बताया कि क्रांति सिर्फ गोरिल्ला युद्ध से आती है। भारत को जातीयता और धार्मिक पहचान के आडंबर से मुक्ति मिलेगी तब ही बात बनेगी। पश्चिम की कथित तरक्की से बेहद प्रभावित जस्टिस काटजू को भारतीयता में कुछ भी उत्साहित करने वाली बात नजर नहीं आती। हां, उन्होंने ये जरूर कहा कि उनकी पत्नी पारंपरिक परिवार से आती हैं, सो डर से बीफ कम बार खाई है, पोर्क अक्सर खा लिया करते हैं।

उनको सुनकर समझने की कोशिश करते वक्त एक सवाल निरूत्तरित रह गया कि चालीस  साल तक न्यायपालिका की सेवा कर नाम, शोहरत के साथ सबकुछ हासिल करने वाला व्यक्ति सत्तर साल की उम्र में करोड़ों भारतीयों के क्रांति में मारे जाने की जरूरत कैसे जाहिर कर सकता है। सॉरी जस्टिस, मैं आपके इस तर्क से सहमत नहीं हूं। मैं हतप्रभ हूं, कि आप सहजता से न्याय के लिए अदालतों से उम्मीद पालने की जरूरत नहीं होने की बात कैसे कह सकते हैं।

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हां, पत्रकार होने के नाते आपकी ये बात परेशान जरूर करती है कि संसद से अब समस्या का हल नहीं निकले वाला है मगर इस कुर्तक से भी सहमत नहीं हूं कि क्रांति के वक्त नेताओं को शूट कर देना चाहिए। किसी को शूट करने की पात्रता सिर्फ इतना कहने भर से हासिल हो जानी चाहिए कि वह राजनीति से जुड़ा रहा है क्योंकि राजनीतिज्ञ चालाकी के साथ लोगों को धर्म और जात के नाम पर बांट रहे हैं। आपके ही बताए उस दलील से सहमत हूं, हालांकि राजनीति में कुछ अच्छे लोग भी हैं। इन अच्छों की सफलता की कामना करता हूं।

जस्टिस काटजू ने कहा कि संसद के बीते मानसून सत्र का जो हाल हुआ वहीं हाल शीतकालीन सत्र का होगा। क्योंकि बीजेपी संसद के सत्रों का ऐसा ही हाल कर सत्ता में पहुंची है, तो वह विपक्ष को ऐसा कर सत्ता में वापसी कर लेने की उम्मीद पालने से कैसे रोक सकती है। हालांकि खतरा है कि आपके इस वाजिब तर्क को मान लूं, तो भरी जवानी में सुधार की कोशिश करना बंद कर दूंगा और निराशा से घिरकर मर जाऊंगा।

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पश्चिम की औद्योगिक क्रांति की तरह भारत में भी क्रांति की मुखर पैरोकारी करते हुए जस्टिस काटजू ने इतिहास में झांकने के लिए “कलेक्टर वर्क ऑफ गांधी” के सरकारी दस्तावेजों की मिसाल देते हुए गांधी की बेमिसाल त्याग से जुड़े तथ्यों को पूरी तरह गोल कर गए। जिसकी वजह से दुनिया उनको पूजती है। वह तत्कालीन वैज्ञानिक आइजक आईंस्टीन तक के लिए पूजनीय थे। जस्टिस अपने बनाए तर्क के साथ बोल गए कि महात्मा घोर हिंदू थे। रामराज की बात करने की वजह से मुसलमानों के नेता हो ही नही सकते थे। रघुपति राघव राजाराम का पाठ करवाया करते थे। ब्रह्मचर्य की पैरवी करते थे। उनको यह समझ में नहीं आई कि राजनीति में अध्यात्म की बात किस हैसियत से किया करते थे। और ऐसा कर गांधी मुसलमानों को क्या संदेश देना चाहते थे।

बकौल जस्टिस काटजू गांधी जी के पदार्पण से पहले तक कांग्रेस बुद्धिजीवियों की पार्टी थी लेकिन महात्मा गांधी ने उसमें हिंदूओं को प्रधानता दिलाने का काम करके ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया। हिंदू-मुस्लिम के अलग पहचान की बात कर अंग्रेजों के विभाजनकारी नीति को बढ़ावा दिया। हाल में ब्रिटेन में गांधी की विशालकाय प्रतिमा के अनावरण सच का रहस्योदघाटन करता है। ब्रिटिश सरकार को भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्लाह खान की गरम रूख से नुकसान का खतरा था इसलिए उन्होने गांधी की मदद की, उनको खड़ा किया।

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जस्टिस काटजू के तर्कों की बौछार में एक कुतर्क यह भी निकलकर सामने आया कि पाकिस्तान के  जनक मोहम्मद अली जिन्ना आरंभ में राष्ट्रवादी थे। धर्मांधता को राजनीति से जोड़ने में गांधी की सफलता ने  जिन्ना को नई राह दिखाई कि राजनीति में धर्म को लाए बिना बात नहीं बनेगी। फिर पीछे छूट रहे जिन्ना ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से दी गई द्विराष्ट्र के सिद्धांत के घोड़े पर सवार होना कबूल कर लिया। जस्टिस ने इसी तरह गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीतांजलि को नोबल पुरस्कार देने को ब्रिटिश सरकार की राजनीति चाल करार दिया। टैगोर को बढावा देकर ब्रिटिश शासको ने बंगाल में उग्र साहित्य की रचना कर रहे शरतचंद्र चटोपाध्याय जैसों को महत्वहीन करने का काम किया। इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर निशाना साधते हुए इतिहास के प्रसंगों के सहारे जस्टिस काटजू ने कहा कि 1945 के द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के साथ ही आजाद हिंद फौज विलुप्त हो गई।

जस्टिस काटजू के पांडित्य भरी अभिव्यक्ति से हुई निराशा को बाद के प्रश्नोतर सत्र ने और बढा दिया जिसमें वह मीडिया की मारी पीड़िता श्रीमती प्रतिमा भार्गव के लिए न्याय पाने का कोई न्यायसम्मत मार्ग नहीं सुझा पाए। उन्होंने उस प्रेस कांउसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई) से न्याय पाने की पीड़िता की कोशिश को बेकार करार दिया, जिसके कभी वह खुद अध्यक्ष हुआ करते थे। उन्होंने बताया कि पीसीआई एक दंतहीन संस्था है। पीसीआई  अन्याय करने वाले अखबार को बस इतना आदेश दे सकती है कि खेद के साथ खबर का खंडन प्रकाशित करे। जस्टिस किसी मीडिया संस्थान के खिलाफ जनहित याचिका दायर करने की कोशिश के नतीजे को लेकर भी पत्रकारों में कोई उत्साह नहीं भर पाए। उनकी बातों से मिली निराशा से यह बात समझ आई कि चाहे तो पढा लिखा इंसान ज्यादा पागलपंथी कर सकता है।

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लेखक आलोक कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई नेशनल न्यूज चैनलों और बड़े अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. समाज सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.


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