Chandra Bhushan-
आर्थिक संकटों के बाद अर्थव्यवस्थाओं की वी-शेप्ड, यू-शेप्ड, और एल-शेप्ड रिकवरी की बात हमने सुनी है। इनमें पहली का अर्थ है, जिस रफ्तार से एक अर्थव्यवस्था नीचे गई थी, उसी तरह उसका ऊपर उठकर अपनी सहज गति में लौट आना। दूसरी से तात्पर्य तली वाली स्थिति में कुछ समय बिता लेने के बाद ऊपर उठने से लिया जाता है, जबकि तीसरी का अर्थ है नीचे जाने के बाद उसी स्तर पर पड़े रह जाना। कोविड महामारी के दौरान पहली बार हमें के-शेप्ड रिकवरी की चर्चा सुनने को मिली। यानी पूरी अर्थव्यवस्था के धड़ाम से नीचे जाने के बाद इसके एक हिस्से का तेजी से ऊपर आना, जबकि दूसरे हिस्से का नीचे ही नीचे चलते जाना।
ऐसा हम एक साल से, बल्कि जरा और पहले से अपने इर्दगिर्द होते देख रहे हैं। कुछ लोगों की तेज तरक्की, बाकियों का दृश्य से गायब हो जाना। दुनिया में बढ़ रही आर्थिक विषमता को लेकर कई संगठन हर साल आंकड़े जारी करते हैं, जिससे एक-दो दिन की सनसनी भर पैदा होती है। आम जनजीवन के लिए इसके बहुत मायने नहीं होते, क्योंकि अपनी रोजी-रोटी में लगे लोगों को अरबपतियों से अपनी तुलना करना पहले क्षण से ही एक फालतू काम लगता है। उदाहरण के लिए, यह बात शायद ही किसी के दिमाग में दर्ज हो कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में दिए गए अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री ने जिस कठिन कोविड दौर में 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त में भोजन उपलब्ध कराने की बात कही है, उसी डेढ़ साल की अवधि में भारतीय अरबपतियों की संपदा 23 लाख करोड़ से बढ़कर 53 लाख करोड़ रुपये हो चुकी है।
पिछले दो दशकों में हम अपने अरबपतियों की तादाद बढ़ने पर गर्व ही करते आ रहे हैं। जाहिर है, इन विचित्र संख्याओं से हमारे चमचमाते गर्व पर शर्म का कोई छींटा नहीं पड़ने जा रहा। फिर भी, अपने आसपास हो रहे कुछ बदलावों की अनदेखी हमें नहीं करनी चाहिए। कोविड दौर में देश की अरबपति जमात का हिस्सा बने 40 नामों में एक का संबंध शिक्षा के क्षेत्र से है। यह कोई स्कूल चेन नहीं, एक ट्यूशन-कोचिंग एग्रीगेटर है। एक बैनर जिसके तहत मोटी फीस के एवज में आप अपने बच्चे को किंडरगार्टेन से लेकर मेडिकल-इंजीनियरिंग एंट्रेंस तक का ऑनलाइन-ऑफलाइन ट्यूशन-कोचिंग दिला सकते हैं।
जाति व्यवस्था के शिकार इस देश में और भी भयानक किस्म की एक नई जाति व्यवस्था कायम करने वाले इस दुष्चक्र के बारे में काफी कुछ कहा जाता रहा है। रसायनशास्त्र के नोबेल लॉरिएट वेंकी रामकृष्णन ने पुरस्कार जीतने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में भारत की कोचिंग इंडस्ट्री के चलते अपना दाखिला आईआईटी में न होने और मजबूरी में अकेडमिक्स की तरफ आ जाने की बात कही थी। अभी तो यह धंधा इतना बड़ा हो चुका है कि देश के 80 फीसदी आम दायरे से प्रतिभाओं का चयन एक दिवास्वप्न बनकर रह गया है।
दुर्भाग्य यह कि लोगों को आगे बढ़ने के न्यूनतम अवसरों से वंचित करने वाली इस प्रक्रिया का विस्तार कोविड के दिनों में उच्च शिक्षा से साक्षरता तक हो गया है। ऐनुअल सर्वे ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) ने 2021 में पिछड़े इलाकों के स्कूली बच्चों से सवाल-जवाब करके दो नतीजे निकाले। एक, कुल 68 प्रतिशत बच्चों के परिवार में किसी न किसी व्यक्ति के पास स्मार्टफोन मौजूद था। और दो, इसके जरिये ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा शहरों में 24 फीसदी और गांवों में सिर्फ आठ फीसदी बच्चों को ही प्राप्त हो पा रही थी।
विश्व बैंक बता रहा है कि भारी तादाद में बच्चों की, खासकर बच्चियों की पढ़ाई कोविड में ही खत्म हो चुकी है। यह भी कि जो बच्चे स्कूल लौटने वाले हैं, उन्हें भी कोविड से पहले वाली स्थिति में ही मानकर पढ़ाना उचित रहेगा। जैसे, मार्च 2020 में अगर कोई बच्चा दूसरी पास करके तीसरी क्लास में जाने वाला था तो उसे मार्च 2022 में पांचवीं के बजाय तीसरी की पढ़ाई कराना बेहतर होगा, क्योंकि बुनियादी समझ हासिल किए बिना ऊंची क्लास की पढ़ाई उससे हो नहीं पाएगी। के-शेप्ड रिकवरी का यह भी एक अनोखा उदाहरण है।
जिस माहौल से निकली ऑनलाइन पढ़ाई ने भारत को पहला ‘एजूकेशन बिलिनेयर’ दिया है, वही बुनियादी शिक्षा से वंचित एक समूची पीढ़ी की सौगात भी देश को देने जा रही है। अगर हम इसे आकस्मिक कोविड आपदा का झटका मानकर पुराने रास्ते पर ही बढ़ते जाते हैं तो यह खुद को धोखे में रखने जैसा होगा। भारत की शिक्षा व्यवस्था बीमार है और इसकी बीमारी वक्त बीतने के साथ बढ़ रही है। इसका ढांचा अब पूरी तरह उन परिवारों तक ही सिमट चुका है, जिनके मुखिया के खाते में 30 साल की उमर होने तक कम से कम 50 हजार रुपये हर महीने पहुंचने लगते हैं। भारत में ऐसे परिवार 15-20 फीसदी या शायद उससे भी कम हैं। बाकी 80 फीसदी आबादी फर्जी ‘इंग्लिश मीडियम’ स्कूलों और ’शिक्षामित्रों’ के भरोसे है।
शिक्षा से भी बुरा हाल हमारे यहां चिकित्सा क्षेत्र का है, जिससे जुड़े अरबपतियों की पहचान कोरोना काल में ही 102 से 142 हो गई उनकी जादुई संख्या के ब्यौरे आने के बाद हो पाएगी। फाइव स्टार सुविधाओं वाली प्राइवेट हॉस्पिटल चेन्स का हल्ला वर्षों से जारी है लेकिन महामारी के मामले आने शुरू हुए तो इन बीमा-बेस्ड अस्पतालों ने अपने दरवाजे धड़ाम से बंद कर लिए। बाद में दबाव पड़ने पर इनमें से कुछ दरवाजे खुले भी तो अमीर परिवारों ने भी इनके बिल देखकर बीच बीमारी में ही अपने मरीज कहीं और भर्ती कराए। सरकार को एक ऐसा सर्वे जरूर करवाना चाहिए कि कोरोना के इलाज के दौरान कितने परिवार खाते-पीते मध्यवर्ग की स्थिति से नीचे आकर गरीब तबकों में शामिल हो गए हैं और कितने अपनी बचत, जीविका और साथ में मरीज भी खोकर सड़क पर आ गए हैं।
एक समाज, एक सभ्यता के लिए के-शेप्ड रिकवरी एक भयानक चीज है। इसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि ऊपर से सारे आंकड़े ठीकठाक दिखते रहेंगे। नींव ही नीची हो जाने से जीडीपी ग्रोथ शुरू में जबर्दस्त दिखेगी, फिर एक-दो साल नीचे रहने के बाद शायद वहीं लौट आए, जहां कोरोना के पहले हुआ करती थी। लेकिन लंबी अवधि में अर्थव्यवस्था के इंजन की भूमिका निभाने वाला भारत का बाजार और इसका भविष्य, दोनों इस बीच बुरी तरह सिकुड़ चुके होंगे।
यह ग्रोथ हकीकत में भारतीय अर्थव्यवस्था की नहीं, रुग्ण अमीरी के द्वीपों की होगी, जिसे कुछ मायनों में ‘कैंसरस ग्रोथ’ समझना ही उचित होगा। इसलिए बीमारी के नरम पड़ने के बाद सरकार का पहला काम यह होना चाहिए कि वह अवसरों की समानता में आ रहे अवरोधों को दूर करे और छप्पर फाड़कर बरसा धन बटोर लेने वाले सुपर-रिच तबके की इस काम में पूरी मदद ले। यह मदद वे अपनी मर्जी से शायद ही देना चाहेंगे, लिहाजा इसके लिए कानून बनाए जाएं।