हेमंत शर्मा-
सुबह से स्तब्ध था। हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि क्या लिखूँ? कैसे लिखूं? रूचि से क्या कहूँ? अमन को कैसे भरोसा दिलाऊं? शब्दों में वह ताक़त नहीं है जो भावनाओं को व्यक्त करे। आज की सतही और उथली होती जाती पत्रकारिता में कमाल की बहुत ज़रूरत थी।उसे हम मन और भरोसे से सुनते थे। उसका जाना, पत्रकारिता को भारी नुक़सान है। कमाल अनूठे और अद्वितीय पत्रकार तो थे ही, वे इंसान भी शानदार थे। उनका व्यक्तित्व मनहर था। उन्हें सुनना खुशकर था।
हो हल्ला वाली पत्रकारिता में कमाल के पास कमाल की संजीदगी थी। भाषा की सहजता और तथ्य के साथ अपनी नफ़ीस रिपोर्टिंग में वे कविता के साथ खेलते थे।तुलसी गालिब से लेकर मजाज़ तक के ज़रिए अपनी बात समझाने में माहिर कमाल हताश, परेशान, हलकान लोगों को ‘पोयटिक’ अभिव्यक्ति देते थे। ऐसा लगता था मानो उनकी रिपोर्टिंग के ज़रिए दर्शक अपने भीतर के अनकहे अवसाद और ठहराव से मुक्ति पाते थे।
कमाल को मैं तीस बरसों से जानता था। पढ़ना और लगातार पढ़ना उनका शग़ल था। साहित्य, राजनीति और इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। वे अपनी रिपोर्ट में मुहावरे गढ़ देते थे। रोज़ बदलती उत्तर प्रदेश की राजनीति पर उनकी एक टिप्पणी देखिए “उत्तर प्रदेश की राजनीति ने इतने रंग देखे हैं जितने किसी रंगसाज़ ने भी न देखे होंगे।”
जब जब पत्रकारिता में कमाल की बात होगी, कमाल बहुत याद आयेंगे। 16 बरस तक मैं लखनऊ में रहा। रूचि भी कोई पंद्रह बरस मेरी सहयोगी रही। जब भी यह दम्पति मिलते, इनमें गजब की आत्मीयता की उष्मा होती। जब लखनऊ जाना होता तो कमाल ज़रूर मिलते कभी कोई किताब देते कभी छप्पन भोग की गज़क।दिल्ली आया तो भी हर संक्रांति कमाल और रूचि के भेजे गज़क ज़रूर आते। पर आज की मनहूस संक्रांति में यह मर्मांतक खबर आयी। कमाल अक्सर खबर ब्रेक करते थे। उनकी खबरें विश्वसनीय होती थीं। आज सुबह उनके नाम पर खबर ब्रेक हुई पर यह विश्वसनीय नहीं लगी। मैं बहुत देर तक इसके झूठ साबित होने का इंतजार करता रहा।
अलविदा दोस्त। बहुत याद आओगे।
अल्लाह उनकी मगफिरत फरमाए। इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन। ईश्वर से प्रार्थना है कि रूचि और अमन को दुख सहने की ताक़त दे।
मेरे साथ माधव जोशी ने अपनी रेखाओं से कमाल को याद किया है।
कमाल के इंतक़ाल पर कुछ अन्य पोस्ट-
अकू श्रीवास्तव-
कमाल के कमाल… जिंदगी कितनी निष्ठुर हो सकती है इसका एक उदाहरण आज मिला। लखनऊ में हार्ट अटैक से आज सुबह उनका निधन हो गया। कमाल हमारे हमपेशेवर ही नहीं थे बल्कि हम लोग 35 साल पहले से ज्यादा पहले साथ काम करते थे। शुरुआत से ही कमाल, कमाल के थे।
नजाकत -नफासत कमाल की रग रग में था। व्यक्तिगत व्यवहार में भी और खबरों में भी। मुझे याद नहीं पड़ता कि नवभारत टाइम्स के दिनों में उनको किसी ने उत्तेजना में देखा हो और जब वह एनडीटीवी के साथ आए तो टीवी का व्याकरण ही उन्होंने बदल दिया।
कभी-कभी राह चलते अगर टीवी पर कमाल दिख जाएं और अति व्यस्तता ना हो तो हम रुक जाते थे। यह कमाल का आकर्षण था । मुझे कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कमाल ने हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो भाषा दी, वह उसके अकेले स्वामी थे।
मैं जब भी लखनऊ जाता तो या तो वह मुझसे मिलने चले आते या मैं मिलने की कोशिश करता। वही आत्मीयता ,वही प्रेम और वही आदर। कमाल के जाने से पत्रकारिता को जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई होना मुश्किल है।।
मैं रुचि की हालत समझ सकता हूं। लेकिन उसके लिए मेरे पास कोई शब्द भी नहीं है ईश्वर उनको शक्ति दे और बेटे के साथ नए सिरे से जिंदगी आगे चलाने के क्षमता दे।
आनंद पांडेय-
क्यों सो गये… दास्तां कहते कहते… तुम्हें हक़ नहीं था…अभी रुखसती का… नितान्त दुखद और अविश्वसनीय…एक अत्यंत सरल, सहज, स्वाभाविक और प्रभावशाली पत्रकार जिसको देखना-सुनना और समझना वाकई मन को अच्छा लगता था… आपकी खबर का हर आयाम हमें निष्पक्षता का भरोसा देता था।
आपकी पत्रकारिता से हमें समाज को समझने की एक विशेष दृष्टि मिली। हमारी खबरों की भूख आपको सुनने के बाद ही शांत होती थी। पत्रकार जगत के साथ साथ गंगा जमुनी तहज़ीब के लिए भी आपका न होना एक बहुत बड़ा आघात है।
दिल अभी भी आपके न होने की सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहता, काश यह खबर झूठी हो। आप हमारे आदर्श हैं और रहेंगे…आपकी कमी बहुत अखरेगी…
आपने अपनी खबरों के माध्यम से जिस तरह से हमारे दैनिक जीवन को सकारात्मक रुप से प्रभावित किया, चीजों को सोचने समझने की जो दृष्टि आपके कारण मेरे अंदर विकसित हुई उस सबके लिए पूर्ण कृतज्ञ भाव से आपका हार्दिक आभार…
हमारे दिलों में आपके विचार, प्रभाव और आपकी जीवंत एवं संयत शैली हमेशा जिन्दा रहेगी।
अश्रुपूरित सादर विनम्र श्रद्धांजलि!
सत्येंद्र पीएस-
लखनऊ से रिपोर्ट करने वाले एनडीटीवी के कमाल खान नहीं रहे। पत्रकारों को लेकर लोगों की अपनी पसंद नापसंद होती है। उनकी रिपोर्टिंग उनके नाम के मुताबिक थी। शानदार प्रस्तोता और ज्ञान से भरपूर। अगर वह माघी मेला या कुम्भ के बारे में रिपोर्टिंग करते, तो भी लगता कि वह कुम्भ के बारे में किसी पण्डित से बेहतर जानते हैं। सधी हुई आवाज। कोई झूम झाम नहीं। कोई किकियाहट झुंझलाहट नहीं।
यूँ लगता था कि बन्दा सिद्धावस्था को पा गया है और किसी सरकार या व्यक्ति के बहुत गिर जाने पर यही सोचता होगा…
बाजीचा ए अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे
कमाल खान से कभी कोई मुलाकात नहीं हुई और कोई पर्सनल रिलेशन भी नहीं। अभी जौनपुर वाले राजेश भाई ने 4 दिन पहले ही तो उनकी चर्चा की थी! भलामानुष की एक पहचान यह भी होती है कि हाशिये पर खड़ा उसका सहकर्मी भी उसकी प्रशंसा करे।
मैंने अपने जीवन मे बहुत बुरे लोगों को ही देखा है जो ऊपरी चमक दमक में बहुत ही क्रांतिकारी होते हैं। बहुतै क्रांतिकारी वाले का एक रिलेटिव मेरा मित्र था। हम बोले कि यार तुम्हारे सीधे रिश्तेदार हैं, जाकर नौकरी मांगने में क्या बुराई है? कोई भीख न देगा तो तुमड़ी थोड़े न फोड़ देगा! उसने कहा कि अबे तुमको क्या लगता है कि मैं गया नहीं? उसकी माता जी ने कहा कि मेरे बेटे से बड़ा पत्रकार कौन है भारत में और हमसे 3-4 किताब का नाम लेकर बोला कि इनको पढ़े हो? मैं कोई जवाब देता, उसके पहले उसने फैसला कर लिया कि आजकल के लड़के पढ़ते नहीं हैं। वह बीमार होने की हद तक दम्भी है।
मैं इसलिए नहीं कहता था कि चलो इतना ही बना रहे कि वो मेरा रिश्तेदार है! तमाम जब फील्ड से बाहर होते हैं तो क्रांतिकारी हो जाते हैं। उसके पहले उन्हें जाति के लोग ही सबसे काबिल दिखते हैं। तमाम ऐसे होते हैं जो मदद के लिए कार के पास कोई बेकार दौड़ा पास आये तो कार का सीसा चढ़ाकर निकल लेते हैं। कितनी लम्बी सूची दी जाए। पग पग पर ऐसे लोग बिखरे पड़े हैं।
सम्भव है कि कमाल खान का भी किसी से खट्टा सम्बन्ध रहा हो। मैं न तो कभी मिला, न सीधे जानता था। और मैं जिसे पर्सनल नहीं जानता, वह मेरे लिए ऐसे ही होता है जैसे देश में हजारों रोज मर जाते हैं।
खैर.. कमाल खान में कुछ ऐसा तो था, जो कभी मिले बगैर और व्यक्तिगत रूप से जाने बगैर इतना लिखने को मजबूर हुए। कमाल खान का वह शायराना लखनवी अंदाज निश्चित रूप से याद आता रहेगा। मेरी नजर में वह सर्वश्रेष्ठ डिब्बा पत्रकार थे।
विनम्र श्रद्धांजलि