पवन सिंह-
एक बेहतरीन साथी खो दिया है मैंने…अलविदा कमाल खान…1992 का दौर था। मैं जागरण में कुछ दिन गुजारने के बाद राष्ट्रीय सहारा आ गया था। लखनऊ विश्वविद्यालय हमारी बीट थी। मैं, परितोष पांडे, कमाल खान, विश्वदीप बनर्जी, सतगुरु शरण अवस्थी, प्रदीप मिश्र…एक टीम हुआ करती थी। कमाल खान की रिपोर्टिंग में एक गजब का भाषाई प्रभाव था, किस्सागोई शैली, कुछ अलंकार और सुंदर भावनात्मक शैली में “कमाल”…कमाल का लिखते थे।
अक्सर हम लोग मिल्क बार में बैठकर चाय पीते थे और रात में आफिस छोड़ने से पहले रुटीन की खबरों का आदान-प्रदान कर लिया करते थे ताकि कोई खबर मिस न हो जाए। उस दौरान हरिकृष्ण अवस्थी लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति हुआ करते थे। गजब का अक्खड़ स्वभाव था। स्मरण है कमाल खान ने 25 जनवरी को एक रिपोर्ट पर काम किया।
कमाल ने विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों, छात्रों से पूरा राष्ट्रगान सुनाने को कहा…कुछ तो बिदक गये, कुछ ने सुना दिया, तमाम उच्चारण में अटक गये, कुछ बीच में लटक गये….कमाल आर्ट फैक्लिटी के बाहर मिले मैंने कहा कि क्या सारा राष्ट्रवाद आज यहीं गिरा लोगे?…चलो चाय पीते हैं छात्रसंघ भवन के पास पीपल के पेड़ के नीचे…कमाल बोले तुम जाओ मैं हरिकृष्ण अवस्थी से राष्ट्रगान सुनकर आता हूं…हमने कहा-पागल हो क्या? हुरिया देंगे पंडित जी…कमाल माने नहीं हरिकृष्ण अवस्थी के पास पहुंच गये।
मैं पीपल के पेड़ के नीचे अपनी टीवीएस पर बैठा इंतजार करता रहा। कमाल लौटे तो चेहरे पर हंसी बिखरी हुई थी…मैंने पूछा-अवस्थी जी ने राष्ट्रगान सुना दिया न?…कमाल बोले-गजब का सुनाया ही नहीं बल्कि मुझसे भी सुन लिया और कहा कि वंदे मातरम् भी सुनोगे क्या? बकौल कलाम-“पंडित जी बोले ले लफंडरगिरी वाली खबरें लिखना बंद करो…कुछ ऐसी खबर लिखो कि हमको भी पता चले कि विश्वविद्यालय में क्या कमी है। मुरहपन बंद कर दो।”
कमाल प्रिंट से वीजुवल मीडिया की ओर आ गये और अंत तक एनडीए टीवी के साथ रहे। जैसा लिखते थे वैसा ही कैमरे पर बोलते थे, शेरों-शायरी के साथ खबर को आहिस्ता-आहिस्ता विस्तार देना और पीक पर ले जाकर खबर को सलीके से उतार देना….करीब एक साल पहले रात को इंदिरा नगर के बेबियन में मुलाकात हुई थी वो अपने बेटे के साथ डिनर कर रहे थे। मैं मुंबई के अपने एक फिल्म निर्माता मित्र नोमान मलिक के साथ बैठा था तभी कमाल से भेंट हुई। थोड़ी देर बातचीत हुई फिर मैं निकल गया। अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री थे तो पांच कालिदास मार्ग की प्रेस कॉन्फ्रेंस में अक्सर भेंट हो जाता करती थी लेकिन यह सिलसिला भी खत्म हो गया।
कमाल चले गये। भाव-भाषा और प्रस्तुति का खूबसूरत मिश्रण करने वाला पत्रकारिता का मेरा सबसे उम्दा साथी नहीं रहा। कहते हैं कल पर कुछ नहीं टालना चाहिए कलाम के जाने के बाद यह एहसास हो रहा है…पिछले दिनों कमाल से फोन पर बातचीत हुई थी। बोला-यार पत्रकारिता की शवयात्रा, हस्तिनापुर और देवी कटोरी किताब दे देना…मैंने कहा कल भिजवा दूंगा..मैं लखनऊ से बाहर चला गया और कमाल बहुत दूर चला गया।
उसके हिस्से की किताबें मेरे पास रह गईं… बहुत जल्दी चले गये दोस्त!….तुम तो एक बदलते हुए मुल्क की तस्वीर देखना चाहते थे…जब कहा था ये देश 30-35 साल बाद धर्म और जाति के दल-दल से जरूर निकलेगा और युवा पीढ़ी निकालेगी…यही दिन देखने की तमन्ना है… तुम्हारी उर्दू और देवनागरी भाषा में मीठी सी रिपोर्टिंग हमेशा मेरे जेहन में रहेगी दोस्त… अलविदा
संजय कुमार सिंह-
अलविदा कमाल भाई… ठीक से याद नहीं है वर्षों पूर्व जब कमाल खान स्टार नहीं थे, एक मित्र से कमाल खान का नंबर लिया था। उनसे कुछ बात करनी थी। मेरा उनसे परिचय नहीं था और मैं सीधे किसी खबर के बारे में पूछने से हिचक रहा था। आखिर मैंने उन्हें फोन नहीं किया। उसके बाद ही मैंने उन्हें ठीक से देखना शुरू किया। टीवी देखना कम होता गया पर जो पुराने चेहरे थे उनमें देखने के लिए चुने गए चेहरों में वे बने रहे। ढूंढ़कर भी देखता रहा। कुछ समय के बाद महसूस हुआ कि मैं उनका प्रशंसक हो गया हूं और एकबार लगा कि फोन करके दोस्ती करने की कोशिश करूं।
फिर लगा कि यह कोई बताने की चीज नहीं है कि आप अपना काम अच्छे से कर रहे हैं और इसलिए मैं आपका फैन हूं। मैंने फैन बने रहना ही पसंद किया। मैं उनका अच्छा प्रशंसक हो गया था। इस बीच बहुत सारे लोग अच्छे लगे उनसे कहीं ना कहीं मुलाकात हो गई। बहुत सारे लोग फेसबुक-ट्वीटर पर मिल गए। पर कमाल खान रह गए। अफसोस रहेगा। और आज पता चला कि वे नहीं रहे। नंबर अभी भी फोन में है। इस बीच कितने हैंड सेट बदले हर बार एकाध नंबर तो गायब हो ही जाता है। जो बाद में पता चलता है। पर कमाल खान दिल में तो बने ही हुए थे फोन में बने हुए हैं। यह भी कमाल ही है।