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सुख-दुख

कमाल यानि शांत, शिष्ट, संभ्रांत, जोशीले लेकिन विनम्र, जानकार, प्रतिबद्ध!

अमिताभ श्रीवास्तव-

कमाल खान के निधन की खबर ने स्तब्ध कर दिया है। पत्रकारिता के अलावा हमारी पूरी लखनऊ की मंडली के लिए बहुत बड़ा सदमा है यह। कमाल साहब सेहत को लेकर सतर्क रहने वाले, खान-पान को लेकर एहतियात बरतने वाले इन्सान थे।

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पत्रकारों में जिस तरह की खाने-पीने की आदतें और अनियमित जीवनशैली आम समझी जाती है, कमाल उस सब से परहेज़ करने वाले शख्स थे।

टेलीविजन पत्रकारिता की शोर-शराबे और चीख चिल्लाहट वाली अहंकारी दुनिया में कमाल साहब बिरले ढंग के पत्रकार थे- शांत, शिष्ट संभ्रांत, जोशीले लेकिन विनम्र, जानकार, प्रतिबद्ध। पत्रकार तो कमाल के थे ही, इनसान बहुत शानदार थे। दोस्त इन्सान।

क्या कहें- लखनऊ यूनिवर्सिटी के दिनों से लेकर अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स का दौर याद आ गया। एक दौर में बहुत अच्छा साथ रहा है। प्रिंट की पत्रकारिता में रहते हुए उनकी जो बातचीत की शैली थी, टीवी में आने के बाद उन्होंने उसी को कैमरे पर अपना अंदाज़ ए बयां बना लिया जो बहुत लोकप्रिय हुआ।

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एनडीटीवी से जुड़ने के दौरान जब दिल्ली आए तो साथ ही टिके। कमाल साहब लखनवी तहजीब, सलीके के शानदार नुमाइंदे थे। ऐसा पत्रकार टीवी में अब होना नामुमकिन है।

कमाल की पत्नी रुचि यूनिवर्सिटी में साथ पढ़ी हैं, फिर इंडिया टीवी में सहकर्मी रहीं। उनके और परिवार के दुख में हम सहभागी हैं। कमाल साहब को विनम्र श्रद्धांजलि।

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विक्रम सिंह चौहान-

अच्छे लोग दुनिया में ज्यादा दिन नहीं रहते।कमाल के इंसान, कमाल की आवाज़ और लहज़ा भी कमाल का।कमाल खान एनडीटीवी के वे रिपोर्टर थे जिसकी रिपोर्ट सुनने के लिए लोग टीवी के सामने से हटते नहीं थे।

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टीवी पर धार्मिक मामलों को कवर कर रहें रिपोर्टर अक्सर चीख रहे होते हैं,पर जब कमाल खान उसी खबर को रिपोर्ट करते हैं तो लगता है उन्हें गले से लगा लें।

“कमाल के राम” जैसी उनकी कई रिपोर्ट जब देश में नफरत बोई जा रही है बार-बार सुनी जानी चाहिए।लखनऊ की तहज़ीब को जुबां पर रखने वाले प्यारे इंसान को विनम्र श्रद्धांजलि।

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वीरेंद्र यादव-

कमाल खान का न रहना. कमाल खान का न रहना हम सब के लिए सचमुच स्तब्धकारी और अविश्वसनीय है. अभी कल रात तक वे एनडीटीवी पर मुस्तैदी के साथ खबर कर रहे थे. हम लखनऊ वालों के लिए यह विशेष रुप से दुख की घड़ी है. उनके साथ मेरे मैत्रीपूर्ण संबंधों का लंबा सिलसिला है.

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उनसे मेरा परिचय पत्रकारिता में उनके आने से पहले का है. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत लखनऊ में एचएएल रक्षा प्रतिष्ठान में रुसी से हिंदी अनुवादक/ इंटरप्रेटर के रुप में की थी. इसी दौरान वे वयोवृद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा के संपर्क में आए और कम लोगों को यह पता होगा कि उनकी ‘संस्मृतियों’ को अंग्रेज़ी में कमाल खान ने ही प्रस्तुत किया था.

इसके बाद उन्होंने स्थानीय हिंदी दैनिक ‘अमृत प्रभात ‘में पत्रकारिता को पेशे के रुप में अपनाया. वे पढ़ाकू पत्रकार और पुस्तकों के अनुरागी थे. उनकी यह अध्ययनवृत्ति उनकी टीवी रिपोर्टिंग पर नुमायां होती रहती थी.

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कई बार दूरदराज के इलाकों से रिपोर्टिंग करने के दौरान वे किसी साहित्यिक संदर्भ की पुष्टि के लिए फोन करते थे. एक बार अरुणांचल प्रदेश से रिपोर्टिंग के दौरान बाबा नागार्जुन की कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ की पुष्टि के लिए फोन किया था..

‘’हंस’ के मीडिया विशेषांक के लिए जब उन्होंने एक कहानी लिखी थी तब आश्वस्त होने के लिए मुझे वह कहानी यह कहकर सुनाई थी कि कहानीनुमा कोई चीज उन्होंने पहली बार लिखी थी. कई बार उन्होंने हिंदी व सांस्कृतिक मुद्दों पर मेरी बाइट भी ली थी.

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एक बार प्रतापगढ़ के एक गाँव में एक युवा दलित इंजिनियरिंग छात्र की हत्या कुछ दबंग सवर्णों द्वारा कर दी गई थी, मैंने कमाल खान को इस जघन्य हत्याकांड की जानकारी इसके कवरेज की प्रत्याशा से दी.

अपने स्रोतों द्वारा घटना की पुष्टि के बाद वे तुरंत अपनी टीम के साथ प्रतापगढ़ गए और शाम के बुलेटिन में प्रशासन की मंशा के विरुद्ध इसकी विस्तृत कवरेज की और उसका फालोअप भी किया था,जिससे दबंगों की गिरफ्तारी हुई थी.

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ऐसी कई यादें आज ताजा हो आई हैं. कई बार वे अपनी विशेष रिपोर्टिंग के विडियो व्हाट्सएप पर भेजते थे. प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर आश्वस्त व खुश होते थे. आखिरी बार उन्होंने पिछले वर्ष अयोध्या की रिपोर्टिंग का विडियो भेजा था, जो वास्तव में नायाब और यादगार था.

कमाल सचमुच कमाल के रिपोर्टर थे, मुझे आज उनकी निर्मिति के उस आरंभिक दौर से लेकर अब तक का शानदार सफर याद आ रहा है.

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विदा साथी कमाल खान, आप हमेशा यादों में रहेगें.

दीपक कबीर-

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मेरा फोन ऑफ था..और उठा पाने की मनःस्थिति में भी नहीं..माफ़ करें

मैं हिल गया हूँ और चीख के रोना चाहता हूँ..

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कल शाम को उनकी बहन Tazeen Khan ने मुझसेक मेरा एक शेर लिखवाया और कहा रात में भैया को देंगे वो इस्तेमाल करेंगे…मैने मुसकुरा कर कहा..उनके पास पहले से है ..

कल रात विपक्ष के 2-3 विधायक और मैं कुछ बातें और डिनर कर रहे थे, एक विधायक बोले बुंदेलखंड में कमाल की स्टोरीज़ हैं..आप कवर करवाइये..

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मैंने मुस्कुराकर कहा कि बुंदेलखंड पर कमाल खान ने बेहद संवेदनशील स्टोरी की थी उसमें मेरी कविता इस्तेमाल हुई थी..मैं उन्ही से कहता हूं..

रात तबियत खराब थी..सुबह जल्दी उठा..
और बस ndtv के राजेश से बात हुई..भागा..

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मैं क्या ये पूरी कायनात लेकिन देर कर गयी..बहुत देर कर गयी..वो बेड पर अपने ट्रेक सूट में चुपचाप सो रहे थे..

रुचि – अमन इस कदर संयत थे कि साफ पता चल रहा कि जैसे इस पहाड़ जैसे आघात ने जड़ कर दिया है..

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कमाल खान..

1992-93 में कमाल से मुलाकात हुई थी, रुचि परख के लिये काम करती थीं, शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ हमारे नाटक को रिकार्ड करना था..कमाल मदद कर रहे थे..

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तब से शुरू हुआ परिचय..कब गहरे हमदर्द और दोस्ती मे बदल गया इसके हज़ारों किस्से हैं..

ndtv दिल्ली की एडिटोरियल डेस्क में मेरा सेलेक्शन कमाल खान के रिकमंडेशन के साथ ही गया था, हालांकि बाद में लखनऊ न छोड़ने की वजह से जॉइन न किया..और कुछ दिबांग से बहस।

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फिर ये रिश्ता प्रगाढ़ होता गया..घरेलू पार्टियां हों या सरोकारी सवाल..कमाल का अध्धयन और मेहनत के हम सब मुरीद थे..

उनकी नफ़ासत उनकी एस्थेटिकल समझ..उनकी रायटिंग.., डालीबाग वाले घर से बटलर पैलेस तक वो छोटी छोटी चीजें..

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मेरी गिरफ्तारी पर उनका वो क्षोभ..

आखिरी मुलाकात पर वो बहुत बिज़ी थे, मुझे फोन किया तो एक घंटा बातें हो गयीं ,वीना बोली इससे अच्छा तो आप आ ही जाओ..

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15 मिनट के लिये आये और फिर डेढ़ घंटे हम दोनों खड़े खड़े बात करते रहे..सारे लोग मज़ाक करने चिढाने लगे तो जिद की कि मैं भी उनके साथ शादी में चलूँ..

उनका आखरी भाषण वो भी पत्रकारिता का भी मेरे पास रिकार्ड है..शेयर करूँगा कि वो क्या कहना चाहते थे..

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मुझे लग रहा है मैं डिस्टर्ब हो रहा हूँ..
जाने क्या लिख रहा हूँ क्यों लिख रहा हूँ…

उस शख्स के लिये जिसने इस शहर इस दौर में कुछ स्टोरीज़ सिर्फ इसलिये अपने नाम से नहीं की कि उनका नाम कमाल खान है..

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कुछ सरकारी आयोजनों में रुचि को इंडिया tv की वजह से तो बुलाया गया मगर परिचित अधिकारियों ने कमाल खान को नही बुलाया…इस दौर के लखनऊ और रंग बदलती दुनिया मे भी कमाल साझी सांस्कृति की दुहाई दे रहे थे..

2014 इलेशन में ndtv के साथ हुई चुनावी चर्चा के बाद ही कमाल भाई से कह के मैंने घर का tv हमेशा के लिये बन्द कर दिया था..आज तक नहीं खोला..अब क्या खोलूंगा।

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आप उसे मुसलमान कहोगे पर वो भगतसिंह के दोस्त शिववर्मा के साथ बैठ इंक़लबियों की यादें टाइप कर रहा था और भगत सिंह का जूता छू के जो झुरझुरी हुई उसे ताउम्र महसूस करता रहा..

वो मुसलमान था और मैं चुपचाप उसके जिस्म से रौशन चमकीली आँखे निकलते देख रहा हूँ क्योंकि वो आंखे तक डोनेट कर गया..

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डॉक्टर जूझ रहे हैं और मेरी आँखें भरभरा के ढह गयीं..

सब धुंधला है अब….
और मैं सब छोड़ देना चाहता हूं…

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इप्टा के महासचिव Rakesh Veda मेरी गाड़ी पर पीछे बैठे हैं..हम कब्रिस्तान जा रहे हैं वो समझा रहे हैं कुछ खा पी लो, ये दुनिया ऐसी ही है काम करते रहो पर ज़्यादा तनाव लेने से क्या हासिल…

मेरा दिल धड़कना बन्द ही नहीं कर रहा…
बेचैनी जान ले रही है…

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क्या कमाल भाई की दुनिया अब शांत है ..
वो सुकून में होंगे न…

“दिन भर बोलता था वो तो कितना चुप सा दिखता था
अभी चुप बैठा है तो चेहरा कितना बोलता सा है…

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-deepak kabir

हमारी आखरी तस्वीर …..आख़री चाय…

सौमित्र रॉय-

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“आप पत्रकारों के दिल पर काफ़ी बोझ होता होगा न? आप लोग स्ट्रेस मैनेजमेंट कैसे करते हैं?”- भोपाल के MCU से जर्नलिज़्म कर रही एक बच्ची के सवाल पर बरबस हंसी आ गई।

NDTV के एसोसिएट एडिटर कमाल खान के दिल की धड़कन रुक गई। बच्ची ने समझा कि दिल पर बोझ रहा होगा।

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मेडिकली ये सही है। लेकिन कमाल खान जैसे बोलने वाले पत्रकार दिल पर बोझ नहीं रखते। बोल देते हैं। बेख़ौफ़।

फिर भी रोज़ दिल पर कुछ तो बोझ जमा होता है। उन अनकही बातों का, जिनका हमारे पास कोई इलाज़ नहीं होता।

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जब तक न्यूज़रूम में रहा तो धड़कनों का पता ही नहीं चलता था- गोया कि भीतर दिल ही न हो।

फिर बाहर आकर NGO में नौकरी की तो बोलने से पहले दिल ज़ोरों से धड़कता और फिर न्यूट्रल स्पीड पकड़ लेता।

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डॉक्टर ने डायबिटीज के साथ ब्लड प्रेशर की दवा भी पकड़ा दी। रोज़ खाता हूं तो धड़कन महसूस होती है।

सीने में हल्का सा भी दर्द उठे तो मेरे एक अभिन्न मित्र की याद आ जाती है, जो अक्सर कहता था- फोटू फ्रेम में लगवा दी है। आखिरी सफर की बुकिंग हो चुकी है। देखना 50 के ऊपर पहुंचते ही निकल लूंगा।

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और वादे के मुताबिक जनाब निकल भी लिए। कुछ दिन बाद 52 का हो जाऊंगा। दोस्त का वादा याद है।

दिल का क्या है। किसने समझा है? हम खुद भी सिर्फ़ धड़कन ही महसूस कर पाते हैं। अंदरखाने दिल का “दर्द” तो मुझे भी नहीं पता, फिर दूसरे क्या जानें?

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वास्तविक पत्रकार संवेदनशील होता है। रोज़ घर लौटकर दिमाग में आज के कर्मों, पाप-पुण्य, सही-गलत, इंसाफ-नाइंसाफ़ी की टेप चलती है।

अगले दिन की खुराक ढूंढते नींद तो आती है, लेकिन दिल का चुपके से रोना किसे सुनाई देता है? दिल की सिसकियां ख़्वाबों में ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म की तरह आती-जाती हैं। सुबह कुछ याद नहीं रहता।

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काहे का स्ट्रेस मैनेजमेंट? किस बात की पॉजिटिविटी, जब नज़रों के सामने दर्जनों नाइंसाफियों के बीच कोने में पड़ी इंसाफ की आवाज़ को बुलंद करने की चुनौती रोज़ ही उठानी है?

हमें किसी पार्टी के IT सेल से एजेंडा नहीं मिलता। हमारी शामें कबाब, शराब और शबाब के साथ कभी रंगीन नहीं होतीं। देर रात घर लौटकर मेज़ पर कैलेंडर की तारीख बदली और कल का खाना आज का मानकर गर्म करके खा लिया।

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हमारे दिल का 80% बोझ लफ़्ज़ों में उतर आता है, पर बाकी का 20% वॉल्ट में जमा हो जाता है।

यही फिक्स्ड डिपाजिट जिंदगी से किया वह वादा है कि जब साथ छोड़ो तो चुपके से कान में बता जाना।

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कमाल खान के कान में भी शायद ज़िन्दगी ने कुछ कहा होगा, जो हम नहीं जानते।

फिर भी, जब तक दिल धड़क रहा है कहते रहेंगे। कमाल खान को दिल में लिए…

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