शम्भूनाथ शुक्ला-
कमलेश दीक्षित अमर उजाला कानपुर के जीएम थे, 2002 में जब मैं वहाँ स्थानीय संपादक बन कर पहुँचा। मेरे जॉइन करते ही वे बोले कि शुक्ला जी आप मुझसे दो वर्ष छोटे हैं। इसलिए मैं आपका बड़ा भाई हूँ। दूसरे गाँव के रिश्ते से आप मेरे मामा के बेटे हैं अतः मैं आपका मान्य हुआ।
दोनों ही बातें सही थीं।
1980 में जब मैंने दैनिक जागरण में बतौर ट्रेनी जॉइन किया था तब वे वहाँ सरकुलेशन इन्सपेक्टर थे। तीन साल बाद मैं जनसत्ता में दिल्ली आ गया। तब कुछ वर्ष बाद उनके बारे में खबर मिली कि उन्होंने अमर उजाला जॉइन कर लिया है। जल्द ही वे मालिकों के प्रिय हो गए और कानपुर में अमर उजाला का मतलब ही कमलेश दीक्षित हो गया। संपादकीय विभाग में भी उनका दख़ल रहता था और ख़ूब।
जब मैं जनसत्ता के कोलकाता संस्करण की ज़िम्मेदारी से मुक्त होकर कानपुर में अमर उजाला का एडिटर हो कर पहुँचा तब उनका बहुत जलवा था। एक दिन मैंने उनसे कहा, कि आप संपादकीय विभाग में दख़ल नहीं करेंगे। और उन्होंने इसे निभाया। लेकिन उनका दबदबा शहर में बहुत था।
आज मित्र Akhand Pratap Singh Manav की वाल से पता चला कि कमलेश जी का कल निधन हो गया। उनके फेफड़ों में कैंसर था। अब देखिए, जगत व्यवहार भी कितना विचित्र है। अख़बारों की दुनियाँ का बेताज बादशाह चला गया और राष्ट्रीय मीडिया में किसी ने भी इसे नोटिस नहीं किया। इसी तरह सुनील दुबे की मृत्यु पर भी किसी अख़बार ने दो लाइन की ख़बर तक नहीं दी थी।
Rajnish tara
April 1, 2021 at 9:49 pm
आदरणीय कमलेश दीक्षित सर के सान्निध्य में मैं 2005 में आया जब मैं मेरठ यूनिट से कानपुर आया….शानदार व्यक्तित्व…मुझे वो पहला दिन याद है कानपुर ज्वाईनिंग का…मैं लिफ्ट का ईंतजार कर रहा था..वह लगभग दौड़ते से आये और बोले यार जवान खून हो…सीढ़ी से जाया करो….ईतनी ऊर्जा ? मुझे भी शर्म आ गयी….
उन्होंने कभी एहसास भी नहीं होने दिया कि वह महाप्रबंधक है और मैं एक छोटा सा कर्मचारी…
उनके निधन के समाचार पर समझ ही नहीं आ रहा कि क्या बोलूं क्या लिखूं…
एक और वाक्या है….मैं कानपुर से देहरादून आ रहा था राष्ट्रीय सहारा ज्वाईन करने 2009 में….बाईक भी लानी थी …उनहोंने बोला स्टेशन पर फलाना आदमी मिलेगा ….मेरी बात करा देना…
2000 खर्चा बोला था उसने पर सर से बात करके 500 फाईनल हुआ……
क्या बोलूं और क्या लिखूं उनके बारे में….मेरी हैसियत नहीं
नमन कमलेश सर आपको…शत शत नमन