संसद में सवर्ण सांसदों, मंत्रियों का दबदबा तेजी से बढ़ा… 58 मंत्रियों में से 32 सवर्ण, 13 पिछड़ी जाति के… हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में संसद में सवर्णों का दबदबा तेजी से बढ़ा है। मंडल आयोग के दौर के बाद मंदिर और हिंदुत्व का दौर आते-आते भारतीय राजनीति में सवर्ण अप्रासंगिक हो गये थे। लेकिन कट्टर हिंदुत्व के नेताओं की अगुवाई में मंदिर मुद्दे को जैसे जैसे धार दी गई, वैसे-वैसे जाति और वर्ग का किला ध्वस्त होता चला गया। इसके बाद भाजपा ने अति पिछड़ों, कुर्मी और लोध के साथ चुनाव में बड़ी संख्या में सवर्ण उम्मीदवार उतारने शुरू किये। 2019 में हिंदी पट्टी के 199 संसदीय सीटों पर भाजपा ने 88 अगड़े प्रत्याशी मैदान में उतार दिए, इसमें 80 निर्वाचित हुए। नये मंत्रिपरिषद में 58 मंत्रियों में से 32 सवर्ण जाति के हैं, जबकि पिछड़ी जाति के 13 मंत्री ही शामिल हैं।
दरअसल ओबीसी या दलित या फिर अल्पसंख्यकों के पास ऐसी एक भी जाति नहीं है जो अकेले अपने दम पर चुनाव जीत कर बहुमत पा सके। मंडल के दौर में मुस्लिमों के साथ ओबीसी की प्रमुख जाति यादव ने कुछ सफलता पायी पर मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के आगे फेल हो गयी।वास्तव में सभी ओबीसी और दलित जातियां एकजुट होकर चुनाव लड़ें तो उनका बहुमत में जीतकर आना निश्चित है पर उनमें भी बहुत विभाजन है और आपस में सबसे बड़ा श्रेष्ठ कौन की लड़ाई है। इसे पहचानकर जातिवादी राजनीति के क्षत्रप अपनी अपनी पार्टियों के साथ अन्य जातियों और सवर्ण प्रत्याशियों को जोड़ कर सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर चुनाव मे उतरने लगे। इस बीच कांग्रस के पराभव से सवर्ण विशेषकर ब्राह्मण और कायस्थ भाजपा के पाले में चले गये। ओबीसी और दलित नेतृत्व के दलों में यथोचित सम्मान न मिलने से विभिन्न दलों में बिखरे राजपूत भी बहुतायत से भाजपा के साथ हो लिए। इस चुनाव में उत्तरप्रदेश का गठबंधन हो या बिहार का महागठबंधनपिछड़ों और दलितों का गठजोड़ करके भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग के आगे फेल हो गये।
टिकट के बाद मंत्रिपरिषद के गठन में भी भाजपा की यह नीति परिलक्षित हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में भी सवर्ण प्रितिनिधित्व अधिक है। मंत्रिमंडल में कई अन्य जातियों के सांसदों को जगह दी गयी है, लेकिन इनमें से अधिकतर सवर्ण जाति के हैं। मोदी सहित शपथ लेने वाले 58 मंत्रियों में से 32 सवर्ण जाति के हैं, जबकि पिछड़ी जाति के 13 मंत्री ही शामिल हैं। अनुसूचित जाति के छह और अनुसूचित जनजाति के 4 सांसदों को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है।
मोदी की नयी कैबिनेट में नितिन गडकरी समेत नौ ब्राह्मण नेताओं को जगह दी गई है। तीन ठाकुर नेताओं, राजनाथ सिंह, गजेंद्र सिंह शेखावत व नरेंद्र सिंह तोमर को भी कैबिनेट में शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री मोदी और धर्मेंद्र प्रधान ओबीसी समुदाय के प्रमुख चेहरे हैं। शपथ लेने वाले मंत्रियों में सिख समुदाय के दो नेताओं अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल व भाजपा के हरदीप पुरी और मुसलिम समुदाय से मुख्तार अब्बास नक़वी शामिल हैं। नौ ब्राह्मण नेताओं को कैबिनेट रैंक का दर्जा देकर इस जाति के लोगों को एक संदेश देने की कोशिश की गई हैकि उनका भविष्य भाजपा में ही सुरक्षित है, कांग्रेस में नहीं। इस चुनाव में राहुल गाँधी और प्रियंका वाड्रा के हिंदुत्व कार्ड से कहीं न कहीं संघ में घबराहट है कि ब्राह्मण कांग्रेस में वापस जा सकता है ।
भाजपा राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ से जुड़ा राजनितिक संगठन है और भजपा की राजनितिक दशा टी करने में उसकी ही भूमिका होती है।संघ ने कमंडल कार्ड खेलकर हिंदुत्व के नाम पर अधिकांश हिन्दुओं को जोड़ने की मुहीम चलायी और भाजपा ने पिछड़ों में अति पिछड़ों तथा दलितों में अति दलितों को सामाजिक न्याय दिलाने की मुहीम छेड़ दी। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अपने को अत्यंत गरीब बताते हुये अपनी जाति तेली बता दी और दावा किया कि वे अति पिछड़ी जाति से हैं।नतीजतन बड़ी ख़ामोशी से अति पिछड़े,अति दलित और यादव से इतर अन्य पिछड़े कब भाजपा के पाले में चले गये कि पता ही नहीं चला। शाक्य, मौर्य, प्रजापति,लोध, राजभर, गुर्जर, जाट. पासी, पासवान, वाल्मीकि आदि रातों रात ख़ामोशी से भाजपा के पाले में चले गये।
इसकी आड़ में भाजपा ने सबसे ज्यादा सवर्ण जाति के नेताओं को अपना उम्मीदवार बनाया । 1990 में मंडल कमिशन के बाद संसद में ओबीसी प्रतिनिधियों की संख्या 11 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। इस दौर में सपा, बसपा और कांग्रेस ने पिछड़ी जातियों पर जमकर दांव लगाया। ब्राह्मण व बनिया की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा भी इस वर्ग के महत्व को समझ कर इस वर्ग को बढ़ावा देने की नीति पर चल पड़ी। इसकी काट के लिए 1991 में यूपी की राजनीति में भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री के तौर पर पिछड़े वर्ग के लोध नेता कल्याण सिंह का उदय हुआ। लेकिन, 2009 आते-आते हिंदुत्व और भाजपा का प्रभाव बढ़ा अप्रत्यक्ष रूप से सवर्णों का राजनीति में दखल बढ़ने लगा। 2014 चुनाव के नतीजों में मंडल से पहले वाला राजनीतिक परिदृश्य वापस आता दिखने लगा। यह वह दौर था, जब पिछड़ी जाति के लोग अन्य पिछड़ी जाति आधारित दलों में बंटने लगे थे। यूपी में सपा और बिहार में राजद यादवों, तो बसपा जाटवों और जदयू कुर्मियों की पार्टी के रूप में अपनी पहचान बना चुकीं थी।
इस दौरान संघ द्वारा जैसे-जैसे कट्टर हिंदुत्व के नेताओं की अगुवाई में मंदिर मुद्दे को धार दी गई। वैसे-वैसे जाति और वर्ग का किला ध्वस्त होता चला गया। इसके बाद भाजपा ने अति पिछड़ों,कुर्मी और लोध के साथ चुनाव में बड़ी संख्या में सवर्ण उम्मीदवार उतारने शुरू किये। 2019 में हिंदी पट्टी के 199 संसदीय सीटों पर भाजपा ने 88 अगड़े प्रत्याशी मैदान में उतार दिए, इसमें 80 निर्वाचित हुए।
भाजपा यूपी में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के साथ राजपूत बिरादरी में भी पैठ में कामयाब रही। 2009 में 30 प्रतिशत ब्राह्मण सांसद 2014 में 38.5 प्रतिशत हो गए। इसी तरह 2019 में ये बड़ी संख्या में जीतकर संसद पहुंचे हैं। राजपूतों की बात करें तो इनकी संसद में चमक फीकी पड़ी है। 2009 में 43 प्रतिशत जीते सांसद 2014 में 34 प्रतिशत पर आ गए। लेकिन, भाजपा के हिंदी पट्टी के 199 उम्मीदवारों में 37 ब्राह्मण व 30 राजपूत थे। जबकि 2014 में 33 ब्राह्मण और 27 राजपूत सांसद चुने गए थे। इस दौरान पिछड़ी जाति के सबसे ज्यादा उम्मीदवार यादव जाति के हारे, क्योंकि भाजपा ने अन्य जाति के उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिससे वोटों का बिखराव हो गया। इससे पिछड़ी जाति का आंकड़ा 2009 से 2019 में बीच गिरकर 29 प्रतिशत से 16 प्रतिशत पर आ गया।
लेखक जेपी सिंह इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Piyush Kumar
June 2, 2019 at 10:53 pm
बकवास, बांटने की कोशिश