अघोर-परम्परा का उदगम, सृष्टि के निर्माण से ही है। कहा जाता है कि भगवान शिव इस दुनिया के पहले अघोरी थे। उत्तर-भारत में भगवान शिव को औघड़-दानी कहने का चलन बरसों पुराना है। किसी भी समय-काल में, विधाता की सम्पूर्ण शक्ति को समाहित किये, इस पृथ्वी पर हमेशा एक अघोरी मानव-तन में विचरण करते रहे हैं। हालांकि कई स्वयंभू पत्रकारों ने “अघोरी” को कुकुरमुत्ते की तरह, सैकड़ों की संख्याँ में, जगह-जगह खोज निकाला है। ये और बात है कि, इन पत्रकारों के “अघोरी”, भय-मिश्रित सनसनी के नायक से ज़्यादा और कुछ नहीं।
खैर। अघोर परम्परा की बात करें तो तकरीबन 16वीं शताब्दी तक ये परम्परा सुसुप्तावस्था में रही। मगर इसी शताब्दी के महान संत और अघोर-परम्परा के पुनरागामित-स्वरूप को पुनः प्रज्ज्वलित करने वाले अघोराचार्य बाबा कीनाराम राम जी को (वर्तमान समय में ) इस परम्परा का जनक माना जा सकता है और (वाराणसी स्थित) उनकी तपोभूमि, “बाबा कीनाराम स्थल, क्री-कुण्ड” (जिसका ज़िक्र मैंने अपने पूर्वर्ती लेखों में किया भी है) को इस परम्परा का केंद्र-बिंदु। यही कारण है, कि, अघोर परम्परा के साधक खुद को कीनारामी परम्परा में बताते हैं। बाबा कीनाराम जी को विधाता का ही रूप माना जाता रहा। उनसे जुडी कई अदभुत और औलौकिक कथाएँ, आज भी लोगों की जुबां पर है। उनकी अतुलनीय आध्यात्मिक शक्ति, कईयों के जीवन का आधार बनी तो कई उनके श्राप के भागी बने। कहते हैं, कि, अघोरी का इस सृष्टि पर पूर्ण नियंत्रण होता है लेकिन साथ में असीम करुणा और मानवता का प्रतीक भी होता है। ये लोग प्रसन्न या क्रोध में आकर कुछ बोल देते हैं तो उसका प्रभाव तब तक दिखता है, जब तक वो स्वयं उसका निदान ना कर दें।
18वीं शताब्दी के मध्य में, काशी के तत्कालीन महाराजा चेतसिंह ने, बाबा कीनाराम जी का बुरी तरह अपमान कर दिया था। बाबा ने दुखी होकर भावावेश में आकर कह दिया….”हे अहंकारी राजन, अब तुम्हारा ना राज-पाट बचेगा, ना ही ये किला और ना कोई उत्तराधिकारी, तुम्हारे इस किले पर कबूतर बीट करेंगें।” इतिहास गवाह है, कि, राजा चेतसिंह को वो किला छोड़कर भागना पड़ा और उनका कोई पता नहीं चल पाया। चेतसिंह के (वाराणसी में) शिवाला स्थित किले पर कबूतर आज भी बीट करते हैं। तब से लेकर सन 1960-70 तक काशी-राजघराना, गोद-गोद ले-ले कर ही चलता रहा। कई जगहों पर कोशिश-मन्नतें-प्रार्थना की गयीं, लेकिन सब व्यर्थ।
इसी दरम्यान, विख्यात तत्कालीन काशी-नरेश विभूति नारायण सिंह ने विश्व-विख्यात औघड़ संत बाबा अवधूत भगवान् राम (अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी के गुरू) जी से श्राप-विमोचन की प्रार्थना किया। साथ ही अवधूत भगवान् राम के गुरू, महान अघोरी बाबा राजेश्वर राम जी, से भी प्रार्थना। श्राप की कमी में आंशिक असर तो हुआ, पर पूर्ण रूप से ख़त्म नहीं। स्वयं अवधूत भगवान् राम बाबा ने, काशी नरेश से कहा कि, “11वीं गद्दी पर (अपनी पूर्व-भविष्यवाणी के तहत) वो आयेंगें तो ही पूर्ण श्राप-मुक्ति संभव है, वो भी जब वो 30 साल की अवस्था पार कर लेंगें तब।”
यहाँ पाठकों के लिए ये बता देना ज़रूरी है कि सन 1750-1800 के बीच अपनी समाधि के वक़्त बाबा कीनाराम जी ने स्वयं कहा था, कि, “इस पीठ की 11वीं गद्दी पर मैं बाल-रूप में पुनः आऊंगा तो पूर्ण-जीर्णोद्धार होगा।” 10 फरवरी 1978 को वो दिन भी आया, जब महाराजश्री बाबा कीनाराम जी, 11वें पीठाधीश्वर के रूप में, पुनः बाल रूप (मात्र 9 वर्ष की आयु में) में उपस्थित हुए—- नया नाम—-अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी।
काशी राज-घराना इस सिद्ध पीठ पर उनकी वापसी का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। लेकिन सवाल महाराजश्री के बाल रूप के युवा होने तक का था। यानि महाराजश्री के इस जीवन-काल में, 30 साल की आयु पूरी होने तक। 1999 में महाराजश्री के बाल-रूप ने, 30 वर्ष की आयु का युवा स्वरूप जब हासिल कर लिया तो काशी राज-घराने से जुड़े लोगों ने श्राप-मुक्ति हेतु प्रार्थना-याचना, अनुनय-विनय की प्रक्रिया काफी तेज़ कर दी। ऐसा करते-करते अगस्त 2000 भी आ गया। एक बार फिर, अचानक, 20 अगस्त को राजकुमारी, फल-फूल के साथ एक बार फिर प्रार्थना-याचना करने पहुँची।
अघोराचार्य महाराजश्री ने कहा …. आऊंगा। 30 अगस्त 2000 को वो दिन भी आया, जब बेसब्री के साथ काशी का राज-घराना, पूरी दुनिया में अघोर के आचार्य यानि अघोराचार्य महाराजश्री बाबा कीनाराम जी का इंतज़ार कर रहा था। पूरे महल को सजाया गया था। पूरी दुनिया में अघोर परम्परा के, शिव-स्वरुप, मुखिया का इंतज़ार था। इंतज़ार की घड़ी ख़त्म हुई। हर-हर महादेव का गगन-भेदी उदघोष होने लगा। अपने नए नाम.…अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम, व् रूप में महाराजश्री वहाँ पहुंचे। काशी-नरेश की अगुवाई में, फूलों की वर्षा के साथ अघोराचार्य महाराजश्री का भव्य स्वागत करते हुए उन्हें महल के पूजन-कक्ष में ले जाया गया। पूजा-पाठ के बाद , बाबा ने मिष्ठान ग्रहण कर काशी-राजघराने को श्राप-मुक्त कर दिया। बाबा ने दुखी-जनों की सेवा करने का भाव जगाते हुए, राज-घराने को आशीर्वाद दिया।
ये अदभुत आध्यात्मिक घटना इसी चरम वैज्ञानिक युग की है। आस्था व् विश्वास निजी ख़्यालात हैं, लिहाज़ा मानने-ना मानने का सर्वाधिकार सबके पास सुरक्षित है। ऐसे भी एक कहावत चलन में है——मानो तो भगवान, ना-मानो तो पत्थर।
नीरज…..लीक से हटकर
Rajeev Ranjan Rai
September 16, 2014 at 8:16 am
Raja Chet Singh ka Aitihasik aaklan bhi kar dijiye,badi meharbani hogi
Amit Kumar Pandey
September 16, 2014 at 11:39 am
घोड़े पर हौदा-हाथी पर जीन
चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग.
ये कहावत आज भी बनारस क़ी गलियों में पुराने लोगों के बीच मौजू है। इसके पीछे एक कहानी है। कहते हैं कि आज से लगभग दो सौ तीस साल पहले काशी राज्य क़ी तुलना देश क़ी बड़ी रियासतों में क़ी जाती थी. भौगोलिक दृष्टिकोण से काशी राज्य भारत का ह्रदय प्रदेश था। जिसे देखते हुए उन दिनों ब्रिटिश संसद में यह बात उठाई गई थी कि यदि काशी राज्य ब्रिटिश हुकूमत के हाथ आ जाये तो उनकी अर्थ व्यवस्था तथा व्यापार का काफी विकास होगा.इस विचार विमर्श के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भारत पर अधिकार करने के लियभेजा गया. काशी राज्य पर हुकूमत करने के लिये अग्रेजों ने तत्कालीन काशी नरेश से ढाई सेर चीटीं के सर का तेल या फिर इसके बदले एक मोटी रकम क़ी मांग रखी। अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाने क़ी मंशा को काशी नरेश राजा चेतसिंह ने पहले ही भांप लिया था। अतः उन्होंने रकम तक देने से साफ मना कर दिया लेकिन उन्हें लगा कि अंग्रेज उनके राज्य पर आक्रमण कर सकते हैं, इसी को मद्देनजर रखते हुए काशी नरेश ने मराठा, पेशवा और ग्वालियर जैसी कुछ बड़ी रियासतों से संपर्क कर इस बात कि संधि कर ली थी कि यदि जरुरत पड़ी तो इन फिरंगियों को भारत से खदेड़ने का पूरी कोशिश करेंगे।
तारीख 14 अगस्त 1781, दिन शनिवार, जनरल वारेन हेस्टिंग एक बड़े सैनिक जत्थे के साथ गंगा के जलमार्ग से काशी पहुंचा. उसने कबीरचौरा के ”माधव दास का बाग” को अपना ठिकाना बनाया. कहते हैं कि राजा चेतसिंह के दरबार से निष्काषित औसान सिंह नाम के एक कर्मचारी कलकत्ता जा कर वारेन हेस्टिंग से मिला और उसका विश्वासपात्र बन बैठा, जिसे अंग्रेजों ने “राजा” क़ी उपाधि से भी नवाजा था. उसी के मध्यम से अंग्रेजों ने काशी पहुँचने के बाद काशी नरेश राजाचेत सिंह को गिरफ्तार करने क़ी साजिश रची .
तारीख १५ अगस्त १७८१ दिन रविवार
वारेन हेस्टिंग ने अपने एक अंग्रेज अधिकारी मार्कहम को एक पत्र दे कर राजा चेतसिंह के पास से ढाई किलो चीटी के सर का तेल या फिर उसके बदले एक मोटी रकम लाने को भेजा. उस पत्र में हेस्टिंग ने राजा चेतसिंह पर राजसत्ता के दुरुपयोग और षड्यंत्र का आरोप लगाया । पत्र के उत्तर में राजा साहब ने षड्यंत्र के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट क़ी. उस दिन यानि १५ अगस्त को राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग के बीच दिन भर पत्र व्यवहार चलता रहा
Amit Kumar Pandey
September 18, 2014 at 5:33 am
काशी के इतिहास में राजा चेतसिंह और वारेन हास्टिंग का युद्ध एक अलग ही
जगह रखता है । उस समय वारेन हास्टिंग ने चेतसिंह से अच्छा पैसा कमाना
चाहा था और उसने खुद चेतसिंह से पैसे की मांग की चेतसिंह ने उसकी मांग को
स्वीकार भी कर लिया और घूस के तौर पर वारेन हेस्टिंग को डेढ़ लाख रुपए भी
दिये और ईस्ट इंडिया कंपनी को २० लाख रुपए बतौर उधार भी दिए, लेकिन
हेस्टिंग ने ५० लाख रुपए की मांग की जो चेतसिंह नहीं दे सके , उस वक्त
चेतसिंह शिवाला के अपने इसी किले में रहते थे । वहीं पर वारेन ने अचानक
राजा चेतसिंह को नजरबंद करवा दिया । वारेन ने चेतसिंह के खिलाफ ये फैसला
बिलकुल अचानक लिया था । जिसका शायद किसी को अंदाजा भी नहीं था ।वह 16
अगस्त, 1781 का दिन था। अचानक पूरी काशी नगरी में बिजली की भांति यह खबर
फैल गई कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसर वारेन हेस्टिंग्स ने काशी
नरेश महाराज चेत सिंह को उनके शिवाला वाले राजमहल में बंदी बना लिया गया
है। इसके बाद फिरगियों और काशीवासियों में घमासान युद्ध हुआ और इस लड़ाई
में ईस्ट इंडिया कंपनी की हार हुई ।
अपनी सेना की बुरी हालत देख कर मेजर पापहम तुरंत किसी तरह अपनी दूसरी
सेना को लेकर वंहा पहुचे /जब तक दोनों डालो के बीच किले के बाहर युद्ध
होता रहा /चेतसिंह किले की एक खिड़की से नावों को जोड़कर नदी में कूद गए
इसी वजह से इस जगह को खिड़की घाट या चेतसिंह घाट कहा जाता है । वहीं
काशीवासी प्रलयंकर भगवान विश्वेश्वर विश्वनाथ के ऐसे भक्त थे जो गोमांस
भक्षक अंग्रेजों को सबक सिखाना जानते थे। हजारों काशीवासियों ने जो भी
हथियार हाथ लगा वह लेकर वारेन हेस्टिंग्स और उसकी सेना की घेराबंदी कर
ली। अंग्रेज असावधान थे और घमण्ड में चूर थे। काशी की जनता ने लगातार 4
दिन तक अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, जिसमें सैकड़ों अंग्रेज काट डाले
गए। हेस्टिंग्स के होश उड़ गए और उसे अपनी जान के लाले पड़ गए। तब उसने
कोट-पैण्ट-टोप दूर फेंककर स्त्री वेश पहना और जनानी सवारी की तरह एक
पर्देदार पालकी में जा बैठा। उस पालकी को ढोने वालों को कहा गया कि “बीबी
जी देवी-दर्शन के लिए विंध्याचल देवी जा रही हैं।” इस तरह छलपूर्वक जनाने
वेश में हेस्टिंग्स चुनार आया और वहां से पुन: जल मार्ग से ही कलकत्ता
कूच कर गया। चेतसिंह काशी के जन-बल सहित अंग्रेजों पर भारी पड़े और जनता
ने ही उन्हें शिवाला के महल से मुक्त कराया। तभी से उस ऐतिहासिक विजय की
स्मृति में काशीवासी ये पंक्तियां कहने लगे-
“घोड़े पर होदा, हाथी पर जीन,
काशी से भागा, वारेन हेस्टीन।।”
मतलब भयभीत वारेन हेस्टिंग्स को काशी से भागते समय ऐसी घबराहट हुई कि
हाथी का हौदा उसने रखवाया घोड़े पर और घोड़े की जीन कसवाई हाथी पर और
काशी से भाग निकला।
CRIMES WARRIOR
March 17, 2016 at 4:23 pm
नीरज जी,
एक लंबे अरसे बाद भड़ास पर इस संगति का लेख पढ़ने को मिला।
शुरुआत की और….. नीरज…..लीक से हटकर….. तक पढ़ता गया।
सच पूछिये तो कोई इंसान इस लेख को लिखने की सामर्थ्य नहीं
रखता…यह मेरा मानना है, जरुरी नहीं मेरे मत से आप या जमाना
सहमत हो। बस ज्यादा लिखने से बेहतर इतना ही कहूंगा कि
जिस भी दैवीये शक्ति ने आपसे यह लेख लिखवाया उस ताकत
और भड़ास परिवार को इस लेख के लिए शत्-शत् सादर नमन…..
Shakti Bareth
August 9, 2017 at 6:34 am
अघोरत्व का अनादर – मानवीय रूप में ईश्वरीय क्रोध की पराकाष्ठा |
नीरज जी , बहुत बेहतरीन तरीके से आपने इसे लिखा है , पढ़ते पढ़ते ऐसे लगा जैसे में उस काल खंड में जी रहा हूँ |
जब लेखनी आपको किसी काल की यात्रा करवा दे तो समझो लिखने वाले की रूह , उसकी आत्मा में इश्वर का निवास है 🙂
बहुत बहुत आभार