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‘तहलका’ में पेशेवर आंदोलनकारियों पर निशाना, पढ़िए कविता कृष्णन की दास्तान

‘तहलका’ मैग्जीन के नए अंक में पेशेवर आंदोलनकारियों के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली गई है. अपने सहकर्मी के यौन उत्पीड़न में जेल गए तरुण तेजपाल की इस मैग्जीन ‘तहलका’ का ध्यान अचानक आंदोलनकारियों के खिलाफ क्यों चला गया, इसे समझने के लिए बहुत ज्यादा समझ लगाने की जरूरत नहीं है. पर इस आवरण कथा में कुछ ऐसे पेशेवर आंदोलनकारियों के बारे में भी खुलासा किया गया है जो सिर्फ टीवी पर दिखने और लोगों का ध्यान खींचने के लिए बिना जाने समझे मुद्दों को उठाते और उस पर बोलते रहते हैं. ऐसे में लोगों में एक महिला आंदोलनकारी कविता कृष्णन भी हैं. इनकी पूरी दास्तान ‘तहलका’ मैग्जीन में प्रकाशित हुई है. ‘तहलका’ में प्रकाशित और अतुल चौरसिया और विकास कुमार द्वारा लिखित आवरणकथा ‘पेशेवर आंदोलनकारी’ में सब हेडिंग है- ”ऐसे लोग जिनका काम ही आंदोलन के मौके तलाशते रहना है.” लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या आंदोलन के मौके खोजना गुनाह है? ये तो एक अच्छे और सजग समाज का संकेत है जहां लोग किसी भी बुराई के खिलाफ उठ खड़े होने को तत्पर हैं. पर तहलका के लोगों का कहना है कि इस कवर स्टोरी में उन अवसरवादी आंदोलनकारियों का खुलासा किया गया है जो समाज के फायदे के लिए नहीं बल्कि निजी टीआरपी के लिए आधा-अधूरा आंदोलन चलाने पर आमादा रहते हैं. ‘तहलका’ आवरणकथा नीचे है. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया

<p>'तहलका' मैग्जीन के नए अंक में पेशेवर आंदोलनकारियों के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली गई है. अपने सहकर्मी के यौन उत्पीड़न में जेल गए तरुण तेजपाल की इस मैग्जीन 'तहलका' का ध्यान अचानक आंदोलनकारियों के खिलाफ क्यों चला गया, इसे समझने के लिए बहुत ज्यादा समझ लगाने की जरूरत नहीं है. पर इस आवरण कथा में कुछ ऐसे पेशेवर आंदोलनकारियों के बारे में भी खुलासा किया गया है जो सिर्फ टीवी पर दिखने और लोगों का ध्यान खींचने के लिए बिना जाने समझे मुद्दों को उठाते और उस पर बोलते रहते हैं. ऐसे में लोगों में एक महिला आंदोलनकारी कविता कृष्णन भी हैं. इनकी पूरी दास्तान 'तहलका' मैग्जीन में प्रकाशित हुई है. 'तहलका' में प्रकाशित और अतुल चौरसिया और विकास कुमार द्वारा लिखित आवरणकथा 'पेशेवर आंदोलनकारी' में सब हेडिंग है- ''ऐसे लोग जिनका काम ही आंदोलन के मौके तलाशते रहना है.'' लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या आंदोलन के मौके खोजना गुनाह है? ये तो एक अच्छे और सजग समाज का संकेत है जहां लोग किसी भी बुराई के खिलाफ उठ खड़े होने को तत्पर हैं. पर तहलका के लोगों का कहना है कि इस कवर स्टोरी में उन अवसरवादी आंदोलनकारियों का खुलासा किया गया है जो समाज के फायदे के लिए नहीं बल्कि निजी टीआरपी के लिए आधा-अधूरा आंदोलन चलाने पर आमादा रहते हैं. 'तहलका' आवरणकथा नीचे है. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया</p>

‘तहलका’ मैग्जीन के नए अंक में पेशेवर आंदोलनकारियों के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली गई है. अपने सहकर्मी के यौन उत्पीड़न में जेल गए तरुण तेजपाल की इस मैग्जीन ‘तहलका’ का ध्यान अचानक आंदोलनकारियों के खिलाफ क्यों चला गया, इसे समझने के लिए बहुत ज्यादा समझ लगाने की जरूरत नहीं है. पर इस आवरण कथा में कुछ ऐसे पेशेवर आंदोलनकारियों के बारे में भी खुलासा किया गया है जो सिर्फ टीवी पर दिखने और लोगों का ध्यान खींचने के लिए बिना जाने समझे मुद्दों को उठाते और उस पर बोलते रहते हैं. ऐसे में लोगों में एक महिला आंदोलनकारी कविता कृष्णन भी हैं. इनकी पूरी दास्तान ‘तहलका’ मैग्जीन में प्रकाशित हुई है. ‘तहलका’ में प्रकाशित और अतुल चौरसिया और विकास कुमार द्वारा लिखित आवरणकथा ‘पेशेवर आंदोलनकारी’ में सब हेडिंग है- ”ऐसे लोग जिनका काम ही आंदोलन के मौके तलाशते रहना है.” लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या आंदोलन के मौके खोजना गुनाह है? ये तो एक अच्छे और सजग समाज का संकेत है जहां लोग किसी भी बुराई के खिलाफ उठ खड़े होने को तत्पर हैं. पर तहलका के लोगों का कहना है कि इस कवर स्टोरी में उन अवसरवादी आंदोलनकारियों का खुलासा किया गया है जो समाज के फायदे के लिए नहीं बल्कि निजी टीआरपी के लिए आधा-अधूरा आंदोलन चलाने पर आमादा रहते हैं. ‘तहलका’ आवरणकथा नीचे है. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया

पेशेवर आंदोलनकारी

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ऐसे लोग जिनका काम ही आंदोलन के मौके तलाशते रहना है

अतुल चौरसिया

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लबों पर नारे की जगह ‘ओ री चिरैय्या’ टाइप गाने और हाथों में मशाल की जगह मोमबत्ती और गिटार, दिल्ली की सड़कों पर दिखनेवाली यह आंदोलनकारियों की नई जमात है. बीते एक दशक में दिल्ली की सड़कों पर कार, भीड़, पिज्जा हट, मारपीट और बलात्कार के साथ ही नए तेवर वाले आंदोलन भी बहुत तेजी से बढ़े है. आंदोलनों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन इनमें स्वत:स्फूर्तता कम होती गई है. इनमें पेशेवर चेहरे बढ़ गए हैं. नून-तेल से लेकर गाजा-इजराइल तक पर प्रदर्शन करनेवाले कुछ गिने-चुने चेहरे हर आंदोलन में आसानी से पहचाने जा सकते हैं. आंदोलन पेशेवर तरीके से आयोजित होने लगे हैं लेकिन इनका किसी नतीजे तक पहुंचना जरूरी नहीं है.

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है- दिल्ली शहर के एक मशहूर वकील की एक गैर सरकारी संस्था में बाकायदा एक ऐसा पद है जिसका काम होता है दिनभर की घटनाओं को सूचीबद्ध करना और उनमें से ऐसे मुद्दों को छांटना जिन पर जंतर-मंतर या चाणक्यपुरी के किसी भवन अथवा दूतावास पर प्रदर्शन किया जा सके. इसके बाद संस्था का पूरा अमला फेसबुक से लेकर तमाम सोशल मीडिया और आंदोलनकारी संप्रदाय के बीच सक्रिय हो जाता है. जेएनयू, डीयू और जामिया मिलिया इस्लामिया इनके लिए कच्चे माल यानी भीड़ की आपूर्ति के सबसे बड़े हब हैं. नियत दिन-तारीख-स्थान पर आंदोलनकारीमय गाजा-बाजा-गिटार-गायक पहुंचते हैं. गाने-बजाने के साथ ही नारेबाजी और देश बदलने की ललकारें उठती हैं. कभी-कभार पुलिस बैरीकेडों पर चढ़ने की घटनाएं और पानी का हमला भी होता है. इन समस्त प्रक्रियाओं से होते हुए आंदोलन संपन्न हो जाता है. इस बात की ज्यादा परवाह किए बिना कि मुद्दे पर कोई प्रगति हुई है या नहीं. जाहिर है इनके पास हर दिन के हिसाब से दर्जनों ऐसे मामले आते हैं जिनमें प्रदर्शन का पोटेंशियल होता है. नतीजा, पिछले मुद्दे अपनी मौत मरने को पीछे छूट जाते हैं.

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संख्या बढ़ने और उनके निरर्थक होते जाने तक आंदोलनों ने एक लंबी दूरी तय की है. थोड़ा गहराई में घुसने पर आंदोलनों के भीतर जबर्दस्त अवसरवाद, वास्तविक संगठनों और आंदोलनकारियों की कमी और लेफ्ट-राइट व सेंटर के बीच के अंतरविरोध सामने आते हैं. कहीं-कहीं पर ये आपस में इतना उलझे हुए हैं कि इनसे कोई साफ तस्वीर बना पाना बेहद मुश्किल है. वामपंथी आंदोलनों से जुड़े रहे अभिषेक श्रीवास्तव एक ऐसी घटना का जिक्र करते हैं जिससे आंदोलनों के अजीबोगरीब चरित्र और इनके बेमायने होते जाने का एक सूत्र पकड़ा जा सकता, है, ‘जैसे इन दिनों गाजा पर हमलों के खिलाफ इजराइल का विरोध हो रहा है ऐसा ही एक विरोध सालभर पहले इजराइली दूतावास पर आयोजित हुआ था. इस प्रदर्शन की आयोजक आंदोलनों की ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कही जानेवाली एक मशहूर नारीवादी समाजसेवी थीं. अचानक भीड़ से एक युवक खड़ा हुआ और उसने ललकारा, ‘इजराइल मुर्दाबाद’. यह सुनते ही उन महिला समाजसेवी की भृकुटियां तन गईं. उन्होंने तुरंत उस लड़के को चुप करा दिया.’ इसके बाद उन्होंने इजराइल विरोधी प्रदर्शन स्थगित कर सारे झंडा-बैनर समेट लिए. हालांकि उस लड़के के व्यवहार में कुछ भी गलत नहीं था. प्रदर्शन में जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगना आम बात है.’

यही स्थिति इन दिनों होनेवाले लगभग सभी आंदोलनों की बन रही है. क्यों आंदोलन शुरू हो रहे हैं या खत्म हो रहे हैं, साफ-साफ अंदाजा लगा पाना बेहद मुश्किल है. नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे वरिष्ठ आंदोलनकारी असित दास इसकी बड़ी वजह पर रोशनी डालते हैं, ‘आंदोलनों का एनजीओकरण हो गया है. एनजीओ किसी भी आंदोलन को प्रोजेक्ट की तरह लेते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि आंदोलनों का राजनैतिक और जनवादी पक्ष पूरी तरह से नजरअंदाज हो जाता है. इसके अलावा इधर बड़ी संख्या में आंदोलनकारियों ने सत्ता वर्ग के साथ दबे-छुपे हाथ मिला लिया है.’ दास का इशारा बीते एक दशक के दौरान संगठनों और सरकारों के बीच पनपे प्रेम प्रसंग की तरफ है.

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सरकार के साथ गलबहियां और आंदोलनों का एनजीओकरण दोनों आपस में जुड़ी हुई चीजें हैं. वर्तमान में जो स्वरूप हम आंदोलनों का देख रहे हैं उसके पीछे इन दोनों चीजों की महत्वपूर्ण भूमिका है. इसे समझने के लिए लगभग एक दशक पीछे लौटना होगा. जून 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की स्थापना के साथ पहली बार देश के सामने एक विचित्र स्थिति पैदा हुई. जो लोग किसी न किसी आंदोलन या सरकार विरोधी खेमे का हिस्सा हुआ करते थे उनका एक बड़ा हिस्सा एकाएक सरकार के पाले में जा खड़ा हुआ. इस सूची में अरुणा रॉय, हर्ष मंदर, योगेंद्र यादव, दीप जोशी, फराह नकवी जैसे तमाम नाम शामिल थे. इसका असर दो रूपों में हुआ. आंदोलनों के क्षेत्र में एक बड़ा खालीपन पैदा हो गया और सरकार के हाथ एक तर्क यह लग गया कि जब सारे फैसले आंदोलनकारी ही कर रहे है तब बाहर से किसी तरह के आंदोलन की गुंजाइश ही कहां बचती है. इससे उन आंदोलनकारियों को भारी झटका लगा जो स्वतंत्र रूप से आंदोलनों के हामी थे. स्थितियां और भी खराब इसलिए हो गईं क्योंकि जनवादी आंदोलनों का बड़ा हिस्सा रहा वामपंथ भी तब की केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन देकर एक प्रकार से उससे जुड़ा हुआ ही था, दूसरा राजनैतिक रूप से वह लगातार सिमटता भी जा रहा था. अगर पिछले दस सालों का इतिहास उठाकर देखें तो वामपंथी दलों ने दिल्ली में एक भी बड़े आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया है. इनकी भूमिका पेट्रोल-डीजल की कीमतों और महंगाई के खिलाफ खानापूर्ती करनेवाले ‘भारत बंद’ जैसे आंदोलनों तक सिमट कर रह गई है.

इस खालीपन को बला की तेजी से एनजीओ वालों ने भरा. एक बार जब आंदोलनों के ज्यादातर स्पेस पर एनजीओ का कब्जा हो गया तो उनका चेहरा बड़ी तेजी से संघर्ष और राजनैतिक चेतना का चोला छोड़कर ‘प्रोजेक्ट’ केंद्रित हो गया. इस हालत की तुलना आप उस दृश्य से कीजिए जब साठ के दशक के उत्तरार्ध में लेफ्ट के एक बुलावे पर वियतनाम युद्ध के विरोध में छह लाख लोग कोलकाता की सड़कों पर उमड़ पड़े थे, वह भी बिना किसी पूर्वयोजना या पेशेवर संगठन के. दास के शब्दों में, ‘एनजीओ के रहते इस तरह के व्यापक जन आंदोलन संभव नहीं हंै क्योंकि उनके हाथ पैर तमाम जगहों पर फंसे होते हैं.’ आंदोलनों में एनजीओ का प्रभाव बढ़ने का एक असर यह भी हुआ कि जो लोग पहले सिर्फ सकारात्मक बदलावों और मांगों के लिए अच्छी नीयत से आंदोलनों का हिस्सा हुआ करते थे उनमें से भी कइयों ने अपने-अपने एनजीओ खड़े कर लिए. जानकारों की मानें तो बचे हुए जाने-पहचाने आंदोलनकारियों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने आज विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के साथ हाथ मिला लिए हैं. एनजीओ इनको एक नियत मासिक शुल्क देते हैं, बदले में ये आंदोलनकारी इन संस्थाओं के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने और उनके अभियानों को विश्वसनीयता प्रदान करने का काम करते हैं.

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लगभग चार महीने पहले हरियाणा के भगाणा से आई कुछ बलात्कार पीड़िताओं के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन आयोजित  किया गया था. यह आंदोलन गैर सरकारी संस्थाओं और आंदोलनकारियों की आपसी खींचतान और अवसरवादिता का बेजोड़ नमूना है. भगाणा का मसला दलितों की जमीनों पर कब्जे से जुड़ा था. हरियाणा में  लगातार हो रहे उनके उत्पीड़न से जुड़ा था. इस वजह से भगाणा के सौ से ज्यादा दलित एक साल से बेघरबार हैं. लेकिन दिल्ली में ज्यादा हल्ला तब ही हुआ जब सवर्णों ने कथित तौर पर गांव की चार दलित लड़कियों को अगवा करके उनके साथ बलात्कार किया और बलात्कार की पीड़िताएं दिल्ली आ गईं. इसके बाद भी विरोध प्रदर्शन के केंद्र में महिलाओं की आजादी, उनके अधिकार, उनका सम्मान, मर्दवादी मानसिकता का विरोध जैसी फैशनेबुल क्रांतिकारिता ही रही. ऐसा नहीं है कि महिला अधिकार से जुड़े ये मुद्दे जरूरी नहीं है लेकिन दूसरे जरूरी मुद्दों को एनजीओ वालों ने कभी नहीं छुआ. आज की स्थिति यह है कि भगाणा की पीड़िताएं और ग्रामीण अभी न्याय के इंतजार में जंतर-मंतर पर ही बैठे हुए हैं लेकिन उनके साथ जुड़े सारे आंदोलनकारी लापता हो चुके हैं. इनमें जेएनयू के तमाम छात्र संगठन भी शामिल हैं(देखें बॉक्स).

कई मुद्दों को न छूनेवाली गैर सरकारी संगठनों की मजबूर भूमिका के पीछे विदेशी सहायता नियंत्रण अधिनयम (एफसीआरए-2010) को भी ध्यान में रखना होगा. 1976 के कानून को बदलते हुए इस कानून में दो चीजें की गईं, एक तो एनजीओ के लिए विदेशी सहायता प्राप्त करना आसान हो गया दूसरा, इनकी गतिविधियों के आधार पर कभी भी इनकी सहायता रोकने से लेकर मान्यता निरस्त करने तक के अधिकार सरकार के हाथ में और मजबूत कर दिए गए. आज ज्यादातर एनजीओ इस चंगुल में फंस चुके हैं. गैर सरकारी संगठनों के सबसे बड़े समूह एनएपीएम यानी नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट के अधिकतर सदस्य आज एफसीआरए के तहत सहायता प्राप्त हैं.

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आज के आंदोलनकारियों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. एक हिस्सा उन आंदोलनकारियों का है जो मूलत: वर्चुअल दुनिया में सैर करता है, दूसरा हिस्सा उनका है जो सड़कों पर उतरकर हल्ला बोलते हैं. पहले वाले समूह को मजाक में फेसबुकिया क्रांतिकारी कहने का चलन भी है. ये वे लोग हैं जो एक्चुअल स्पॉट यानी जंतर-मंतर या भवन-एंबेसियों पर कम ही जाते हैं. ये आरामप्रिय आंदोलनकारियों का समूह है जो अपने घरों के ड्राइंग रूम में बैठकर क्रांति की अलख जगाने का दम भरता है. हालांकि इसकी अपनी उपयोगिता है. ये टेक-सेवी लोग हैं जो सोशल मीडिया पर इवेंट पेज बनाने से लेकर प्रेस रिलीज तैयार करने, फेसबुक और ट्विटर पर बहस बढ़ाने और फिर उसे ट्रेंड कराने का काम करते हैं. इनमें सुयश सुप्रभ, मोहम्मद अनस, महताब आलम जैसे अनगिनत नाम लिए जा सकते हैं. मौजूदा दौर के आंदोलनों में इन उपायों की भूमिका काफी बढ़ गई है. हालांकि इनके दुष्प्रभाव भी कई बार देखने को मिले हैं. हमारे देश में सोशल मीडिया इतना अपरिपक्व और फैसला-प्रेमी है कि कई बार हालात उस मुहाने पर जा खड़े होते हैं जहां हालात बेकाबू हो जाते हैं.

12 सितंबर को अमन एकता मंच के तले चाणक्यपुरी स्थित उत्तर प्रदेश भवन के सामने मुजफ्फरनगर के दंगों का विरोध करने के लिए कुछ लोग इकट्ठा हुए थे. अमन एकता मंच में खुर्शीद अनवर, अपूर्वानंद, महताब आलम समेत तमाम सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे. इनके साथ ही विरोध में एक गैर पंजीकृत समाजसेवी संस्था ‘बूंद’ के कुछ सदस्यों ने भी हिस्सा लिया था. इला जोशी और मयंक सक्सेना इस संस्था के प्रमुख चेहरे हैं. इस संस्था पर बाद में उत्तराखंड में राहत कार्यों में आर्थिक घपले का भी आरोप लगा. इसी टीम की एक महिला सदस्य ने खुर्शीद अनवर के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया. लेकिन वे अपने इन आरोपों को लेकर कभी पुलिस के पास नहीं गए. बल्कि इस मामले को लेकर वे दो मशहूर नारीवादियों के पास पहुंच गए. इनमें से एक थीं मधु किश्वर और दूसरी कविता कृष्णन. इस मामले में इन दोनों नारीवादियों की भूमिका बहुत ही विचित्र रही. टीवी पर हर किस्म का ज्ञान देनेवाली इन दोनों नारीवादियों ने भी मामले को पुलिस के संज्ञान में ले जाने की जरूरत नहीं समझी. इसके स्थान पर मधु किश्वर ने पीड़िता लड़की का एक वीडियो तैयार करवाया – जिसमें वह अपने कथित बलात्कार के बारे में बता रही थी – और उसे लड़की के कुछ अनुभवहीन युवा साथियों के हवाले कर दिया. इसके सहारे लड़की के साथियों ने फेसबुक पर खुर्शीद के खिलाफ हल्ला बोल दिया. इसमें ‘फेसबुकिया क्रांतिकारियों’ ने जमकर उनका साथ दिया. इसके बाद खुर्शीद स्वयं इस मामले में अपने खिलाफ चल रहे अभियान के खिलाफ पुलिस के पास गए लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी.

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उधर कविता कृष्णन ने खुर्शीद की संस्था आईएसडी को पत्र लिखकर इस मामले में कार्रवाई करने की मांग की और टीवी पर भी इस मुद्दे पर खुर्शीद अनवर के खिलाफ बयानबाजी की. इसका नतीजा यह हुआ कि दबाव में घिरे खुर्शीद अनवर ने अपने घर की चौथी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. इस घटना के बाद कविता का कहना था कि चूंकि लड़की ने सीधे उनसे शिकायत नहीं की थी इसलिए उन्होंने इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की. लेकिन दुनिया ने देखा कि वे इंडिया टीवी पर बड़े मजबूत तरीके से खुर्शीद अनवर के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थीं. जेएनयू के एक पूर्व आइसा कार्यकर्ता, कविता की मीडिया में दिखने की भूख को इसकी वजह बताते हैं.

कविता कृष्णन का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है. 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया कांड के साथ ही उन्होंने अपना फोकल प्वाइंट छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के मुद्दों से हटाकर दिल्ली की महिलाओं पर शिफ्ट कर दिया. देखते ही देखते वे महिला अधिकारों की बड़ी पैरोकार के रूप में स्थापित हो गईं. बाद में तरुण तेजपाल के मामले में भी कविता कृष्णन ने काफी आक्रामक आंदोलन चलाया. आजकल महिलाओं पर अत्याचार के हर मुद्दे पर बोलते हुए उन्हें टीवी पर देखा जा सकता है.  उन्हीं कविता कृष्णन का एक और चेहरा भी है. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष अकबर चौधरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी सरफराज हामिद के ऊपर जेएनयू की एक छात्रा के यौन उत्पीड़न का आरोप है. ये दोनों लोग भी कविता के ही वामपंथी कुनबे के सदस्य हैं. लेकिन इसपर नारीवादी कविता कृष्णन का बयान था कि चूंकि आरोप लगानेवाली लड़की दूसरे ग्रुप की है इसलिए उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है.

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कविता यहीं नहीं रुकी, ट्वीट दर ट्वीट आरोपी छात्रनेताओं के बचाव में वे तरह-तरह की दलीलें देती रहीं और पीड़िता लड़की की पहचान तक सार्वजनिक करने से नहीं चूकीं.  वे शायद नए दौर की नारीवादी हैं जो महिलाओं की लड़ाई लड़ती हैं और एक पीड़िता की पहचान सिर्फ इस आधार पर सार्वजनिक करने से नहीं चूकतीं क्योंकि इस बार आरोपित उनके अपने वामपंथी कुनबे के सदस्य थे. यहां तक कि दोनों आरोपितों ने 28 जुलाई को जेएनयू कैंपस में एक पैम्फलेट अभियान तक चलाया जिसमें लिखा था कि यदि जीएसकैश (जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्शुअल हरेसमेंट) ने जांच शुरू की तो दोनों नेता अपने पदों से इस्तीफा दे देंगे. शिकायत को सार्वजनिक करने के आरोप में जीएसकैश ने दोनों पदाधिकारियों को नोटिस जारी किया. जीएसकैश के नियम कहते हैं कि एक बार मामला दर्ज हो जाने के बाद शिकायतकर्ता और आरोपित इसके बारे में सार्वजनिक बात नहीं कर सकते. लेकिन दोनों ने ऐसा ही किया. इस पूरे मसले पर उनकी पार्टी जिसका प्रमुख चेहरा कविता कृष्णन हैं, ने पहले तो चुप्पी साध ली बाद में पीड़िता के प्रति वही सारे अनर्गल तर्क दोहराती दिखी जो आम तौर पर इस तरह के मामले में दूसरे आरोपी देते हैं.

आंदोलनकारियों की नीयत और उनके विरोधाभासों का एक और नमूना हाल ही के दिनों में देखने को मिला. आजकल दिल्ली के जंतर-मंतर और इजराइल के दूतावास पर गाजा में हो रहे हमलों का आए दिन विरोध हो रहा है. आंदोलनों के लिए मानव संसाधन की आपूर्ति करने वाले जेएनयू के तमाम छात्र संगठनों का इस दौरान बेहद विद्रूप चेहरा सामने आया. आयोजकों ने प्रदर्शन को किसी पार्टी, संगठन या समूह की पहचान से दूर रखने के लिए इसमें किसी को भी झंडा-बैनर लाने से मना कर दिया था. इस एक रुकावट की बुनियाद पर आइसा, एसएफआई समेत जेएनयू के तमाम आंदोलनकारी संगठनों का इंसानियत के पक्ष में खड़ा होने का दावा डोल गया. सबने एक सुर में इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. आइसा के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता जो फिलहाल मोहभंग की स्थिति में हैं कहते हैं, ‘इनका सारा लक्ष्य मीडिया कवरेज बटोरने और बाइट देने पर केंद्रित होता है. भाकपा (माले) की शाखा (आइसा) झंडा-बैनर के साथ अपनी उपस्थिति के लिए कुख्यात हैं.’

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कविता या आइसा ही इस बीमारी से ग्रसित नहीं है बल्कि पूरे वामपंथी समुदाय का रुख कुछ-कुछ ऐसा ही है. एक ही तरह के मामलों में दो अलग-अलग तर्क ढूंढ़ लेने की कला राजनीतिज्ञों से फिसल कर मानवाधिकारियों और आंदोलकारियों के हाथों में भी आ गई है. कुछ दिन पहले ही वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर कृष्णमोहन और उनकी पत्नी किरण सिंह के बीच हुई मारपीट का मामला बेहद मौजूं है. दोनों ही पूर्व आइसा कार्यकर्ता रहे हैं. किसी विवाद पर कृष्णमोहन अपनी पत्नी की पिटाई करने की हद तक उतर गए. यह बीएचयू कैंपस की घटना है. पंद्रह मिनट के वीडियो में कृष्णमोहन और उनका बेटा बेरहमी से किरण सिंह को पीटते हुए दिखाई देते हैं. इतने स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद तथाकथित उदारपंथी-वामपंथी-नारीवादी तबका या तो चुप रहा या फिर इस हिंसा को उचित ठहराने के यत्न करता रहा. यह वही समुदाय है जो हर वक्त-बेवक्त महिला अधिकारों की बात करता है, पितृसत्ता का विरोध करता है और मर्दवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का दम भरता है. इसका बचाव करने वालों में उदीयमान साहित्यकार चंदन पांडेय भी हैं जिन्होंने अपने ब्लॉग पर बाकायदा इस पिटाई प्रकरण की आवश्यकता पर अपना ज्ञान रखा है. कृष्णमोहन के बचाव के तर्क में चंदन पांडेय पतित मीडिया, मंदबुद्धिजीवी मीडिया, लोमड़ी मीडिया जैसे विशेषण तो गढ़ते हैं लेकिन एक महिला के साथ हुई हिंसा के औचित्य पर एक भी तर्क नहीं दे पाते. बीएचयू के पुराने जानकारों की मानें तो चंदन पांडेय ऐसा करके अपना गुरु-ऋण उतार रहे थे.

ऐसा भी नहीं है कि इस मुद्दे पर आवाज उठाने की कोशिश नहीं हुई. युवा लेखकों और फेसबुक संप्रदाय ने कई बार इस पर बहस छेड़ने की कोशिश की लेकिन जिन हिस्सों से इस पर ठोस आवाजें और समर्थन की लहर उठनी चाहिए थी वहां कोई हलचल ही नहीं हुई. इस चुप्पी की एक बड़ी वजह यह उभरकर आती है कि बुद्धिजीवी तबके के एक बड़े हिस्से की निजी जिंदगी भी इसी किस्म की उठापटक और विरोधाभासों से ठसाठस है. लिहाजा कीचड़ में पत्थर उछालने पर खुद के ऊपर आने वाली छींटों के भय से भी चारों तरफ शांति पसरी हुई है.

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इन घटनाओं से यही साबित होता है कि ज्यादातर आंदोलनकारियों का सारा विरोध बेहद चुनिंदा और निजी हित-लाभ के इर्द गिर्द बुना जाता है. आंदोलन के चयन की प्रक्रिया कई मानकों से तय होती है. मसलन मुद्दा क्या है, आंदोलन का सेलेब्रिटी स्तर क्या है, दिल्ली बेस है या दिल्ली से बाहर है, मीडिया कवरेज की क्या संभावना है, इंटरनेट, यूट्यूब लाइव, गूगल हैंगआउट होना है या नहीं आदि आदि. मीडिया कवरेज से जुड़ा एक वाकया देना यहां लाजिमी होगा. भगाणा की पीड़िताओं को लेकर दिल्ली आने में पूर्व बसपा नेता वेदपाल तंवर की भूमिका महत्वपूर्ण थी. जंतर-मंतर पर पहुंचकर भगाणा के सारे लोग आपस में जिम्मेदारियों का बंटवारा कर रहे थे. इस दौरान मीडिया से जुड़ी जिम्मेदारियों के बंटवारे की बात आई तो लोगों ने अपने बीच की ही एक महिला का नाम इसके लिए तय कर दिया. इस बात पर वहां तंवर और अन्य आंदोलनकारियों में जबर्दस्त कहा-सुनी हो गई. वे स्वयं मीडिया से रूबरू होना चाहते थे.

अपनी पड़ताल के दौरान तहलका ऐसे तमाम लोगों से भी मिला जो अमूमन हर आंदोलन में ईमानदारी से शिरकत करते हैं और अंत में खुद को छला हुआ महसूस करते हैं. ये कोई पेशेवर या राजनैतिक रूप से तीक्ष्णबुद्धिवाला तबका नहीं है न ही इनकी कोई लंबी-चौड़ी महत्वाकांक्षाएं होती हैं. चीजों को बाहर-बाहर से देख कर ये लोग उसके बारे में अपनी राय बना लेते हैं और अपनी भलमनसाहत की वजह से आंदोलनों का हिस्सा बन जाते हैं.

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इस संदर्भ में यहां दो घटनाओं का जिक्र करना बहुत जरूरी है. पहला मामला जामिया से पीएचडी कर रहे छात्र प्रदीप कुमार का है. दिल्ली में हो रहे भगाणा की पीड़िताओं के समर्थन में जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन आहूत था. प्रदीप जामिया से लगभग 100 लोगों का दल लेकर आंदोलन में शिरकत करने पहुंचे. उन्हें इस बात की जानकारी फेसबुक से मिली थी. वहां पहुंचकर उन्हें पता चला कि ज्यादातर आयोजनकर्ता-आंदोलनकारी मीडिया को बाइट देने और सेल्फी खींचने-खिंचाने के बाद निकल लिए हैं. सिर्फ पीड़िताएं और गांववाले वहां रह गए थे. प्रदीप अपने सौ लोगों की भीड़ के साथ काफी देर वहां भटकते रहे और अंतत: वापस चले आए.

दूसरा मामला दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए कर रहे अविनाश पांडेय का है. अविनाश की कहानी और भी ज्यादा दिलचस्प है. अविनाश नई दिल्ली के आस-पास आंदोलन सर्किल का जाना-पहचाना चेहरा हैं. वे युवाओं की उस टोली का प्रतिनिधि चेहरा हंै जिनके जोश का फायदा उठाते हुए एनजीओ और दूसरे संगठन अपना धरना-प्रदर्शन सफल बनाते हैं. समय बीतने के साथ ही इनको महसूस होने लगता है कि उनका इस्तेमाल किया जा रहा है. पहले ये निराश होते हैं फिर आयोजकों से कुछ सवाल करते हैं. इन सवालों के जवाब देने की बजाय पेशेवर आयोजक और नेता – जिन्होंने चिरौरी कर-करके इन्हें अपने आंदोलनों से जोड़ा था- इनसे किनारा करने लगते हैं. अविनाश की कहानी के जरिए पेशेवर क्रांतिकारिता की कई परतें खुद-ब-खुद उधड़ जाती हैं.

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अविनाश 2011 में दिल्ली आए. बकौल अविनाश अब तक वे सौ से ज्यादा विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले चुके हैं. इस दौरान उन्होंने पुलिस की लाठियां भी खाईं, एकाध बार वे घायल भी हुए. उन्हें असल चोट तब लगी जब दिल्ली में होनेवाले इन कथित आंदोलनों की सच्चाई से उनका सामना हुआ. अविनाश के मुताबिक सबसे पहले वे अन्ना आंदोलन में गए. वहां कुछ लोग उनके साथी बने और फिर आए दिन वे किसी न किसी मुद्दे पर प्रदर्शन के लिए जाने लगे. अविनाश बताते हैं, ‘अन्ना के आंदोलन में हिस्सा लेने के दौरान ही मैं असीम त्रिवेदी, आलोक दीक्षित, इला जोशी, मयंक सक्सेना आदि के संपर्क में आया. हमारा एक गुट बन गया. इसी दौरान 2012 की दिसंबर में निर्भया कांड हो गया. इस दौरान मैं कई-कई बार इंडिया गेट, जंतर-मंतर और राष्ट्रपति भवन गया.’ ये वही इला और मयंक हैं जिनकी संस्था बूंद की सदस्या ने खुर्शीद अनवर के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया था.

‘मुझे पहला झटका निर्भया आंदोलन के दौरान ही लगा था लेकिन तब मैंने इसे नजरअंदाज कर दिया था. हुआ यह कि 31 दिसंबर के आसपास मयंक ने फेसबुक पर एक पेज बनाया और लोगों से अपील की कि वे जंतर-मंतर पहुंचें. मैं अपने कुछ साथियों के साथ जंतर-मंतर पहुंचा. वहां हमारे साथ संतोष कोली भी थी. उसी रात अलोक दीक्षित और असीम त्रिवेदी पार्लियामेंट थाने के सामने धरना दे रहे थे क्योंकि पुलिस ने एक लड़की को चौबीस घंटे से थाने में रोक रखा था. मुझे इस बाबत बताया गया. मैं भी संसद मार्ग पुलिस थाने पर पहुंच गया. रात बारह बजते बजते मयंक-इला, असीम और आलोक एक-एक कर वहां से निकल गए. हमें बताया गया था कि सारे लोग रात भर थाने के आगे ही बैठेंगे. मैं अपने साथियों के साथ वहां अकेले फंस गया. काफी देर हो गई थी. हमें भूख भी लग गई थी. थोड़ी देर तक तो हमने जंतर-मंतर पर कुछ-कुछ जलाया और उसके सहारे बैठे रहे. फिर थोड़ी देर बाद लगा कि अब खुले में नहीं रहा जाएगा. वो रात मैंने अपने दो दोस्तों के साथ गुरुद्वारा बंगला साहेब  में बिताई थी’ अविनाश आगे बताते है, ‘अपने सौ से ज्यादा प्रदर्शनों के अनुभव के आधार पर मैं जितना समझ पाया हूं उसके हिसाब से हम जिन लोगों के साथ जुड़े या जिनके बुलावे पर हर जगह पहुंच जाते हैं उनके लिए इन प्रदर्शनों का यही उपयोग है कि वे वहां पहुंचकर फोटो खिंचवा लें, मीडिया से बतिया लें, सेल्फी ले लें, यू-ट्यूब पर लाइव करवा लें और फिर जल्दी से घर पहुंच कर फेसबुक पर लंबे-लंबे स्टेटस लिख दें. क्योंकि इसी के आधार पर उनकी संस्था का प्रोफाइल आगे के लिए मजबूत होता है.’

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अविनाश को दूसरी बार तब निराशा हुई जब वे एक छात्र संगठन के बुलावे पर संसद का घेराव करने संसद मार्ग पहुंचे थे. वहां पुलिस लाठी चार्ज में वे घायल भी हुए. अविनाश कहते हैं, ‘मैंने मुद्दे की तरफ ध्यान दिया तो समझ आया कि यह घेराव पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था को ठीक करने के लिए था. मेरे मन में एक सवाल उठा कि ये छात्र संगठन अपने विश्वविद्यालयों के भीतर मौजूद समस्याओं को कभी मुद्दा नहीं बनाते. लड़ाई तो वहां से भी शुरू की जा सकती है? देश की शिक्षा को ठीक करने के लिए आप लाठियां खिलवाते हैं, लेकिन दिल्ली के ही छात्रों के मुद्दों पर कान तक नहीं देते. मैंने यह सवाल संगठन के लोगों के सामने उठाया. तो उनका तर्क था कि तुम समझते नहीं हो. यह मुद्दा बहुत लोकल है.’ अविनाश के मुताबिक कुछ लोग जोशीले युवाओं के बलबूते अपनी जमीन तैयार करते हैं, आगे चलकर कुछेक प्रदर्शन आदि के जरिए अपना एनजीओ बना लेते हैं. दिल्ली के ज्यादातर छात्र संगठनों का एक खुला ट्रेंड है. ये संगठन छात्रों के हित के लिए कम, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय और अक्सर बेमतलब के मुद्दों पर ज्यादा प्रदर्शन करते हैं. इनके अपने हॉस्टल का नाला बह रहा होता है लेकिन इनकी चिंता में अमेरिका द्वारा सहारा के मरुस्थल में किए गए मिसाइल परीक्षण से पैदा हुई पर्यावरणीय विपत्तियां सर्वोपरि होती हैं.

आए दिन जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक इकट्ठा होनेवाली आंदोलनकारियों की भीड़ के कुछ और भी चेहरे हैं. मसलन लगभग हर आंदोलन में एक तबका ऐसा भी पहुंचता है जो इस अवसर का इस्तेमाल सिर्फ नेटवर्किंग और अपने संपर्क बनाने के लिए करता है. इन आंदोलनों में अक्सर मेधा पाटकर, आमिर खान से लेकर तमाम नामी गिरामी नेता-अभिनेता भी शिरकत करते रहते हैं. चूंकि यहां ऐसे लोगों से मिलना-जुलना थोड़ा आसान होता है. इसलिए जाहिर है लोग इन आंदोलनों का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत रिश्तों को फैलाने-बढ़ाने के लिए भी करते हैं.

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यहां सवाल फिर वही खड़ा हो जाता है कि आंदोलन तो हर दिन होते हैं और उनमें लोग भी खूब दिखते हैं पर इन आंदोलनों की नियति क्या है. साफ है कि जिस तरह के लोग आजकल ज्यादातर आंदोलनों का हिस्सा होते हैं उसके चलते ये आंदोलन सिर्फ एक दिन का शो बनकर दम तोड़ देते हैं.

हाल के दिनों में जंतर-मंतर के आस-पास आंदोलनकारियों का एक नया समूह उभरा है. यह दक्षिणपंथी आंदोलनकारियों का समूह है. केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद ये लोग अचानक से सक्रिय हुए हैं. इनके आंदोलनों का दायरा फिलहाल गोरक्षा दल, निर्मल गंगा-अविरल गंगा, कश्मीर बचाओ-देश बचाओ टाइप आंदोलनों तक सीमित है. इनमें से गोरक्षा आंदोलन वाले सबसे ज्यादा सक्रिय हैं लिहाजा पूरा जंतर-मंतर का इलाका गो-मूत्र और गोबर की सुवासित गंध से सराबोर रहता है. यहां गोरक्षा दल ने 20-25 गायों के साथ डेरा डाल रखा है. दूर से देखने पर जंतर-मंतर किसी तबेले का सा दृश्य प्रस्तुत करता है. दक्षिणपंथी आंदोलनकारियों के चेहरे भी काफी कुछ जाने-पहचाने से हैं. इनमें तेजिंदर बग्गा और उनके सहयोगियों का चेहरा और जिक्र बार-बार आता है. ये वही तेजिंदर बग्गा हैं जिन्होंने महान क्रांतिकारी भगत सिंह के नाम पर क्रांति सेना बनाकर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को पीट दिया था. इसी संगठन के लोग एक नए संगठन भारत रक्षा दल के बैनर तले आम आदमी पार्टी के कौशांबी स्थित दफ्तर पर हमला करने पहुंचे गए थे. बाद में मीडिया के कैमरों और सीसीटीवी फुटेज के आधार पर इनके बारे में पता चल गया. दस सालों तक सत्ता से बाहर रहने के कारण फिलहाल आंदोलनों में दक्षिणपंथी कुनबे का हस्तक्षेप काफी सीमित हो गया है. लेकिन जानकारों के मुताबिक आनेवाले दिनों में हर आंदोलन में इनका असर बढ़ेगा, और हो सकता है वामपंथी समूह हाशिए की तरफ चले जाएं.

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लेकिन यह भी सच है कि जो पेशेवर क्रांतिकारी हैं वे यहां स्थायी रूप से टिके रहेंगे. इस चोगे में नहीं तो उस चोगे में. क्योंकि हर मौसम के साथ जीने की कला उन्हें बखूबी आती है.

(विकास कुमार के सहयोग से)

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0 Comments

  1. cskkanu

    August 23, 2014 at 1:04 pm

    This is True face of candle marches . In most of these protest, the protesters are paid by feminist n political parties. Nirbhaya candle march is proved an antimen protest. How 60 crore male from this country was made responsible for one rape case? Why antimen laws are created n supported by lawmakers n judiciary. Even tarun was also supported this feminist sometimes back.
    Let’s not treat all males as rapists n dowry mongers. #498a n rape law /SH law has proved antimale. These laws are shame for our country when 98 % 498a n 74% rape cases are false cases as per ncrb data.
    Your write-up is excellent. It should be eye opener for government n media.

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