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मजीठिया वेतनमान : मीडिया कर्मियों पर फैसला आने से पहले कई सवाल केजरीवाल पर

अब तो लाखो मीडिया कर्मियों के भविष्य ही नहीं, केजरीवाल के एक और इम्तिहान का भी दिन होगा 28 अप्रैल । जिस दिन से दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रिंट मीडिया के पत्रकारों और कर्मचारियों के वेतन को लेकर गठित जीआर मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त करने की घोषणा की है, मन में कई तरह के प्रश्न और संदेह आ-जा रहे हैं। मसलन, क्या अरविंद केजरीवाल सचमुच अपनी घोषणाओं पर सख्ती से अमल कर भारतीय प्रिंट मीडिया नामक कारपोरेट हाथियों से शत्रुता मोल ले सकते हैं, या इसके पीछे भी कोई बड़ा खेल है, जो हाल-फिलहाल पकड़ में नहीं आना है?

अब तो लाखो मीडिया कर्मियों के भविष्य ही नहीं, केजरीवाल के एक और इम्तिहान का भी दिन होगा 28 अप्रैल । जिस दिन से दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रिंट मीडिया के पत्रकारों और कर्मचारियों के वेतन को लेकर गठित जीआर मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त करने की घोषणा की है, मन में कई तरह के प्रश्न और संदेह आ-जा रहे हैं। मसलन, क्या अरविंद केजरीवाल सचमुच अपनी घोषणाओं पर सख्ती से अमल कर भारतीय प्रिंट मीडिया नामक कारपोरेट हाथियों से शत्रुता मोल ले सकते हैं, या इसके पीछे भी कोई बड़ा खेल है, जो हाल-फिलहाल पकड़ में नहीं आना है?

यह प्रश्न अनायास नहीं। और विश्वास कर लेना भी मुश्किल नहीं। अन्ना आंदोलन से आज दिल्ली में ऐतिहासिक सरकार बनने तक अरविंद केजरीवाल की खूबियों और माद्दा से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह भी विश्वास किया जा सकता है कि उन्हें लड़ाई लड़ने आता है। उन्होंने जीवन में लड़ने का रास्ता चुना है। वह जिस तरह के अतीत से आते हैं, वह भी संघर्षशील हर मन को ललचाता और उम्मीद बंधाता है, लेकिन पिछले दिनो आम आदमी पार्टी के भीतर योगेंद्र यादव, कुमार आनंद, प्रशांत भूषण आदि की बगावत की बू अरविंद केजरीवाल के बारे में नये सिरे से सोचने को विवश करती है। एक बात और। उनके अत्यंत निकट, इर्द-गिर्द जिस तरह के लोग खड़े हैं, उनमें कई-एक के रंग-ढंग मजीठिया मामले पर भी केजरीवाल की ताजा भूमिका (घोषणा) एकदम से पचा लेने, उस पर अडिग विश्वास कर लेने पर सहमत नहीं होने देते। 

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इतना साफ साफ सा है कि आज के कारपोरेट मीडिया से मोरचा लेना आसान नहीं है। केजरीवाल की घोषणा स्पष्टतः कारपोरेट मीडिया को ललकारने वाली है। आगामी 28 अप्रैल को एक ऐसा फैसला आने वाला है, जिस पर लाखों मीडिया कर्मियों का भविष्य निर्भर है। मीडिया घराने न्यायाधीशों को प्रभावित करने के हजार उपाय जोड़ने में जुटे हैं। जिनके हितों की वकालत में सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर दस्तक दी गई है, वे मीडिया प्रबंधन से डरे-सहमे हुए खुलकर साथ आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। न्यायपालिका के भी रंग-ढंग देखते हुए उनका भी डर अनायास, अस्वाभाविक नहीं है। हमे एक झटके में किसी के क्रांतिकारी हो जाने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। ऐसे हालात में और भी सवाल बनते हैं कि क्या केजरीवाल की घोषणा का उनके पुराने साथी (योगेंद्र यादव, कुमार आनंद, प्रशांत भूषण आदि) तात्कालिक फायदा नहीं उठाना चाहेंगे? अथवा कारपोरेट मीडिया उनकी आवाज थाम कर केजरीवाल की ताकत कमजोर नहीं करना चाहेगा?

उल्लेखनीय है कि पिछले दिनो मजीठिया वेज बोर्ड क्रियान्वयन संघर्ष समिति के प्रतिनिधिमंडल की मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। उसके बाद केजरीवाल ने मजीठिया बोर्ड की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत जानने के लिए श्रम विभाग से एक रिपोर्ट तलब कर ली है। साथ ही, उन्होंने वेज बोर्ड की अनुशंसाओं की नियमित निगरानी के लिए श्रम विभाग को तत्काल एक निगरानी समिति गठित करने का भी निर्देश दिया है। क्या केजरीवाल ने इतना बड़ा निर्णय बिना आगे-पीछे सोचे-विचारे ही ले लिया होगा, या इस पर उनकी अपने साथियों से कोई गंभीर मंत्रणा न हुई होगी। ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी। कारपोरेट मीडिया ने अतीत में केजरीवाल के लिए भी कुछ कम टगड़ी नहीं मारी हैं। कदम कदम पर उन्हें शोशेबाजियों से उलझाने की कोशिशें की हैं। लोकसभा चुनाव से पहले और बाद तक तो जैसे वह हाथ धोकर ‘आप’ के पीछे पड़ा रहा है। यदि केरजरीवाल सचमुच अपने अन्य निर्णयों की तरह इस मजीठिया मसले पर भी अडिग रहते हुए मीडिया कर्मियों का साथ अंत तक निभाते हैं तो राजपाठ के वक्र-जनद्रोही तौर-तरीकों की दृष्टि से ये सब भी पहली बार सातवें अजूबे जैसा ही होगा।

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तय है, कारपोरेट मीडिया घराने यह सब यूं ही जान-सुनकर खामोश न हो गए होंगे। उनके मन में भी कुछ-न-कुछ जरूर तेजी से पक रहा होगा। हो सकता है, उनकी मंशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिरे से कोई गुल खिलाने की हो और वे उस दिशा में अंदर-ही-अंदर सक्रिय भी हों। शायद अवश्य। ऐसे में एक और बड़ा सवाल बनता है कि न्यायपालिका तीन विंदुओं में से किस पर 28 अप्रैल को खरी उतरती है- एक, वह कारपोरेट मीडिया की तिकड़मों के दबाव में आ जाती है, केजरीवाल बनाम मजीठिया वेज बोर्ड क्रियान्वयन संघर्ष समिति के अनुकूल कोई फैसला सुनाती है अथवा न्यायाधीश पद की गरिमा के अनुकूल कोई ऐसा निर्णय दे देती है, जो दोनो पक्षों को मान्य हो? जैसा कि संभव नहीं। 

यह भी गौरतलब होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले से चेतावनी दे रखी है, मजीठिया मामले पर 28 अप्रैल सुनवाई का अंतिम दिन है। उसी दिन फाइल बंद। फैसला चाहे जो भी रहे। तो क्या ये अंतिम प्रश्न भी परेशानी का सबब नहीं कि जिसके विपक्ष में फैसला होगा, इस मामले पर उसके लिए अदालत के दरवाजे सचमुच हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे? संभवतः ऐसा भी नहीं !

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0 Comments

  1. sanjeev singh

    April 20, 2015 at 2:35 pm

    Good piece of writing covering all aspects.

    Dhanyabaad

  2. जयप्रकाश त्रिपाठी

    April 21, 2015 at 5:52 pm

    धन्यवाद संजीव जी

  3. Hemant Choudhari

    April 21, 2015 at 6:25 am

    😆

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