: समग्र भूमि व किसान नीति बनने तक संघर्ष अपरिहार्य : प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने रविवार 29 अगस्त को आकाशवाणी के कार्यक्रम ‘मन की बात’ में यह घोषणा की कि भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा तथा वह किसानों का हर सुझाव मानने को तैयार हैं। यह घोषणा देश भर के किसानों और जनता के प्रतिरोध की जीत है, जिसकी वजह से ही मोदी सरकार को अपने पांव पीछे खींचने पर मजबूर होना पड़ा है। नहीं तो चंद रोज पहले तक श्रीमान मोदी, उनकी पार्टी भाजपा और उनके रणनीतिकार जिस तरह से इसे किसानों और देश के हित में बताकर शोर मचा रहे थे और इसे हर हाल में लागू करने के लिए ताल ठोंक रहे थे, यह बात किसी से छिपी नहीं है। भाजपा-विरोधी शासकवर्गीय पार्टियां इसका श्रेय लेने का चाहे जितना ढिंढोरा पीटें लेकिन आज जब मोदी सरकार ने अध्यादेश को आगे न बढ़ाने का फैसला ले लिया है तब एक राजनीतिक मुद्दा, जिसके नाम पर वे अपनी खोयी जमीन को वापस पाने के प्रयास में थे, उनके हाथ से चला गया है।
कांग्रेस की सरपरस्ती में ये विरोधी दल यूपीए के 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून का जिस तरह से महिमामंडन कर रहे थे और कह रहे थे कि यह बहुत प्रगतिशील और किसानहितैषी कानून है, वह देश की जनता को सीधे-सीधे बरगलाने के सिवा और कुछ नहीं था। आज भाजपा के विरोध में खड़े कांग्रेस समेत अन्य विरोधी दल जो भी दावा करें लेकिन देश की राजधानी दिल्ली से लेकर गांव-गांव तक देश के किसान और जनता जिस बहादुरी और जुझारू तेवर के साथ इस काले अध्यादेश के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष में उतरे और डटे रहे, वह काबिलेतारीफ है। किसानों के इस आंदोलन की वजह से ही देशी-विदेशी कार्पोरेट के लाड़ले मोदी को इस अध्यादेश को आगे न बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस प्रतिरोध संघर्ष के लिए देश के किसान और मेहनतकश जनता निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
खास बात यह है कि इस प्रतिरोध संघर्ष में वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों की अहम भूमिका रही है। उन्होंने आंदोलनों की एक अनवरत श्रंखला विकसित की और प्रतिरोध के लोकतांत्रिक तरीकों के जरिए लगातार उसे जारी रखा। संशोधन अध्यादेश लागू होने के दिन से ही देश भर में धरना-प्रदर्शन जैसे प्रतिरोध के लोकतांत्रिक रूपों के साथ ही दिल्ली में विरोध प्रदर्शनों को निरंतर बनाए रखना इस संघर्ष के अहम पहलू रहे। 9 अगस्त को दिल्ली में समग्र राष्ट्रीय भूमि व किसान नीति और भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को वापस लेने जैसे मुद्दों पर धरना एक महत्वपूर्ण पहलकदमी थी। इस कड़ी में 10 अगस्त को ‘स्वराज अभियान’ का किसान मार्च, जो पिछले कुछ महीनों से जारी किसान यात्राओं का पड़ाव था, इस लड़ाई को निर्णायक मुकाम तक ले जाने में कामयाब रहा। इसमें प्रधानमंत्री आवास के सामने रेस कोर्स पर उन शहीद किसानों, जिन्होंने पिछले वर्षों में कर्ज के बोझ एवं फसल की भारी पैमाने पर हुयी तबाही के चलते आत्महत्या की थी, की याद में स्मारक बनाने की मांग ने इसे एक नया आयाम प्रदान किया। ‘स्वराज अभियान’ के नेता योगेंद्र यादव व आइपीएफ प्रवक्ता किसान नेता अजित सिंह यादव समेत सैकड़ों कार्यकताओं की 10-11 अगस्त की रात में गिरफ्तारी ने इसे एक नयी धार प्रदान की। गिरफ्तारी के विरोध में संघर्षरत सैकड़ों किसान कार्यकताओं ने थाने को घेर लिया जिसके दबाव में मोदी सरकार को सभी आंदोलनकारियों को उसी दिन छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। इस आंदोलन का महत्वपूर्ण योगदान यह था कि इसने किसान प्रश्न को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में लाने का काम किया।
इन अनवरत आंदोलनों का ही दबाव था कि 10 अगस्त के ‘किसान मार्च’ के दो सप्ताह बाद मोदी जी को आकाशवाणी के कार्यक्रम ‘मन की बात’ में मन मसोस कर यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि अध्यादेश को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा तथा हम किसानों के सभी सुझाव मानने को तैयार हैं। आज जब किसानों ने लड़ाई के एक चरण को जीतने में कामयाबी हासिल कर ली है, तब क्या यह मान लिया जाए कि किसानों का संघर्ष समाप्त हो गया है और उनकी सभी समस्यायों का समाधान यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए भमि अधिग्रहण कानून के जरिए हो जाएगा! हालांकि मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण के सवाल पर पीछे जरूर हटी है। लेकिन भविष्य में वह दोबारा अधिग्रहण कानून में संशोधन नहीं करेगी, इस पर यकीन करना एक तरह से धोखा ही होगा। एक ऐसी सरकार जो भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने के लिए इतनी बेकरार थी कि सारी लोकतंत्रिक परंपराओं और हदों को ताक पर रखकर संसद का सहारा न लेकर उसने अध्यादेश का सहारा लिया और संसद में पारित न होेने की स्थिति में अध्यादेश को तीन-तीन बार बढ़ाया, वह जरूर किसी न किसी मौके की ताक में रहेगी। ऐसी हालत में, जनपक्षधर, किसानहितैषी शक्तियों को खामोश बैठ जाने के बजाए इस पर बराबर सजग एवं सतर्क नजरिया अपनाना होगा।
यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि मोदी और मनमोहन के विकास का माडल एक ही है। दोनों ही कार्पोरेट विकास के माडल पर एकमत हैं। दोनों का मकसद किसानों से उनकी जमीनें छीनना है। जहां भाजपा यह काम किसानों की मर्जी के बगैर जोर-जबर्दस्ती के तौर पर करना चाहती है, वहीं कांग्रेस इसी काम को किसानों को बहला-फुसलाकर नरम ढंग से करना चाहती है। हालांकि दोनों का मकसद येन-केन-प्रकारेण किसानों की जमीनें छीनना है। इस काम के लिए उन्हें बरगलाकर उनकी सहमति से जमीनें छीनना कोई मुश्किल काम नहीं है। हम देख रहे हैं कि ‘लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे’ समेत तमाम परियोजनाओं के लिए किस तरह से किसानों की लाखों हेक्टेयर जमीन उनसे छीन ली जा रही है। ऐसी अनगिनत मिसालें हमारे सामने हैं जहां किसानों से विकास और रोजगार के नाम पर उनसे जमीनें ले ली गयीं। आज कांग्रेस किसानों के नाम पर भले ही घड़ियाली आंसू बहा रही हो मगर सच्चाई यही है कि केंद्र में कांग्रेस सरकारों के दौर में औने-पौने और कहीं तो बिना कोई मुआवजा दिए बगैर ही किसानों से जमीनें छीनीं गयीं और उनका समुचित पुनर्वास भी नहीं किया गया।
आज देशी-विदेशी कार्पोरेट की गिद्धदृष्टि किसानों की जमीन पर लगी हुयी है। वे बड़ी ललचाई नजरों से उसे हड़पने के मौके की ताक में हैं। आर्थिक उदारीकरण के प्रक्रिया के दौरान मालामाल हुए उच्च वर्ग के ऐशो-आराम की खातिर 100 स्मार्ट सिटी बनाने की जिस परियोजना का देश की जनता को सब्जगाग दिखाया जा रहा है, क्या वह किसानों की बेशकीमती जमीनों को हड़पे बगैर मुमकिन है? हमारी खेती-किसानी जिस तरह के संकट का सामना कर रही है, उसमें उन्हें फुसलाकर जमीनें हासिल करना सरकारों के लिए कोई बड़ा मुश्किल काम नहीं होगा। जमीन का सवाल हमारी खाद्य सुरक्षा, जनता की आजीविका, रोजगार, पर्यावरण संरक्षण जैसे अहम मसलों से सीधे तौर पर जुड़ा है। खेती लायक जमीनों का रकबा कम होने से निश्चित तौर पर खाद्य सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा। देश भर में दाल, तेल, प्याज, टमाटर जैसी रोजमर्रा की खाद्य वस्तुओं के दाम इसीलिए आसमान छू रहे हैं क्योंकि खाद्य सुरक्षा के प्रश्न पर सरकारें गंभीर नहीं है।
कितनी शर्मनाक बात है कि आज भी जमीन का सही हिसाब हमारे सामने नहीं रखा जाता है। सरकारें आजादी हासिल होने के बाद भी इस बात को जनता से छिपाती रही हैं। कितनी जमीन खेती में, कितनी उद्योगों में, कितनी बुनियादी अधिसंरचना में इस्तेमाल हुयी है और ऐसी कितनी जमीन है, जो किसानों से अधिग्रहीत की गयी मगर अभी उसका कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा है तथा खाली पड़ी हुयी है। और विकास की खातिर कितनी जमीन की अभी और जरूरत है, इसे देश की जनता को जानने का पूरा हक होना चाहिए। लेकिन देश और प्रदेश की सरकारों ने यह करने के बजाए देशी-विदेशी निजी कंपनियों को फायदा पहंुचाने के लिए तथाकथित विकास के नाम पर किसानों से जोर-जबर्दस्ती से उनकी जमीनें छीनीं। होना तो यह चाहिए था कि कृषि को प्रोत्साहित किया जाता, देश के बजट में खेती के लिए समुचित धन का प्रबंध किया जाता, सहकारी खेती को बढ़ावा दिया जाता और उसे रोजगार से जोड़ा जाता। लेकिन इसके बजाए खेती की उपेक्षा की गयी, थोड़ा बहुत जो मिल भी हो रहा था उसे भी एक-एक कर बंद कर दिया जा रहा है। आज खेती की बदहाली का आलम यह है कि हजारों की तादाद में किसान आत्महत्या कर चुके हैं और अभी भी यह सिलसिला अनवरत जारी है। बड़ी तादाद में वे भारी कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं और खेती के लगातार घाटे में जाने की वजह से बेहतर रोजगार की तलाश में बड़े पैमाने पर गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
तब यह सवाल हमारे सामने उत्पन्न होता है कि गंभीर संकट के इस दौर में इसका रास्ता और विकल्प क्या हो सकता है? आज सर्वोपरि, इस बात की जरूरत है कि एक भूमि नीति और कृषि नीति का निर्माण किया जो कृषि और उससे जुड़े सभी पहलुओं पर समग्रता में विचार करे। इसके लिए विकास के मौजूदा कार्पोरेट माडल को उलटना होगा और उसकी जगह जनपक्षधर किसान माडल को स्थापित करना होगा। ऐसा करके ही खेती को बचाया जा सकता है, खाद्य सुरक्षा को मजबूत किया जा सकता है और खेती में ही भारी पैमाने पर रोजगार का सृजन कर बेरोजगारी जैसी समस्यायों का समाधान भी किया जा सकता है। इसलिए समूचे देश, खासकर किसानों के समक्ष जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह यह कि समग्र भूमि नीति और कृषि नीति को प्रमुखता से राजनीतिक संघर्ष के एजेण्डे पर लाया जाए और इसके लिए संघर्ष को तेज किया जाए। इसे हासिल किए बगैर देश को सही मायनों में विकास के पथ पर अग्रसर नहीं किया जा सकता है और जब तक इसे हासिल नहीं कर लिया जाता है तब तक इस संघर्ष को निरंतर जारी रखना होगा।
देश की वाम, लोकतात्रिक, जनपक्षधर, न्यायप्रिय और प्रगतिशील ताकतों को इसी राजनीतिक दिशा पर आगे बढ़ने का कार्यभार है। नहीं तो किसानों के पक्ष में आज जो लड़ाई जीती गयी है, उसके व्यर्थ चले जाने का खतरा मंडराता रहेगा। देश की विविध संघर्षशील ताकतें, जो देश और जनता के प्रति सही मायनों में समर्पित हैं, को वैकल्पिक नीतियों और वैकल्पिक राजनीति के ऐजेण्डे के साथ इसी दिशा में संघर्ष को संचालित करने की जरूरत है,। बदलाव की इस लड़ाई में साझा मंच और साझा प्रयास आज वक्त की जरूरत है।
लेखक कौशल किशोर लखनऊ में पदस्थ हैं और दशकों से कामरेड के रूप में पूर्णकालिक तौर पर सक्रिय हैं. पहले सीपीआईएमएल के साथ थे. अब आल इंडिया पीपुल्स फ्रंड से जुड़े हुए हैं. इनसे संपर्क 08795387675 के जरिए किया जा सकता है.
Avner
September 13, 2015 at 5:51 am
Finally the leftists have succeeded in stalling the development work initiated by Indian Govt. This article is utter bullshit.
vikram singh
September 14, 2015 at 4:56 am
Kausal je mai bhi Lucknow me rahta hno. Kitna sanghars kisano ke is bill ke liye kiya dekh raha hnoo. Congress me kuchh nahi kiya kewal Aap air janta ne Sab kiya.