-संजय कुमार सिंह-
सूत्रों की इस खबर के अनुसार, संसदीय समिति ने ट्वीटर अधिकारियों से पूछा है कि सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कॉमेडियन कुणाल कामरा के ट्वीट क्यों रहने दिए गए। अगर यह खबर सही है तो इसका मतलब यह हुआ कि ट्वीटर को यह अधिकार दिया जा रहा है वह तय कर ले कि क्या अवमानना है और क्या नहीं। कायदे से अभिव्यक्ति की आजादी और अवमानना का मामला अदालतें तय करती रही हैं। अखबारों, टेलीविजन चैनलों आदि के मामले में यह संपादक की जिम्मेदारी होती है और वही जिम्मेदार होता है। इसलिए उसके तय करने का अलग मतलब है। कायदे से एक रिपोर्टर की खबर अगर छप गई तो वह संपादक की हुई और अगर वह गलत है तो संपादक गलत है, जिम्मेदार भी।
ट्वीटर या सोशल मीडिया के मामले में व्यक्ति अपना संपादक स्वयं है और सोशल मीडिया का काम ऐसा नहीं है कि वह संपादक रखे। अखबारों, टेलीविजन चैनल पर आप की राय प्रसारित करने लायक है कि नहीं यह संपादक तय करता है। उसके विवेक पर निर्भर होता है। और संपादक भले किसी विचार को अवमानना या अपमानजनक माने – उसका निर्णय उसके पूर्वग्रह से प्रेरित हो सकता है। पर वहां उसके निर्णय का महत्व है और जरूरत भी। और यही उसका काम है। लेकिन सोशल मीडिया पर ऐसी बात नहीं है। यही सोशल मीडिया की लोकप्रियता का कारण है। क्योंकि यहां विचारों की विविधता है। आजादी है। इसीलिए सोशल मीडिया पर व्यक्ति की राय उसकी अपनी मानी जाती है संपादक की नहीं।
अगर ट्वीटर से यह अपेक्षा है कि अवमानना वाली पोस्ट उसे स्वयं हटा लेना चाहिए तो अवमानना का मामला ट्वीटर के खिलाफ बनना चाहिए – और ऐसा हुआ तो कुणाल कामरा ने अपनी पोस्ट का जो मकसद बताया है वह अदालती फैसले के बिना धाराशायी हो जाएगा। अगर ऐसा ही है और यह सही है तो जेएनयू के जिस तथाकथित राष्ट्रविरोधी हरकत के लिए कन्हैया और दूसरे लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया है और मुकदमा लंबित है उसके लिए जिम्मेदार वह वीडियो टीवी पर दिखाने वाला भी हुआ। आखिर एक बंद परिसर या सीमित क्षेत्र में कुछ गोपनीय हो तो उससे अवमानना कैसे हो सकती है और अवमानना तब होती है जब वह सार्वजनिक हो जाता है। मुझे लगता है कि यह गंभीर मसला है और जिम्मेदारी इधर-उधर थोपने से बात नहीं बनेगी। इसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए।