संजय सक्सेना, लखनऊ
एनडीटीवी इंडिया और उसके मैनेजिंग एडिटर रवीश कुमार एशिया के लिए यह बात फक्र की हो सकती है कि उन्हें (रविश कुमार) कुछ लोगों द्वारा एशिया का नोबेल समझे जाने वाले रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया है। जबकि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो मैगसेसे पुरस्कार को तमाम विवादों की जननी मानते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि अक्सर मैगसेसे पुरस्कार के लिए उन कथित नामचीन हस्तियों का ही चयन होता है जिनकी सोच का दायरा तंग और एक विशेष विचारधारा से प्रभावित होता है। रविश कुमार भी इससे अछूते नहीं हैं। वह लोकतंत्र के उस सिद्धांत से इतिफाक नहीं रखते हैं जिसमें आम जनता द्वारा अपनी सूझबूझ से एक मजबूत सरकार चुनी जाती है।
रविश कुमार अपनी इसी सोच के कारण अक्सर ट्रोल होते रहते हैं। मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त करने के लिए फिलीपींस की राजधानी मनीला पहुंचे रविश कुमार ने रैमॉन मैगसेसे के मंच से जो कुछ कहा उससे यह साबित हो गया कि उन्हें भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। अगर ऐसा न होता तो वह मोदी सरकार की आलोचना करते-करते देश की आलोचना नहीं करने लगते। हद तो तब हो गई जब रविश ने भारत के मिशन चंद्रयान पर भी सवाल खड़े कर दिए। वह भी विदेश की धरती पर,व्यंगनात्मक लहजे में। रविश ने मैगसेसे मंच से तंज कसते हुए कहा भारत चांद पर पहुंचने वाला है। गौरव के इस क्षण में मेरी नजर चांद पर भी है और जमीन पर भी, जहां चांद से भी ज्यादा गहरे गड्ढे हैं। दुनियाभर में सूरज की आग में जलते लोकतंत्र को चांद की ठंडक चाहिए. यह ठंडक आएगी सूचनाओं की पवित्रता और साहसिकता से, न कि नेताओं की ऊंची आवाज से. सूचना जितनी पवित्र होगी, नागरिकों के बीच भरोसा उतना ही गहरा होगा। देश सही सूचनाओं से बनता है। फेक न्यूज, प्रोपेगंडा और झूठे इतिहास से भीड़ बनती है।
रविश की बातों में मोदी के खिलाफ तंज अक्सर दिखता रहता है। इसलिए तो उन्होंने मोदी सरकार को इशारों-इशारों में लपेटते हुए कहा, ‘यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है। नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है। यह जानते हुए कि इस समय में नागरिकता पर चैतरफा हमला हो रहे हैं और सत्ता कीनिगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से खुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में मांज लेगा।
रविश ने अपनी सोच को आगे बढ़ाते हुए कहा सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता होनी चाहिए,लेकिन आज स्टेट का मीडिया और उसके बिजनेस पर पूरा कंट्रोल हो चुका है। उन्होंने मीडिया पर कंट्रोल का मतलब भी बताया और कहा,‘ मीडिया अब सर्वेलान्स स्टेट का पार्ट है। वह अब फोर्थ एस्टेट नहीं है, बल्कि फर्स्ट एस्टेट है. प्राइवेट मीडिया और गर्वनमेंट मीडिया का अंतर मिट गया है। इसका काम ओपिनियन को डायवर्सिफाई नहीं करना है, बल्कि कंट्रोल करना है। ऐसा भारत सहित दुनिया के कई देशों में हो रहा है।
रविश ने न्यूज चैनलों पर निशाना साधते हुए कहा की डिबेट की भाषा लगातार लोगों को राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकालती रहती है। इतिहास और सामूहिक स्मृतियों को हटाकर उनकी जगह एक पार्टी का राष्ट्र और इतिहास लोगों पर थोपा जा रहा है। मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं-एक, नेशनल और दूसरा, एन्टी-नेशनल. एन्टी नेशनल वह है, जो सवाल करता है, असहमति रखता है।असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है। उस आत्मा पर रोज हमला होता है। जब नागरिकता खतरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी। नागरिक तो दोनों हैं. जो खुद को नेशनल कहता है, और जो एन्टी-नेशनल कहता है।
कश्मीर पर मोदी सरकार कै फैसले पर उंगली उठाते हुए उन्होंने इसे हांगकांग की घटना से जोड़ते हुए कहा दुनिया के कई देशों में यह स्टेट सिस्टम, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, और लोगों के बीच लेजिटिमाइज हो चुका है। फिर भी हम कश्मीर और हांगकांग के उदाहरण से समझ सकते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र और नागरिकता की क्लासिक समझ अभी भी बची हुई है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं. आखिर क्यों हांगकांग में लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले लाखों लोगों का सोशल मीडिया पर विश्वास नहीं रहा। उन्हें उस भाषा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसे सरकारें जानती हैं. इसलिए उन्होंने अपनी नई भाषा गढ़ी और उसमें आंदोलन की रणनीति को कम्युनिकेट किया।
कश्मीर पर रविश का कहना था,‘वहां कई दिनों के लिए सूचना तंत्र बंद कर दिया गया. एक करोड़ से अधिक की आबादी को सरकार ने सूचना संसार से अलग कर दिया। इंटरनेट शटडाउन हो गया। मोबाइल फोन बंद हो गए। सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए. क्या आप बगैर कम्युनिकेशन और इन्फॉरमेशन के सिटिजन की कल्पना कर सकते हैं…? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे, और वह उस सिटिजन के खिलाफ हो जाए, जो अपने स्तर पर सूचना ला रहा है या ला रही है या सूचना की मांग कर रहा है। यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं. पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और भारत. नीचे की रैंकिंग में भी ये पड़ोसी हैं।
वह (रविश कुमार) कहते हैं जब ‘कश्मीर टाइम्स’ की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं, तो उनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया कोर्ट चला जाता है. यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है. मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का दफ्तर एक ही बिल्डिंग में होना चाहिए. गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस कांउंसिल ऑफ इंडिया की भी आलोचना की।
रविश यहीं नहीं रूके उन्होंने कहा,‘आज कोई लड़की कश्मीर में ‘बगदाद बर्निंग’ की तरह ब्लॉग लिख दे, तो मेनस्ट्रीम मीडिया उसे एन्टी-नेशनल बताने लगेगा।मीडिया लगातार सिटिजन जर्नलिज्म के स्पेस को एन्टी-नेशनल के नाम पर डि-लेजिटिमाइज करने लगा है,क्योंकि उसका इंटरेस्ट अब जर्नलिज्म में नहीं है. जर्नलिज्म के नाम पर मीडिया स्टेट का कम्प्राडोर है, एजेंट है. मेरे ख्याल से सिटिजन जर्नलिज्म की कल्पना का बीज इसी वक्त के लिए है, जब मीडिया या मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म सूचना के खिलाफ हो जाए उसे हर वह आदमी देश के खिलाफ नजर आने लगे, जो सूचना पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है। मेनस्ट्रीम मीडिया नागरिकों को सूचना से वंचित करने लगे. असमहति की आवाज को गद्दार कहने लगे। इसीलिए यह टेस्टिंग टाइम है।
रविश के अनुसार अगर आप इस मीडिया के जरिये किसी डेमोक्रेसी को समझने का प्रयास करेंगे, तो यह एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर बनाता है, जहां सारी सूचनाओं का रंग एक है। यह रंग सत्ता के रंग से मेल खाता है। कई सौ चैनल हैं, मगर सारे चैनलों पर एक ही अंदाज में एक ही प्रकार की सूचना है। एक तरह से सवाल फ्रेम किए जा रहे हैं, ताकि सूचना के नाम पर धारणा फैलाई जा सके। इन्फॉरमेशन में धारणा ही सूचना है, जिसमें हर दिन नागरिकों को डराया जाता है, उनके बीच असुरक्षा पैदा की जाती है कि बोलने पर आपके अधिकार ले लिए जाएंगे. इस मीडिया के लिए विपक्ष एक गंदा शब्द है। जब मेनस्ट्रीम मीडिया में विपक्ष और असहमति गाली बन जाए, तब असली संकट नागरिक पर ही आता है. दुर्भाग्य से इस काम में न्यूज चैनलों की आवाज सबसे कर्कश और ऊंची है. एंकर अब बोलता नहीं है, चीखता है।
रविश को लगता है, ‘भारत में बहुत कुछ शानदार है, एक महान देश है, उसकी उपलब्धियां आज भी दुनिया के सामने नजीर हैं, लेकिन इसके मेनस्ट्रीम और टीवी मीडिया का ज्यादतर हिस्सा गटर हो गया है। भारत के नागरिकों में लोकतंत्र का जज्बा बहुत खूब है, लेकिन न्यूज चैनलों का मीडिया उस जज्बे को हर रात कुचलने आ जाता है. भारत में शाम तो सूरज डूबने से होती है, लेकिन रात का अंधेरा न्यूज चैनलों पर प्रसारित खबरों से फैलता है।
मैगसेसे पुरस्कार हासिल करने वाले रविश को लगता है कि हम इस मोड़ पर हैं, जहां लोगों को सरकार तक पहुंचने के लिए मीडिया के बैरिकेड से लड़ना ही होगा. वर्ना उसकी आवाज व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में घूमती रह जाएगी. पहले लोगों को नागरिक बनना होगा, फिर स्टेट को बताना होगा कि उसका एक काम यह भी है कि वह हमारी नागरिकता के लिए जरूरी निर्भीकता का माहौल बनाए।
आपको बता दें कि 9 सितंबर को रवीश को इस सम्मान से नवाजा जाएगा। समाज के वंचित तबके की आवाज उठाने के लिए रवीश कुमार को रैमॉन मैगसेसे सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। अमूमन सामाजिक कार्यों के लिए दिए जाने वाला ये पुरस्कार रवीश की सामाजिक पत्रकारिता को रेखांकित करता है. इस पुरस्कार से नवाजे जाने वाले रवीश पहले हिंदी पत्रकार हैं।
लेखक संजय सक्सेना लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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Ume
September 6, 2019 at 7:44 pm
Aap ki soch ka dayara kuch jyada hi tang hai.
Har comment ko sirf “BHAKTO KI NAZAR” wali nigah se mat dekhiye.
Shrikant
September 7, 2019 at 9:28 am
संजय सक्सेना बताना क्या चाहते हैं? यही न, कि रवीश गलत कर रहे हैं.. बेवकूफ हैं… यह एक व्यक्ति की.निजी राय या असहमति है। क्या इनकी वजह से रवीश को सोचने और काम करने का तरीका बदलना चाहिए? गलती से भी नहीं।
आलोक शुक्ला
September 9, 2019 at 8:04 pm
मैं रविश की का फैन हूँ लेकिन वे अतिवाद का शिकार हैं, ज़रूरी नहीं था कि विदेशी धरती पर देशी सिस्टम पर व्यंग किया जाता.. पर रवीश जी किसी विपक्षी नेता की तरह वहां भारी भरकम शब्दों में लिखा हुआ भाषण पढ़ते हुये उसी हिंदी पत्रकारिता को ग़रीब बताने लगे जिसके लिए वे सम्मानित हो रहे थे तो ख़ुद ही हास्यास्पद लगने लगते हैं। जब व्यक्ति केवल ख़ुद को सही कहे और बाकी सबको ग़लत तो वो खुद ही ग़लत हो जाता है, ऐसा ही वे मोदी के बारे में अक्सर कहते हैं और फिर खुद भी उसी प्रवृत्ति का सा आचरण करते दिखने लगते हैं। बाकी सबकी अपनी राय है
Piyush
September 10, 2019 at 5:55 pm
तुम्हारी तरह के लोग सिर्फ मोदी के फैन हो सकते है और अंध भक्त भी।
लेकिन रवीश के कभी नहीं।
जो रवीश का फैन है उसे अच्छी तरह पता है कि रवीश क्या चीज़ है।
Rajesh
September 10, 2019 at 6:03 pm
मोदी के पालतू कुत्ते हर जगह propaganda फैलाने में लगे हुए है उसमे आप भी पीछे नहीं है।