ओम थानवी-
यह दौर मनहूस है। मौत और ग़म की ख़बरें हर तरफ़ से आती हैं। कभी-कभी सदमे की तरह। क्या कहें क्या नहीं।
फेफड़ों के कैंसर से अरसे से पीड़ित ललित सुरजन जी का चेहरा रह-रह कर ज़ेहन में तैर आता है। कितने हँसमुख और सदा विनम्र। कुशाग्र। ज्ञानी और अनुभवी। इन दिनों कैंसर से जूझते हुए भी वे आत्मकथा की तरह ‘देशबंधु’ की गाथा लिख रहे थे। ईमानदारी से बड़े राजनेताओं के साथ अच्छे-बुरे संबंधों का स्वीकार भी।
उनके पिता मायाराम सुरजन ने रायपुर से वह अख़बार शुरू किया जो मायारामजी के साथ ख़ुद एक संस्था बन गया। कुशल पत्रकार वहाँ से दीक्षा पाकर निकले। आदिवासी लोकजीवन और समाज को विशिष्ट अभिव्यक्ति मिली। तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं बना था। बाद में निपट कारोबारी और मूल्यहीन अख़बारों का दौर आया और ‘देशबंधु’ हाशिए पर चला गया।
पर इससे क्या। ललितजी की अपनी पहचान बनी रही। वे व्यवसाय की चिंताओं को दफ़्न कर वक़्त पर हँसते रहे। उन्हें मैंने (और शायद सबने) कभी ग़मगीन नहीं देखा। ख़ूब घूमते थे। लिखते-पढ़ते थे। अनपढ़ और अहंकारी संपादकों के युग में वे दूर से ही पहचाने जा सकते थे। साहित्य के प्रति ख़ास अनुराग था। ‘अक्षर पर्व’ पत्रिका इसका प्रमाण थी।
दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर उनका दूसरा घर था। माया भाभी अक्सर साथ रहतीं, भले दिन में बेटी-दामाद के यहाँ हो आतीं।(वे भी कितनी सहज और विनम्र हैं; लिखते हुए मेरी आँखें छलक आईं; कोई एक रात अचानक इस मानिंद अकेला हो गया?) हम जानते हैं कि हिंदी के लेखक-संपादक “जीवनसंगिनी” पत्नी को अक्सर घर बिठाकर अकेले देश-दुनिया घूमते हैं। पर ललितजी ऐसे न थे। उनकी अनेक विदेश यात्राओं में भी मायाजी साथ रहीं।
उन्हें भाषा में सिद्धि हासिल थी। सरल और लयबद्ध गद्य लिखते थे। निबंध लिखते थे और कविता भी करते थे। उनके यात्रा संस्मरण हिंदी साहित्य में याद किए जाएँगे।
रायपुर जब भी गया, उनसे ज़रूर मिलना हुआ। ज़्यादातर महेंद्र मिश्र जी के घर। मिश्रजी की मेहमानवाज़ी घर में पत्नी की बीमारी के बावजूद थमती नहीं। वहाँ भी वे सपरिवार आते थे। मिश्रजी ने बताया कि दो-तीन महीने से कैंसर की वेदना थी, पर दिल्ली सिर्फ़ जाँच करवाने के गए थे। वहाँ ब्रेन-स्ट्रोक का नया हमला हुआ, जिसे ललितजी की कोमल काया झेल न सकी।
एक गुणी संपादक देश ने खोया। हमने एक हितैषी बड़ा भाई। विदा बंधु। विदा।