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सुख-दुख

पत्रकारिता में ज्यादातर बड़े नाम वाले दिल के गंदे, दिमाग से कमीने!

एक भुग्तभोगी महिला पत्रकार की आपबीती : बहुत दिनों से दिल दिमाग परेशान है। करीब दो हफ्तों से। पहली नजर में आपको ये मेरी लाचारी या व्यक्तिगत मामला लग सकता है। बहुत आम बात भी लग सकती है क्योंकि समाज ऐसा ही है।  लेकिन ये बेचैनी, ये घुटन हर उस लड़की की हो सकती है, यशवंत जी, जो बिना किसी समझौते के अपने रास्ते बनाना चाहती है। ये सब लिखने से बहुत दिनों से खुद को रोक रही थी मगर आज नहीं लिख पाई तो शायद सो नहीं पाऊंगी।

एक भुग्तभोगी महिला पत्रकार की आपबीती : बहुत दिनों से दिल दिमाग परेशान है। करीब दो हफ्तों से। पहली नजर में आपको ये मेरी लाचारी या व्यक्तिगत मामला लग सकता है। बहुत आम बात भी लग सकती है क्योंकि समाज ऐसा ही है।  लेकिन ये बेचैनी, ये घुटन हर उस लड़की की हो सकती है, यशवंत जी, जो बिना किसी समझौते के अपने रास्ते बनाना चाहती है। ये सब लिखने से बहुत दिनों से खुद को रोक रही थी मगर आज नहीं लिख पाई तो शायद सो नहीं पाऊंगी।

पत्रकारिता में आने से पहले कुछ नामों को नियमित तौर पर पढ़ती थी। उनके विचारों का सम्मान करती थी मगर ज्यादातर बड़े नामों वाले लोग दिलों से गंदे और दिमाग से कमीने टाईप के निकले। तब भड़ास नहीं था, इसलिये ऐसा कुछ दिमाग में आता भी नहीं था। सो डायरी लिखती रहती। ये वो लोग थे, जिनके असली चेहरे और थे और नकली चेहरे कुछ और। वही आपके आलेख की लाईनें दोहराना चाहूंगी, ये जो कहते हैं, वो करते नहीं और जो दिखते हैं, वो तो बिल्कुल नहीं होते। उबकाई आती है इनके चरित्र देखकर।

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बहरहाल, नौकरियों में मेरा ठिकाना कहीं ज्यादा लंबा रह नहीं पायी। जहां रहा, वहां सैलरी के मामले में हालत अच्छी नहीं रही। कुछ लोग शुरू से साथ थे लेकिन इन्होंने भी संबंधों के नाम पर काम बस लिया। मुझे हैरानी ये कि मैं पत्रकारिता में आकर भी दांव—पेंच अपने स्वभाव में क्यों नहीं ला पा रही?

ये बात फिर कभी। जब से अपना काम शुरू किया, कुछ ऐसे अनुभव हुये कि लगने लगा कि लडकियां क्या हैं पुरूषों की नजर में? महज कोई चीज? जिसे थोडी—बहुत मदद करके हासिल किया जा सकता है। ये भी अनुभव किया कि अभी घटिया से घटिया लोग मिलना बाकी हैं। कुछ लोग ऐसे जिन्हें मैं सालों से जानती थी,जिनके बारे में ख्याल भी नहीं आया कि ये ऐसा करेंगे। खुद ही आगे आयें मैं विज्ञापन करवा दूंगा। मुझे लगा, पुराने परिचित हैं, इसलिये आगे से कह रहे हैं मगर अकेले। मैसेज करके आपत्ति की तो जवाब आया, सोच बदलो, किस तो बहन और दोस्त को भी की जाती है। मैं हैरान। इतने सालों में नहीं समझ पाई। मॉर्डनिटी का ये रूप? 

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सबसे बड़ा झटका लगना अभी बाकी था। ये वो झटका था जिसके बाद मुझे पता चला कि प्रदेश का वो सरकारी विभाग जहां से विज्ञापन वगैरह जारी होते हैं अधिमान्यतायें होती हैं चंद माफिया टाईप पत्रकारों की गिरफ्त में है। हर कदम पर कमीशन का खेल। विज्ञापन से वास्ता रखा नहीं सो यहां अपन अनाडी ही थी। बाद में पता चला जिनको देना है, सो एक मिनट में दे देंगे, नहीं देना तो एक साल में भी नहीं। कंटेंट क्वालिटी से कोई मतलब नहीं। 

खैर एक दिन नये डायरेक्टर से सीधे मिलने पहुंची तो बाहर ही एक वरिष्ठतम पत्रकार महोदय से सामना हो गया। इन महोदय से मुलाकात नहीं हुई थी कभी लेकिन ये सोशल मीडिया पर बराबर मुझे फॉलो करते हैं पोस्ट की खबरों की तारीफ करते थे। अचानक मिल गये सीनीयर थे। सो मैने आगे जाकर अभिवादन किया। वो खुश हुये। बोले यहां कैसे? मैंने कहा इस काम से आई हूं। बोले आओ मेरे साथ। डायरेक्टर के कमरे में गये। एक और बुजुर्ग पत्रकार थे। उनके अखबार को विज्ञापन मंजूर करवाया। फिर मेरा कागज दिया। उस पर डायरेक्टर ने कुछ रिमार्क किया। 

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पत्रकार साहब ने मुझसे कहा, तुम्हारा 20 हजार का एड मंजूर हो गया। फिर बोले अधिमान्यता का फॉर्म भी भर दो, मैं करवा दूंगा। मैं खुश आखिर छ: महीने से भटक रही थी। लेकिन यहां खेल बाकी था। विज्ञापन शाखा में ये सोचकर एड रोक दिया गया कि पहली बार एड जारी हो रहा है तो रिकमंड किसने किया? वो मामला भी सुलझ गया,अधिमान्यता का फॉर्म भी भर दिया। उन्होंने कहा 20—21 दिन में आ जायेगा कार्ड। अभी असली चेहरा सामने आना बाकी था। मैं इस बीच घर चली गई। मेरा अकाउंट कोड जनरेट नहीं हुआ था सो उनको फोन किया तो बोले तुम मतलबी हो। 

काम हो गया तो बात ही नहीं करती हो। मैंने कहा, सर मैंने कल ही तो बात की थी आपसे। बोले पार्टी में क्या दोगी? मैंने कहा खाना खिला दूंगी। बोले नहीं, ये नहीं। मैंने कहा, आप छतरपुर जा रहे हैं, मैं सागर जा ही रही हूं। ससम्मान घर आईये। या जितने का एड आये, उसका आधा ले लेना। बोले, नहीं फुरसत से बताऊंगा, क्या चाहिये? अब उनके मैसेज आने शुरू हुये। तुम्हारी याद आ रही है। मैंने कहा, क्यों, तो रिप्लाई आई कि ये तो तुम्हीं बताओ, क्यों याद आ रही है। मैंने कहा, मुझे ऐसी बातें करनी नहीं आती जो कहना है साफ—साफ कहें तो कहने लगे, मैं ऐसे रूखे लोगों से बात नहीं करता। आपका नंबर डिलीट कर दूंगा। 

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मैंने कहा आप मेरे फादर से भी ज्यादा एज के हो और एक पिता के समान ही आपकी रिस्पेक्ट करती हूं तो बोले, मुझे आपकी रिस्पेक्ट की जरूरत नहीं। मैं किसी से मांगता नहीं और भी बहुत कुछ। उसके बाद उन्होंने कुछ और मैसेज भेजे, जिनका मैंने रिप्लाय नहीं दिया। उन्होंने मुझे कहा था, खजुराहो में सम्मेलन है, चलो। मैंने मना किया तो बोले तुम्हारा सम्मान करवा देंगे। मैने कहा, माफ करें सर, सम्मान की चाहत मुझे है नहीं और पत्रकार संगठनों की पत्रकारिता से दूर ही रहती हूं। उसके बाद उनके तेवर बदले।

मैं ये सोचकर काफी दिनों तक सो नहीं पाई कि कितने गंदे लोग हैं। महज थोडी सी बिना मांगी मदद करके क्या लडकियां इनकी बपौती हो जाती हैं? या हर लडकी इन्हें सिर्फ और सिर्फ प्रोस्टीट्यूट नजर आती है? मैंने दोस्तों से शेयर किया। मैं परेशान हूं। ये बात है, उनका वही घिसा—पिटा जवाब, ये समाज ऐसा ही है, क्या कर सकते हैं लेकिन क्यों है? ऐसा ये समाज? बहुत कुछ है लिखने को लेकिन अभी तो यही काफी है। बहरहाल मैने अधिमान्यता का फार्म पिछले महीने  के पहले सप्ताह में भरा था। आज जवाब मिला कमेटी देखेगी। हालांकि मुझे कोई चाव नहीं अधिमान्य पत्रकार कहलाने का लेकिन सोचा चलो देखते हैं। वो महोदय मेरे एक परिचित से कहते पाये गये कि इस महीने का तो एड करवा दिया, सब ठीक रहा तो आगे का देखेंगे। बहराहाल ये पत्रकार महोदय एक पत्रकार संघ के अध्यक्ष से पत्रकार भवन की लडाई लड रहे हैं।

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मन उब गया है ये सब देख—देखकर यशवंतजी घिन आती है ऐसे समाज पर और घुटन होती है कहां आकर फंस गये? कबतक ये सोचकर खुद को समझाते रहें। ये समाज है। यहां ऐसा ही होता है। कोई किसी लड़की की उस तकलीफ को महसूस क्यों नहीं करता, जब लोग बिना मांगे मामूली सी मदद करके उसे अपनी बपौती समझने की कोशिश करते हैं। बिस्तर से आगे सोच ही नहीं पाते। पता नहीं क्या—क्या देखना बाकी है। भाग जाना चाहती हूं इस दोयम दर्जे वाले गंदे समाज से। वो शख्स जो मुझसे ये उम्मीद पाले बैठा था, उसने अपनी पोती से मिलवाया था, करीब 22—23 साल की रही होगी। ये अपने घर की बहू बेटियों को कैसे देखते हैं न उम्र का लिहाज न रिश्तों का न इस बात का कि सामने वाला आपको किस सम्मान से देख रहा है। जब—जब किसी पुराने पत्रकार को सम्मान दिया है, भ्रम ही साबित हुआ है।

कुल मिलाकर ये कि आप अच्छा लिखते हैं, अच्छे पत्रकार हैं, सब रखिये अपनी जेब में। ये सीखिये कि तलवे कैसे चाटे जाते हैं या लोगों को खुश कैसे किया जाता है वरना मरिये भूखे। आप भड़ास में इसे लगायें या न लगायें लेकिन एक मंच आपने दिया है सो लिख के भेज रही हूं। नाम अभी किसी के नहीं बताऊंगी, सही वक्त आने दीजिये। 

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मुझे नहीं समझ आ रहा था क्या करूं सो लिख दिया। पर ऐसा कुछ करना चाहती हूं कि भविष्य में इस क्षेत्र में आने वाली लडकियों को इस तकलीफ से न गुजरना पड़े। क्या, कब, कैसे, पता नहीं? पर करूंगी जरूर।

मध्य प्रदेश की एक महिला पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित

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0 Comments

  1. Sanjeev Singh thakur

    July 8, 2015 at 5:03 pm

    Shame on such fellows. Aise logon ka apni bahan betiyon she bhi kya rishta hogs. Yeah wohi jaante gain. Jo bhi ho is bahadur ladki ko samjhauta na krne k liye salaam. Bhagwan k ghar mein der hai and her nahin.

  2. kunvar sameer shahi

    July 9, 2015 at 6:50 am

    bahut sahi baat badi himmat jutani padi yeh sab kahne ke liye apko ishwar apka sahas banaye rakhe bas…aap isi trh in kamino ko benakab karuye jisse ye kisi bhi bahan beti ko gandi nazar se dekhne ka sahas hi na kar sake ..jai ho

  3. amit

    July 9, 2015 at 11:47 pm

    Kehte hain ‘kanoon ka raaj hai’

    Lekin ye nahi kehte ki…

    Takatwar log hi kanoon hai.

    Mujhe to ye samaj nahin, jungle nazar aata hai.

  4. dinesh

    July 12, 2015 at 10:18 am

    bat bahut sahi likhi hai aapne. sambal dene wale mahila ko nirbal samjne lagte hai. apka patra dusron ko rah dikhata hai.

  5. मोनी

    July 13, 2015 at 8:00 am

    गंदे मानसकिता के लोग हरेक फिल्ड में है और वे हरेक सहयोग के बदले कुछ अनैतिक काम करवाना चाहतें हैं।ऐसी मानसकिता को खत्म करने के लिए महिला-पुरूष को समान रूप से संघर्ष करना होगा।आपने अपने से साथ हुए व्यवहार को मीडिया के एक प्लेटफार्म पर रखा है तो ऐसे विचार के लोग पढकर थोड़ी ग्लानि जरूर महसूस कर रहें होगें।

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