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सुख-दुख

भारत में सिविल सर्विसेज का मूलमंत्र- ‘ऊपर वालों की चाटो, नीचे वालों को लतियाओ!’

संजय सिन्हा-

इंगलिश में एक मुहावरा है- ‘लिक अप, किक डाउन’ (ऊपर वालों की चाटो, नीचे वालों को लतियाओ)। यही है भारत में सिविल सर्विसेज का मूल। नीचे वाले को लतियाते-लतियाते और ऊपर वाले की चाटते-चाटते ये अधिकारी इस कदर खोखले हो चुके होते हैं कि इनके जीने और नहीं जीने के बीच का फर्क मिट जाता है। जब तक ये पद पर होते हैं तब तक तो इन्हें ‘शक्तिमान’ होने का गुमान होता है। पर पद गया, शक्तिहीन।

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आदमी की शक्ति ही जब खत्म तो वो जीकर क्या करेगा?
“मैं अपनी ताकत खो चुका हूं इसलिए अब जीने की तमन्ना नहीं रही।” यूपी के उस रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी के पत्र का इतना ही सार है, जिसे उन्होंने मरने के समय लिखा और कहा कि उनकी मृत्यु के लिए कोई और ज़िम्मेदार नहीं, वो खुद हैं।”
‘उसने कहा था’ कहानी में गुलेरी जी ने लहना सिंह के संदर्भ में मृत्यु को कुछ इस तरह परिभाषित किया है-


“मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म भर की घटनाएं एक-एक कर सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिलकुल उन पर से हट जाती है।”
संजय सिन्हा भी मानते हैं कि मृत्यु के समय आदमी का पूरा जीवन चक्र उसकी आंखों के आगे घूम जाता है। उसके अपने किए, लिए, दिए का हिसाब बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है।
एक आईपीएस अधिकारी का ये कहना कि वो अपनी ताकत खो चुके हैं, इसलिए जीना नहीं चाहते, उनकी किस कमजोरी को उजागर करता है?

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रंगो-रस (मौज) खत्म हो जाने का दंश? दस्तरस (ताकत) खो देने का अफसोस?


वो आदमी कमजोर होता है, जो नकली संसार को जीता है। मैंने क्योंकि ब्यूरोक्रेटिक परिवार का दंश बहुत करीब से सहा है, इसलिए मैं कह सकता हूं कि भारत में सिविल सेवा के नाम पर जो लोग इतराते हैं, असल में वो एक दंभ के सिवा कुछ और नहीं जीते।

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आप किसी भी उस नौजवान से पूछें जो इस नौकरी में आना चाहता है कि तुम क्यों सिविल सेवा में जाना चाहते हो तो वो यही कहेगा कि उसके भीतर देश सेवा की भावनाएं हिलोरें मार रही है। पर ऐसा होता है क्या? वो इस नौकरी में जाता है, सनक की हद तक हनक को जीने। किसी की मदद करने नहीं अपनी जिंदगी संवारने। सुख भोगने। ताकत को जीने।


बहुत पहले मुझसे एक आईएएस अधिकारी ने कहा था कि इस नौकरी से बढ़ कर दूसरी नकली नौकरी नहीं है। वो आता सिंगापुर बना देने के ख्वाब के साथ है, जाता एक उजाड़ जिला छोड़ कर है।

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एक पुलिस वाले से आम जनता क्यों डरती है? कहीं एक मास्टर साहब और कलेक्टर साहब साथ बैठे हों, तो लोग मास्टर साहब को छोड़ कर कलेक्टर साहब से क्यों सटते नज़र आते हैं? जबकि आम आदमी का कलेक्टर साहब से कोई वास्ता नहीं होता, मास्टर साहब से होता है। ये औपनिवेशिक सोच है जो हमारे भीतर जड़ जमा कर बैठी है। हम मान चुके हैं कि ये परीक्षा बहुत कठिन है, इसे पास करने वाला खास होता है। लोग एसपी से दोस्ती को जनम-जनम तक गिनाते हैं। मास्टर की दोस्ती याद नहीं रहती। यही भाव अंत समय तक पीछा करता है।


सच्चाई क्या है? लोगों में भय व्याप्त करके सत्ता का सुख भोगने के सिवा और क्या? वो काम कर ही नहीं सकते हैं। उनकी ट्रेनिंग नहीं काम करने की होती है। उलझाने की होती है। फंसाने की होती है। तंग करने की होती है। ऐसे लोग बस सनक को जीते हैं। सलामी को जीते हैं। इसी को काम समझते हैं। इसी को अपना हक समझते हैं। ऐसे में जब तक टूं, टूं करती गाड़ी है, ताकत है। गाड़ी गई, ताकत भी गई।

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हमारे परिजन मनोहर लाल लुधानी जी मुझसे पूछते हैं कि सोलह हज़ार हार्ट की सर्जरी करने वाले युवा डॉक्टर की हार्ट फेल हो जाने से मृत्यु हो गई उस पर मैं क्यों नहीं लिखता? क्या लिखूं? मृत्यु पर किसी का वश है क्या? डॉक्टर साहब मर गए, उन्हें भी कैसे पता होता कि उनका दिल साथ नहीं देने वाला? इसे विधि का विधान मान कर चुप्पी साधनी पड़ती है।


पर जो लोग खुद को खत्म करते हैं उनसे पूछिए तो सही, कितने लोग आपके कारण खत्म हुए?

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मैं जिस घटना का उल्लेख कर रहा हूं, उसमें मसला है सिस्टम।
जैसे शादी ब्याह में विधवा विलाप मुहावरा प्रचलित है कि हाय मुन्ना के पापा थे तो ऐसा था, वैसा था, वैसे ही ये रिटायर हो चुके अधिकारी भी अधिकारी विलाप करते हैं। “मैं था तो ऐसा था, वैसा था।”


सच्चाई क्या है, सब वैसा था, जैसा है। न उन्होंने कुछ किया, न उनके पहले वालों ने कुछ किया था।

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पद, पैसा, हनक लोगों पर राज करने के औजार हैं। जब तक औजार है आप ताकतवर हैं। औजार न होने पर कमजोरी का अहसास तो होगा ही।


ऐसे में जो बचे रहते हैं, वो रोज मरते हैं। जो मर जाते हैं, वो तो मर ही जाते हैं। जीते वो हैं, जो जनता की खुशियों के हिस्सेदार होते हैं।

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फर्क जीने और मर जाने का

सुकरात चाहते तो कैद से भाग सकते थे। उनके शिष्य प्लैटो ने सुकरात को जेल से भगाने की योजना बना ली थी। सुकरात को सजा मिली थी कि कैद में उन्हें जहर का प्याला पीना पड़ेगा।
सुकरात के विचार से यूनानी समाज इस कदर डरा हुआ था कि कहीं सबने सुकरात को सुनना शुरू कर दिया तो ये आदमी सभी पुरानी परम्पराओँ को तोड़ देगा। इससे राजतंत्र, धर्मतंत्र के प्रभावशाली लोगों का प्रभाव कम होगा। लिहाजा वो सब एकजुट हो गए, सुकरात के विरुद्ध। सबने मिल कर सुकरात पर युवाओं को बिगाड़ने और ईश्वर की निंदा करने का आरोप लगाया और उन पर मुकदमा चलाया। सजा मिली विष पीकर मरने की। तारीख तय हुई, उन्हें कोठरी में बंद कर दिया गया।

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मुझे आज सुकरात क्यों याद आ गए?

बात इतनी-सी है कि जब आप बोलेंगे, कुछ नया कहेंगे तो वो लोग डरेंगे, जिन्होंने भय की अपनी दुकान जमा रखी है। जिनके पास धर्म, ईश्वर के नाम पर भयभीत करने के सिवा कुछ नहीं वो आपके विचार नहीं सह सकेंगे। वो एकजुट हो जाएंगे। ऐसे सभी लोग यूनानी समाज की उसी मानसिकता को जीते हैं, जिसमें सुकरात को मिल कर कैदी बना लिया गया और विष पीने को मजबूर कर दिया गया।

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सुकरात चाहते तो यूनानी हुक्मरानों से माफी मांग सकते थे। कह सकते थे कि कहा-सुना माफ कीजिए। अब कुछ नहीं कहूंगा। जो कहूंगा आपकी स्तुति में कहूंगा। या फिर वो कैद से भाग सकते थे। प्लैटो ने पूरी योजना बना ली थी। लेकिन सुकरात ने यूनानी हुक्मरानों से माफी नहीं मांगी। इतना ही नहीं, उन्होंने कैद से भागने से भी मना कर दिया था। कहा था, “मुझे मत बचाओ प्लैटो। मेरे बचने से समाज को नुकसान होगा। न मुझे माफी मांगनी है, न कैद से भागना है। मरना मंजूर है।”


“गुरुदेव, आपके नहीं होने से समाज को नुकसान होगा। ये पोंगा समाज है। पूरे यूनान पर उन्हीं का राज है और वो अपने राज में ज्ञान को नहीं बढ़ने देंगे। वो लोगों को धर्म के नाम पर कायरता का पाठ पढ़ाएंगे। समाज को पीछे ले जाएंगे। शिक्षा के नाम पर रूढ़ी पढ़ाएंगे। गुरुदेव भाग चलिए। उन्हें शिक्षक से अधिक कथावाचक पसंद हैं। प्लीज़ गुरुदेव चलिए, भाग चलिए।”

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स्कूल में उपेंद्र मास्टर सुकरात की कहानी सुनाते थे। मैं ध्यान से सुनता था।


मास्टर साहब कहानी सुना रहे थे। सुकरात के जहर पीने का समय करीब आ चुका था। छुप कर प्लैटो कैद में पहुंच चुके थे। सुकरात से भाग चलने को या माफी मांग लेने को कह रहे थे।

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मास्टर साहब रुके। संजय सिन्हा का दिल धक-धक कर रहा था। क्या चुना सुकरात ने? माफी, भागना या मर जाना?


“आगे क्या हुआ मास्टर साहब? सुकरात भागे या मारे गए? संजय सिन्हा ने उपेंद्र मास्टर से पूछ ही लिया था।

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“तुम बताओ क्या हुआ होगा? सुकरात को माफी मांगनी चाहिए थी, भागना चाहिए था या मृत्यु का सामना करना चाहिए था?”
बहुत कठिन प्रश्न था। दोनों ओर से। यही मैंने पूछा था। यही मास्टर साहब ने पूछा था।

माफी मांग लेते तो जान बच जाती, पर ज्ञान का दामन छूट जाता। भाग जाते तो छुपे फिरते लेकिन ज्ञान बांट सकते थे। छुप कर ही सही। लेकिन मर गए फिर क्या? फिर कौन याद रखेगा सुकरात को?

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विकट सवाल था। सुकरात क्या करेंगे? क्या फैसला लेंगे?

उपेंद्र मास्टर साहब ने मेरी ओर देखा। थोड़ी देर चुप रहे। फिर कहने लगे। “संजू बेटा, सुकरात ने जहर का प्याला पकड़ लिया। उन्होंने मरना चुन लिया।”

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“ओह! कितना बुरा हुआ। बेचारे प्लैटो को कितनी तकलीफ हुई होगी।”


“नहीं, प्लैटो उन्हें कैद से भगाने के लिए वहां गया जरूर था पर वो वहां से जब लौटा तो नए ज्ञान के साथ लौटा था।”

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सुकरात ने प्लैटो से कहा था, “प्लैटो, अगर मैं माफी मांग कर बच गया या भाग गया तो मेरा शरीर तो बच जायेगा लेकिन मेरे विचार मर जाएंगे। लेकिन मैं विष का प्याला पीकर मर गया तो मेरे विचार जीवित रहेंगे। मैं अपने विचारों का जीवित रहना पसंद करूंगा। जो लोग अपने विचारों को मार कर सत्ता के साथ जीना चाहते हैं, वो असल में मरे हुए लोग होते हैं। उनका शरीर भले जीवित रहेगा, पर वो बहुत पहले मर चुके लोग हैं। प्लैटो, मैं माफी मांग कर, भाग कर नहीं जीना चाहता।”

और उन्होंने खुद ज़हर का प्याला उठाकर पी लिया।

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उपेंद्र मास्टर साहब ने मुझे पढ़ाया था कि सुकरात 469 ईसा पूर्व जन्में महान दार्शनिक थे। उन्होंने कहानियां सुना कर पुरातन रूढ़ियों पर प्रहार किया। वो सुबह कुछ लोगों को इकट्ठा कर ईमानदारी, सच्चे और दृढ़ संकल्प रहने की कहानियां सुनाते थे। कहानियां सुन कर लोगों में बदलाव आना शुरू हुआ तो सत्ता मद में बंधे अंध भक्तों को ज्ञान-विज्ञान की बातें नागवार गुजरने लगीं। ऐसा कैसे होगा? धरती शेषनाग के फन पर टिकी है। ये क्या विज्ञान पढ़ा रहा है? इससे तो सत्ताधारियों की सत्ता चली जाएगी। लोग जागरूक होने लगेंगे। पकड़ो इसे। मारो इसे।

सुकरात पकड़ लिए गए। मार भी दिए गए। न उन्होंने माफी मांगी, न भागे।

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समय साक्षी है। सुकरात का शरीर मर गया। लेकिन उनके विचार अमर हो गए। शिष्य प्लैटो, अरस्तू और फिर संजय सिन्हा ने उनके विचार आगे बढ़ाए।


आदमी शरीर से नहीं मरता है। विचारों से मरता है। सुकरात के विचार आज भी पोंगा पंडितों को मुंह चिढ़ाते हैं।

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