Connect with us

Hi, what are you looking for?

दिल्ली

छप्पन इंच का लिजलिजा सीना और केजरीवाल का हिम्मत भरा प्रयोग

Sanjaya Kumar Singh : 56 ईंची का लिजलिजा सीना… नई सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से सूचना के सामान्य स्रोतों और परंपरागत तरीकों को बंद करके सेल्फी पत्रकारिता और मन की बात जैसी रिपोर्टिंग शुरू की है। प्रधानमंत्री विदेशी दौरों में पत्रकारों को अपने साथ विमान में भर या ढो कर नहीं ले जाते हैं इसका ढिंढोरा (गैर सरकारी प्रचारकों द्वारा ही सही) खूब पीटा गया पर रिपोर्टर नहीं जाएंगे तो खबरें कौन भेजेगा और भेजता रहा यह नहीं बताया गया। प्रचार यह किया गया कि ज्यादा पत्रकारों को नहीं ले जाने से प्रधानमंत्री की यात्रा का खर्च कम हो गया है लेकिन यह नहीं बताया गया कि कितना कम हुआ? किस मद में हुआ? क्योंकि, विमान तो वैसे ही जा रहे हैं, अब सीटें खाली रह रही होंगी। जो जानकारी वेबसाइट पर होनी चाहिए वह भी नहीं है। कुल मिलाकर, सरकार का जनता से संवाद नहीं है।

<p>Sanjaya Kumar Singh : 56 ईंची का लिजलिजा सीना... नई सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से सूचना के सामान्य स्रोतों और परंपरागत तरीकों को बंद करके सेल्फी पत्रकारिता और मन की बात जैसी रिपोर्टिंग शुरू की है। प्रधानमंत्री विदेशी दौरों में पत्रकारों को अपने साथ विमान में भर या ढो कर नहीं ले जाते हैं इसका ढिंढोरा (गैर सरकारी प्रचारकों द्वारा ही सही) खूब पीटा गया पर रिपोर्टर नहीं जाएंगे तो खबरें कौन भेजेगा और भेजता रहा यह नहीं बताया गया। प्रचार यह किया गया कि ज्यादा पत्रकारों को नहीं ले जाने से प्रधानमंत्री की यात्रा का खर्च कम हो गया है लेकिन यह नहीं बताया गया कि कितना कम हुआ? किस मद में हुआ? क्योंकि, विमान तो वैसे ही जा रहे हैं, अब सीटें खाली रह रही होंगी। जो जानकारी वेबसाइट पर होनी चाहिए वह भी नहीं है। कुल मिलाकर, सरकार का जनता से संवाद नहीं है।</p>

Sanjaya Kumar Singh : 56 ईंची का लिजलिजा सीना… नई सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से सूचना के सामान्य स्रोतों और परंपरागत तरीकों को बंद करके सेल्फी पत्रकारिता और मन की बात जैसी रिपोर्टिंग शुरू की है। प्रधानमंत्री विदेशी दौरों में पत्रकारों को अपने साथ विमान में भर या ढो कर नहीं ले जाते हैं इसका ढिंढोरा (गैर सरकारी प्रचारकों द्वारा ही सही) खूब पीटा गया पर रिपोर्टर नहीं जाएंगे तो खबरें कौन भेजेगा और भेजता रहा यह नहीं बताया गया। प्रचार यह किया गया कि ज्यादा पत्रकारों को नहीं ले जाने से प्रधानमंत्री की यात्रा का खर्च कम हो गया है लेकिन यह नहीं बताया गया कि कितना कम हुआ? किस मद में हुआ? क्योंकि, विमान तो वैसे ही जा रहे हैं, अब सीटें खाली रह रही होंगी। जो जानकारी वेबसाइट पर होनी चाहिए वह भी नहीं है। कुल मिलाकर, सरकार का जनता से संवाद नहीं है।

प्रधानमंत्री भले दावा करें कि वे गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले से सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हैं पर यह नहीं बताते कि उस समय कौन सी मीडिया पर ऐक्टिव थे। एकतरफा संवाद चल रहा है। जवाब वो देते नहीं सिर्फ मन की बात करते हैं। औचक भौचक लाहौर की यात्रा कर आए लेकिन उससे देश का क्या भला हुआ या होने की उम्मीद है इस बारे में कुछ बताया नहीं गया और पठानकोट हो गया। इसमें कोई शक नहीं कि पहले मामले को दबाने और कम करने के साथ-साथ लापरवाहियों को छिपाने की कोशिश की गई। अभी भी कोई अधिकृत खबर नहीं आ रही है और मीडिया ने मुंबई हमले के समय जो जैसी रिपोर्टिंग की थी वैसे ही कर रही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ना मीडिया को जनता या देश या मुश्किल में फंसे लोगों की चिन्ता है और ना सरकार में उनकी भलाई की ईच्छा शक्ति। नुकसान कम या मामूली है यह बताने की कोशिश हर कोई कर रहा है। सरकारें अमूमन ऐसी ही होती हैं। इस सरकार से भी कोई उम्मीद नहीं करता अगर ये लव लेटर लिखने का मजाक उड़ाकर सत्ता में नहीं आए होते। पर लव लेटर लिखने वाले उतना तो कर रहे थे तुमसे तो जिसपर लव लेटर लिखना बनता है उधर गर्दन नहीं घुमाई जा रही। 56 ईंची सीना इतना लिजलिजा हो सकता है यह अंदाजा किसी को नहीं था। बात सिर्फ पठानकोट या पाकिस्तान पर हमला करने या उससे निपटने की नहीं है। आप तो अरविन्द केजरीवाल को हैंडल नहीं कर पा रहे हैं। आरोप लगा दिया कि ऑड ईवन फार्मूला भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए है और पर्दा डालने के लिए नजीब जंग को छोड़ दिया। वो भी ऐसे कि खुद को छूट मिल गई तो ऑड ईवन में जनता की याद नहीं आई पर दिल्ली सरकार डीडीसीए की जांच नहीं कर सकती है।

दिल्ली सरकार पूरी दिल्ली को (उपराज्यपाल और केंद्रीय मंत्रियों को छोड़ दे तो) नचा सकती है लेकिन डीडीसीए के घोटाले की जांच नहीं कर सकती (क्योंकि घोटाला तब हुआ तब भाजपा का असरदार नेता उसका अध्यक्ष था)। गैर सरकारी प्रचारक ये बताने में लगे हैं कि आज मेट्रो में बहुत भीड़ है। जो मेट्रो से नहीं चलता है वो जानता है कि बहुत भीड़ होती है। फोटो देखता रहा है और जो चलता है उसे पता है शुरू से हो रही है। फिर भी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

xxx

यह प्रयोग गैर जरूरी नहीं है… दिल्ली में ऑड ईवन फॉर्मूला के बारे में आप जो चाहें कहने और राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं (भाषा की शालीनता उसे गंभीर बनाती है) और मैं इस स्वतंत्रता का घनघोर समर्थक हूं। पर केजरीवाल जो कर रहे हैं वह प्रयोग है, शुरू से। कहा था कि जनता अगर नहीं चाहेगी तो इसे लागू नहीं किया जा सकता है और दिल्ली पुलिस ने स्पष्ट कर दिया था कि स्वयंसेवी लोगों को रोक नहीं सकेंगे। फिर भी ऑड-ईवन चल रहा है तो इसलिए कि इसे जनता का समर्थन है। हो सकता है विरोधी फेस बुक पर ही हों या फिर 2000 रुपए के जुर्माने या किसी और कारण से [इसमें सरकार विरोधी, (मोटे तौर पर भक्त) कहलाना शामिल है] मेट्रो में यात्रा कर रहे हों। कुछेक भक्त समझते हैं कि सत्ता चाटुकार या भक्त ही बनाती है पर सच यह है कि सत्ता के समर्थक और विरोधी होते ही हैं। ऐसे में, दिल्ली में प्रदूषण के मद्देनजर यह प्रयोग लाजमी हो ना हो, गैर जरूरी नहीं है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसके बावजूद केजरीवाल सरकार ने यह जोखिम उठाया है तो वह इसके विरोध के लिए तैयार होगी ही। लेकिन तथ्य यह है कि अमूमन सरकारें ऐसा जोखिम भी नहीं उठातीं। केजरीवाल को ड्रामा करना होता तो एलजी और केंद्रीय मंत्रियों को भी इसके दायरे में ले आते और अपने एलजी साब कहां पीछे रहने वाले थे। पर ऐसा नहीं करके उन्होंने यह प्रयोग करने का निर्णय किया है। शुरू के तीन दिन ठीक-ठाक गुजर जाने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि आज कुछ हो जाएगा पर अभी तक सब ठीक ही लगता है। विरोधी भी अभी तक यही कह रहे हैं कि मेट्रो में भीड़ बहुत ज्यादा है। सड़क पर आम सोमवार के मुकाबले ट्रैफिक बहुत कम है इससे कोई इनकार नहीं कर रहा है। अगर ऐसा है तो मेट्रो में भीड़ नियंत्रित करने के उपाय करने होंगे, किए जा सकते हैं। कर दिए जाएंगे।

मेट्रो से चलने वालों या अपनी गाड़ी छोड़कर जाने वालों को कैसी क्या दिक्कत हुई यह अभी पता नहीं चला है। अभी सिर्फ फोटुएं ही आई हीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा है कि 15 तारीख के बाद इसपर विचार करके आगे की योजना बनाई जाएगी। अपने बारे में खुद उन्होंने सुबह ही रेडियो पर कहा था कि वे दो अन्य मंत्रियों के साथ उनकी नैनो कार से दफ्तर जाएंगे। आरोप लगाने और मजाक उड़ाने के लिए कुछ भी कहा जा सकता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

स्कूल बसों की तरह ऑफिस बसें क्यों नहीं? सम-विषम का फार्मूला लोगों को जागरूक करने के लिए तो ठीक है। कार पूलिंग के लिए प्रेरित करने के लिए भी ठीक है। अपील करने के लिए भी अच्छा है। पर जबरदस्ती लागू करने के लिए ठीक नहीं है। अभी स्थिति यह है कि जिसके पास एक गाड़ी है वह दूसरी खरीदने की सोच रहा है और जिसके पास नहीं है उसे लिफ्ट मिलने की संभावना आधी रह गई है या उससे भी कम क्योंकि वह पूलिंग वाले साथियों को प्राथमिकता देगा। बगैर सार्वजनिक परिवहन को ठीक और दुरुस्त किए कोई भी पाबंदी लगाई जाए गाड़ियों की संख्या बढ़ेगी, घटेगी नहीं। और भारत में सार्वजनिक परिवहन को ऐसा बनाना कि कार वाले उसमें (स्वेच्छा से) चलने लगें, दुरुह है।

दिल्ली में प्रदूषण का कारण पड़ोसी राज्यों से रोज आने और वापस चले जाने वाले वाहनों की बड़ी संख्या भी होती है। ऑड ईवन में इनके मामले में भी वही व्यवहार होगा पर गाजियाबाद, गुड़गांव, नोएडा और फरीदाबाद में चलने वाली गाड़ियां अपने इलाके में जो प्रदूषण फैलाती हैं उसका असर क्या दिल्ली नहीं पहुंचेगा? ऐसे में सिर्फ दिल्ली वालों से उम्मीद करना उनके साथ ज्यादती भी है। जहां तक सड़कों पर गाड़ियों के कारण प्रदूषण का सवाल है, मेट्रो चलने के बाद बहुत सारे लोग वैसे ही गाड़ी और मोटर साइकिलों से दफ्तर नहीं जाते हैं और इसका पता मेट्रो स्टेशन पर खड़ी गाड़ियों से लगता है। ज्यादातर मेट्रो स्टेशन पर पार्किंग की जगह कम पड़ जाती है। और भी लोग सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें इसके लिए सार्वजनिक परिवहन को बेहतर करना होगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कार से दफ्तर जाने वाले के लिए मेट्रो से दफ्तर जाना मुश्किल ही नहीं कई मामलों में असंभव भी है। हर कोई खड़े होकर यात्रा नहीं कर सकता। बाकी पार्किंग से प्लैटफॉर्म तक पहुंचना भी आसान नहीं है। इतनी परेशानी के बाद जो प्रदूषण कम होगा वह किसी मंत्री या लाट साब की सरकारी गाड़ी किसी भी क्षण पूरा कर देगी। अगर वाकई सड़क पर गाड़ियां कम करनी है तो स्कूल बसों की तरह ऑफिस बसें (गाड़ियां) चलाई जानी चाहिए। हालांकि, बहुत सारे अभिभावक भिन्न कारणों से बच्चों को भी कार से स्कूल छुड़वाते हैं। इसके कारण देखते हुए ऐसे उपाय किए जाने चाहिए कि ऐसी गाड़ियों का बंदोबस्त किया जाए जो लोगों को घर से ले जाए और वापस घर छोड़े समय से, आराम से। यह काम ऑफिस वाले भी कर सकते हैं और कर्मचारी भी आपसी सहयोग से कर सकते हैं। रोज गाड़ी से दफ्तर जाने वालों के लिए इससे कम कोई उपाय उन्हें मजबूर करना है। कभी-कभी जाने वालों या जिसके पास कार खरीदने के पैसे ही ना हों उसकी बात अलग है। प्रदूषण के प्रति लोगों को जागरूक और प्रेरित करने का लाभ यह हो कि लोग मोहल्ले के बाजार तक पैदल जाने लगें, मेट्रो स्टेशन तक पैदल चले जाएं – वह भी कम नहीं होगा और भीड़-भाड़ भी काफी कम हो जाएगी।

लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने अनुवादक हैं. उनका ये लिखा उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

0 Comments

  1. dd-Even

    January 5, 2016 at 2:26 am

    इस खबर को डिटेल से पढ़ने की चाहत में भड़ास पर आया था लेकिन मिली नहीं

Leave a Reply

Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement