Abhishek Parashar : पहले तैयारी कर राष्ट्र के नाम संबोधन होना चाहिए था. देश में हर व्यक्ति के पास संसाधनों को जमा करने की हैसियत नहीं थी. लेकिन नहीं राष्ट्र के नाम संबोधन जरूरी था और नतीजा, अप्रत्याशित स्तर पर मजदूरों का पलायन शुरू हो गया. यह हड़बड़ी में की गई नोटबंदी की तरह ही लिया गया फैसला था. जैसे नोटबंदी असफल साबित हुई, वैसे ही यह पलायन देश लॉक डाउन के मकसद को असफल कर देगा. और माफ कीजिए, यह समय सरकार से कठिन सवाल पूछने का भी है. लॉक डाउन केवल शहरी लोगों को बचाने के लिए नहीं है. यह देश जितना शहरों में हैं, उससे अधिक गांवों में हैं. गांव बर्बाद होंगे तो आप बच नहीं पाएंगे.
और समझ क्या है आपको देश की और अर्थव्यवस्था की? पत्रकारिता के नाम पर जाहिलियत और मक्कारी के अलावा आपको कुछ पता होता तो यह सवाल पूछा जाता कि जो मजदूर पैदल ही अपने गांवों की तरफ निकल पड़े हैं, जिनके साथ उनके बच्चे और पत्नियां हैं, उसकी इस हालत की जवाबदेही किसकी बनती है? ग्रामीण अर्थव्यवस्था अगर चौपट हुई तो पूरी अर्थव्यवस्था के भड़भड़ा कर गिरने में देर नहीं लगेगी?
गांवों के बारे में कितना पता है तुम्हें? गांवों में अभी गेहूं के कटनी की शुरुआत होनी है, वह फसल पहले ही असमय बारिश और तूफान से खराब हो चुकी है. समय पर कटनी नहीं हुई तो देश में खाद्य संकट अलग से पैदा होगा. वहीं गेहूं, जिससे बने आटे को तुमने अपने घरों में छोटे-छोटे पैकेटों में स्टोर कर रखा है, बल्कि जमाखोरी कर रखी है. जिन्होंने उसे तुम तक पहुंचाया, वह ऐसा नहीं कर पाए और मजबूरी में उन्हें पैदल ही दिल्ली से गांवों की तरफ निकलने के लिए मजबूर होना पड़ा. अभी दलहन को खेतों से बाहर लाना है, लेकिन पुलिस सीधे लाठी मारने लग रही है. यह तस्वीर क्या बताती है? यह लॉक डाउन के मकसद पर हंसती तस्वीर है. तुम खुश हो सकते हो कि तुमने थाली पीट ली…लेकिन सवाल पूछे जाएंगे? यह तस्वीर सरकार की तैयारियों पर तमाचा है. यह तस्वीर बताती है कि देश में सरकार बस राजनीति के लिए है…वह समाधान के लिए बिलकुल नहीं है. वह केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपना चेहरा बचाने के लिए हैं. यह तस्वीर गवर्नेंस के दावे पर सबसे बड़ा सवाल है. यह तस्वीर बता रही है कि सरकार कहीं नहीं है. जो है उसे बस पांच सालों के लिए चुना गया है. वह आपदा के समय आपको नहीं बचा सकती. उसके पास कोई प्रबंधन नहीं है.
Anupam : मन व्यथित करने वाली खबरें आ रही हैं। कोई दिल्ली से पैदल ही 200 किमी दूर बुंदेलखंड जा रहा है। तो कोई अपना रिक्शा लेकर दिल्ली से बिहार के लिए निकल गया। कौन कहाँ तक पहुँच पायेगा पता नहीं। लेकिन ऐसे कई परिवार हैं जो अब शहरों में रह नहीं सकते क्यूंकि काम नहीं है और पैसे नहीं बचे।
कहीं कोरोना से बचने की जद्दोजहद में लोग भुखमरी से न मरने लग जाएं। हम लोग जो कर सकते थे वो कर रहे हैं। लेकिन ऐसे ज़्यादातर लोगों से संपर्क हो पाना ही नामुमकिन है। कहीं कहीं जहाँ स्थानीय डीएम या एसपी संवदेनशील हैं वो अपने स्तर पर कुछ कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इतने महत्वपूर्ण मसले के लिए केंद्रीय या राज्यस्तरीय समन्वय क्यों नहीं है? क्या सरकार को दिखता नहीं कि देश में करोड़ों ऐसे गरीब हैं जो इस वक़्त भारी संकट में होंगे?इधर आप हम जैसे कई लोग इस बात से चिंतित हैं कि 21 दिन की बोरियत कैसे दूर करेंगे। उधर हमारे ही कई देशवासी अपने परिवारों को लेकर भूखे पेट सड़कों पर रो रहे हैं।
Pushya Mitra : जगह जगह से खबर आ रही है कि प्रवासी मजदूर थोक के भाव में अपने घरों के लिये पैदल ही निकल पड़े हैं। मेरा अनुभव है कि इस यात्रा में भूख से अधिक घर पहुंचने और इस संकट में अपने लोगों के बीच रहने का बोध है। भावुकता है। अगर उन्हें सही तरीके से समझाया जाए और उनकी वाजिब जरूरतों की पूर्ति कर दी जाए तो उन्हें उनके जगह पर रोका जा सकता है। सरकार, स्थानीय प्रशासन और हम सबको इस दिशा में ध्यान देना चाहिये।
सरकार को इस बात का भी कड़ाई से पालन करना चाहिये कि कोई फैक्टरी वाला इस वक़्त अपने मजदूरों को भगाए नहीं, उनके रहने की जगह से बेदखल न करे। अभी घर से निकला तो देखा कि सड़क किनारे सात आठ निर्माण मजदूर अपने टेंट में आराम से थे। बाहर से ही आलू की एक बोरी दिख रही थी। मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि कोई दिक्कत नहीं है। मैंने उनसे फिर कहा, जब भी दिक्कत हो बताईयेगा। अभी घर भागने के चक्कर में मत पढ़ियेगा। वे भी आश्वस्त दिखे।
Navneet Mishra : उन मजदूरों के दर्द का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, जो बेचारे दिल्ली से पैदल ही UP और बिहार के सुदूर गांवों के लिए निकल पड़े हैं। पेट में दाने नहीं हैं। जेब में पैसे नहीं हैं। भूखे प्यासे चले जा रहें हैं। रास्ते में खाना तो नहीं मिल रहा पुलिस क़ी लाठियां जरूर मिल रही।
सड़क पर कौन किस मजबूरी में निकला है यह भी प्रशासन को देखना जरूरी है। हर कोई तफरी लेने सड़क पर नहीं निकल रहा। जेब में पैसे हों, किचेन में सामान हों तो कौन इस हालत में घर से बाहर निकलना चाहेगा। अगर दिल्ली में किसी के पास कामचलाऊ इंतजाम हो तो कौन इस मुश्किल घड़ी में 500 से 1000 KM, क़ी पदयात्रा पर निकलना चाहेगा।
8 से 10 हजार रुपए कमाने के लिए बीवी-बच्चों से दूर दिल्ली रहने वाले मजदूरों से ज़ब काम धंधा छिन गया। रोजी-रोटी के लाले पड़ गए। सामने कोई विकल्प नहीं दिख रहा। सरकारी घोषणाएं कब सुविधाएं बनकर मिलेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। तब घर जाने के लिए सड़क पर निकले इन मजदूरों को लापरवाह कहकर मै तो नहीं कोस सकता। शासन-प्रशासन को ऐसे ग़रीबों को घर छोड़ने से लेकर अन्य तरह क़ी उचित सहायता करनी चाहिए। नहीं तो कोरोना से बाद में कोई मरेगा और भूख से पहले।
Shesh Narain Singh : जिन लोगों का काम छूट गया है और दैनिक मजदूरी करके पेट भरते थे, उसके बारे में कोई योजना बनाये बिना लाकडाउन की घोषणा नहीं करनी चाहिए थी. जनता कर्फ्यू के बाद यह राजाओं के दिमाग में क्यों नहीं आया . बहर हाल अब तो ध्यान देना चाहिए. सबसे बड़ी प्राथमिकता अब यही होनी चाहिए. जो लोग दैनिक मजदूर थे उनको भोजन और जो लोग पैदल ही चल पड़े हैं उनको किसी तरह उनके गाँव पंहुचा दिया जाय. राज्य सरकारों को मोदी सरकार की तरफ से निर्देश दिया जाय कि जो लोग पैदल जाते मिलें, उनसे मारपीट न करें, उनकी जांच आदि करके बस से उनके गाँव पंहुचाएं .
Ashish Abhinav : निःशब्द हूं! रूम के सामने से सैकड़ों की संख्या में यूपी-बिहार के मजदूर पैदल घर जा रहे हैं! सड़कों पर पुलिस भी है, पर बेबस! जो औरतें घर जा रही हैं उनकी गोद में 2 महीने से लेकर 2 साल तक के बच्चे हैं! सरकार तुरंत एक्शन ले!
Ashwini Kumar Srivastava : अगर 21 दिनों के लिये बंद नहीं होता देश तो कोरोना ढा देता कहर, अब 21 दिन देश बंद होने के बाद कोरोना से बच भी निकले तो आर्थिक तबाही और भुखमरी से जूझना होगा इससे भी बड़ी चुनौती…. 21 दिनों का लॉकडाउन करने की जल्दी थी क्योंकि एक-एक दिन कोरोना से चल रहे इस महायुद्ध में बहुत भारी पड़ रहा है… मगर अब सरकार को जिससे जूझना है, वह तो शायद सरकार के लिए कोरोना से जूझने से भी ज्यादा मुश्किल होने वाला है। क्योंकि अब पहले तो सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि घरों में कैद लोगों के पास तक दवाई, इलाज, राशन, दूध, पानी आदि उनकी जरूरत के वक्त और लगभग रोज ही कैसे पहुंचेगा? यही नहीं, सरकार को यह भी देखना है कि रोजी/रोजगार/व्यापार को छोड़कर घर पर निठल्ले और खाली होती जा रहीं जेबों के साथ बैठे लोगों का घर इस समस्या के सुलझने के बाद या इस दौरान कैसे चलेगा, उनकी किश्तें, ऑफिस/ दुकान/ मकान आदि के किराए या बिल आदि और महीने के खर्च के लिए जरूरी धन कैसे जुटेगा?
इन सब चौतरफा समस्याओं से अगर सरकार ने चमत्कारिक रूप से पार पा भी लिया तो क्या इतने लंबे समय तक काम-धंधा ठप रहने के कारण कर्ज में डूब चुके या इन हालात के चलते बर्बादी की कगार पर खड़े हुए छोटे- छोटे व्यापारियों/ दुकानदारों / किसानों आदि को दीवालिया होने से वह बचा पाएगी? दरअसल, सरकार ने इधर कुंआ उधर खाई देखकर मरता क्या न करता की तर्ज पर कोरोना से बर्बादी अथवा अर्थव्यवस्था की बर्बादी में से अर्थव्यवस्था की बर्बादी की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। अब जब कदम एक बर्बादी से बचने के लिए दूसरी बर्बादी की तरफ बढ़ ही चुके हैं तो सरकार को दोनों ही मोर्चों पर एक साथ कम से कम नुकसान होने का लक्ष्य लेकर बेहद सन्तुलित और विचारपूर्ण तरीके से आगे बढ़ना होगा…बाकी तो जो होगा, उसके लिए देश एकजुट होकर सामना करने के लिए तैयार है ही…
Krishan Bhanu : मनुष्य कोरोना से परेशान है। कुत्ते, पशु और पंछी भूख से परेशान हैं। यानी ‘नानक दुखिया सब संसार।’ मनुष्य यदि परेशान होगा तो उस पर आश्रित सब जीव-जंतु निश्चित तौर पर परेशान होंगे। आज सचमुच मनुष्य परेशान है। प्रकृति उसे उसकी औकात दिखा रही है। अम्बानी से लेकर दुर्रानी, चुटानी-भूटानी तक, सब दहशत में है। राजा और रंक का भेद मिट चुका है। सब रह-रहकर खिड़की से बाहर झांकते हैं। तब सड़क और शहर का सन्नाटा उनके भीतर के सन्नाटे को और गहरा कर देता है।
शहर में कुत्ते पेट में भूख लिए दर-दर भटक रहे हैं। होटल, ढाबे बंद हैं और मनुष्य-जीवन चार दिवारी के भीतर सिमट कर रह गया है। ऐसे में इनकी पीड़ा कौन जाने? परसों पत्रकार विहार शिमला में अचानक चार कुत्ते एकसाथ प्रकट हुए। भूखे तो थे ही, प्यासे भी थे। दो काले, एक सफेद और एक भूरा-लाल ! पत्रकार विहार में इस समय आठ परिवार रहते हैं। इन दिनों हैं भी या नहीं, कोई यह भेद नहीं जान सकता, क्योंकि चारों ओर सन्नाटा पसरा है। कोई ऊंचा सांस भी नहीं ले रहा।
बहरहाल, कुत्तों को पत्रकार विहार में रोटी मिल गई। पहले ब्रेड दी, लेकिन एक काले को छोड़कर किसी ने नहीं खाई। बाद में चपाती दी तो चट से साफ कर गए। अब यह चारों जीव, जो बोल नहीं सकते, जो सिर्फ आँखों से बात करते हैं, पत्रकार विहार में ही डट गए हैं।
आज सुबह अचानक यह देख चौंका कि चार में से एक काला कुत्ता गायब था। कहां गया होगा ? यहां अक्सर तेंदुआ भी टहलता रहता है। तेंदुआ भी तो भूखा होगा। कहीं काले को उठाकर तो नहीं ले गया ? आज ये तीनों भी उदास दिखे। जरूरी नहीं, उदास ही हों। कई बार अपने मन की उदासी दूसरों में दिखने लगती है। पूर्वाह्न 11 बजे तक उस काले का इंतजार रहा। नहीं दिखा तो दिल उदास हो गया। जीवन बेशक सुंदर है, लेकिन याद रखना जरूरी है कि इतना सा ही है।
सौजन्य : फेसबुक