Satyendra PS : एक मुहम्मद बिन तुगलक था जो दिल्ली से दौलताबाद राजधानी ले गया और उसने आदेश दिया कि सभी दिल्लीवासी दौलताबाद चलें। कुछ इसी तरह का दृश्य बना होगा उस समय। आधी आबादी रास्ते में ही मर गई तब शायद उसने राजधानी की जगह बदलने की योजना टाल दी थी।
उसने चमड़े के सिक्के चलाए और कोषागार सोने चांदी के सिक्कों की जगह चमड़े से भर गया। तुगलक के मरने पर किसी इतिहासकार ने लिखा था कि “प्रजा को राजा से मुक्ति मिली, राजा को प्रजा से।”
मौजूदा तुगलक @narendramodi को भी इतिहास नोटबन्दी से लेकर देशबन्दी तक याद रखेगा। यह दृश्य देशबन्दी के दिन से आज तीसरे दिन तक जारी रहा।
ये वीडियो वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम जी ने शूट किया है।
Om Thanvi : मानो दिल्ली ख़ाली हो रही हो। ये उतर प्रदेश के प्रवासी हैं। मजबूर होकर घर लौट रहे हैं। पैदल। एक-दूसरे से सटे हुए। संकट से बेख़बर। कैसा अफ़सोसनाक मंज़र पेश आया है। यह कल शाम की बात है। भाई अजीत अंजुम ने मौक़े पर जाकर बहुत लोगों से बात की। व्यथा को शासन, प्रशासन और समाज तक पहुँचाया। बताते हैं आधी रात को उत्तरप्रदेश पुलिस ने औरतों-बच्चों सहित सबको वापस दिल्ली की ओर खदेड़ दिया।
समस्या को छुआ ही इस तरह गया है कि उसमें क्रमशः उलझने के आसार ज़्यादा हैं। वह एक वर्ग भले काफ़ी कुछ बच जाय, पर ग़रीब के आगे कुआँ पीछे खाई है।
वीडियो में जो फ़्लाईओवर है उसे मैं खूब पहचानता हूँ। दिल्ली-उत्तरप्रदेश का बॉर्डर है। इसके पार वसुंधरा में हमारा घर है। पर सवाल यह है कि इतने लोगों ने जत्थों में बहिर्गमन क्यों किया?
भारत के बँटवारे से इस आपदा की कोई तुलना नहीं की जा सकती, न उससे इसका कोई संबंध है। पर प्रवासी मज़दूरों के बहिर्गमन की तस्वीरें क्या उस ऐतिहासिक त्रासदी के गमन की याद नहीं दिलातीं? अंधेरा ढलते-न-ढलते कोई मजबूर सामान सर पर लादे था। कोई माँ-बाप को। चलते चले जा रहे हैं। संक्रमण से अनजान। अपने ‘वतन’ को। पर ग़रीब का वतन कहाँ होता है? जहाँ रोटी मिल जाय और बग़ल में कोई फ़िक्रमंद हो। अनियोजित आपदा-प्रबंध से उपजी इस अफ़रातफ़री ने उससे दोनों चीज़ों का आसरा छीन लिया है।
Subhash Chandra Kushwaha : NH24 पर लाखों गरीब मजदूरों की भीड़, जिसमें बूढ़े, जवान, बच्चे और स्त्रियां, सब एक अन्धकार में प्रवेश कर रही हैं। एक ऐसे रास्ते पर मजबूरन धकेल दिए गए हैं, जो कॅरोना से भी ज्यादा मारक हो सकता है। साथ में जो नन्हें पांव, हाईवे पर दौड़ रहे हैं, वे कई-कई दिनों से भूखे हैं। बाप के कंधे कब जवाब दे जाएं, कहा नहीं जा सकता।
शायद इन्होंने दो दिन तक इंतजार किया कि कोई व्यवस्था, उन्हें उनकी माटी तक पहुंचा दे? इनकी सुधि ले? कल हताश होकर NH पर निकल पड़े। बूढ़ी दादी भी, जो कभी भी भहराकर सड़क पर पसर सकती हैं, पानी पी-पीकर कहाँ तक जाएंगी? गांव की मिट्टी नसीब हो, न हो। इनमें से ज्यादातर, वे कामगार हैं, जो फैक्टरियों में रहकर ही काम करते थे। कुछ दंगा राहत कैम्पों में रोटी खा रहे थे। वह भी बंद हुआ। काम भी बंद हुआ। कुछ सड़कों के किनारे अस्थायी तौर पर रात गुजारते थे और कुछ झुग्गियों में।
इतिहास इनकी इस त्रासदी को शायद सदियों तक दर्ज करेगा और उस तथाकथित परमेश्वर से भी सवाल करेगा कि तुमने उनकी सुधि ली? कुछ को तो उनके घरों में पानी, बिजली के साथ रखा, उनको रोटी , कपड़ा , मकान मिला था तो गरीब सड़कों पर पैर के छाले भी सहला नहीं पा रहे।
यूँ हम अपनी लाश कांधे पर उठाए हैं।
ऐ शहर के बाशिंदों, हम गांव से आये हैं। (आदम गोंडवी)
Abhishek Srivastava : बलिया के मनियर निवासी 14 प्रवासी मजदूरों के फरीदाबाद में अटके होने की शाम को सूचना मिली। इनमें दो बच्चे भी थे, चार और छह साल के। मित्रों को फोन घुमाया गया। एक पुलिस अधिकारी के माध्यम से प्रवासियों तक भोजन पहुंचवाने की अनौपचारिक गुंजाइश बन गई। फिर भी सौ नंबर पर फोन कर के ऑफिशली कॉल रजिस्टर करवाने की सलाह उन्हें दी गई। वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। सबने समझाया, लेकिन तैयार ही नहीं हुए। बोले, पुलिस आएगी तो मारेगी। उल्टे भाई लोगों ने कैमरे में एक वीडियो रिकॉर्ड कर के भिजवा दिया, सरकार से मदद मांगते हुए कि भोजन वोजन नहीं, हमें गांव पहुंचाया जाए। बस, पुलिस न आवे।
इस घटना ने नोटबंदी के एक वाकये की याद दिला दी। नोटबंदी की घोषणा के बाद चौराहे से चाय वाला अचानक गायब हो गया था। बहुत दिन बाद मैंने ऐसे ही उसकी याद में उसका ज़िक्र करते हुए जनश्रुति के आधार पर एक पोस्ट लिखी। उसे अगले दिन नवभारत टाइम्स ने छाप दिया। शाम को मैं चौराहे पर निकला। पहले सब्ज़ी वाले ने पूछा। फिर रिक्शे वाले ने। फिर एक और रिक्शे वाले ने। फिर नाई ने पूछा। सबने एक ही सवाल अलग अलग ढंग से पूछा- “क्यों गरीब आदमी को मरवाना चाहते हो, पत्रकार साहब? आपने लिख दिया कि वो महीने भर से गायब है, अब कहीं पुलिस उसे पकड़ न ले!” एक सहज सी पोस्ट और उसके अख़बार में आ जाने के चलते मैं उस चायवाले के सारे हितैषियों की निगाह में संदिग्ध हो गया। यह मेरी समझ से बाहर था। अप्रत्याशित।
प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी श्रमिकों, गरीबों, मजलूमों पर लिखना एक बात है। मध्यमवर्गीय पत्रकार के दिल को संतोष मिलता है कि चलो, एक भला काम किया। आप नहीं जानते कि आपके लिखे को आपके किरदार ने लिया कैसे है। हो सकता है अख़बार में अपने नाम को देख कर, अपनी कहानी सुन कर, वह डर जाए। आपको पुलिस का आदमी मान बैठे। फिर जब आप प्रोएक्टिव भूमिका में लिखने से आगे बढ़ते हैं, तो उनसे डील करने में समस्या आती है। आपके फ्रेम और उनके फ्रेम में फर्क है। मैं इस बात को जानता हूं कि कमिश्नर को कह दिया तो मदद हो ही जाएगी, लेकिन उसको तो पुलिस के नाम से ही डर लगता है। वो आपको पुलिस का एजेंट समझ सकता है। आपके सदिच्छा, सरोकार, उसके लिए साजिश हो सकते हैं।
वर्ग केवल इकोनोमिक कैटेगरी नहीं है। उसका सांस्कृतिक आयाम भी होता है। यही आयाम स्टेट सहित दूसरी ताकतों और अन्य वर्गों के प्रति एक मनुष्य के सोच को बनाता है। इस सोच का फ़र्क दो वर्गों के परस्पर संवाद, संपर्क और संलग्नता से मालूम पड़ता है। अगर आप एक इंसान की तरफ हाथ बढ़ाते वक़्त उसके वर्ग निर्मित सांस्कृतिक मानस के प्रति सेंसिटिव और अलर्ट नहीं हैं, तो आपको उसकी एक अदद हरकत या प्रतिक्रिया ही मानवरोधी बना सकती है। गरीब, वंचित, पीड़ित का संकट यदि हमारा स्वानुभूत नहीं है तो कोई बात नहीं, सहानुभूत तो होना ही चाहिए, कम से कम! इससे कम पर केवल कविता होगी, जो फटी बिवाइयां भरने में किसी काम नहीं आती।