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साहित्य

राजनीति की गांठें खोलती ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’

lokendra book

जहां एक ओर दौड़-भाग भरी जिंदगी और तमाम इच्छाओं की त्वरित पूर्ति के लिए दिन-रात खपती युवा पीढ़ी के लिए साहित्य, समाज, देश और राजनीति के विषय में सोचना, लिखना, पढ़ना जैसे दूर की कौड़ी हो गया है। वहीं ग्वालियर-चंबल की धरती पर जन्मे लोकेन्द्र सिंह शैशवकाल से अपने हृदय में राष्ट्र प्रेम की लौ जलाए आ रहे हैं। इसी की तड़प है कि वे कम उम्र में ही आज देश के प्रख्यात-ख्यातिलब्ध साहित्यकारों, पत्रकारों, ब्लॉगर्स की कतार में खड़े हो गए हैं।

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जहां एक ओर दौड़-भाग भरी जिंदगी और तमाम इच्छाओं की त्वरित पूर्ति के लिए दिन-रात खपती युवा पीढ़ी के लिए साहित्य, समाज, देश और राजनीति के विषय में सोचना, लिखना, पढ़ना जैसे दूर की कौड़ी हो गया है। वहीं ग्वालियर-चंबल की धरती पर जन्मे लोकेन्द्र सिंह शैशवकाल से अपने हृदय में राष्ट्र प्रेम की लौ जलाए आ रहे हैं। इसी की तड़प है कि वे कम उम्र में ही आज देश के प्रख्यात-ख्यातिलब्ध साहित्यकारों, पत्रकारों, ब्लॉगर्स की कतार में खड़े हो गए हैं।

पत्रकारिता की पाठशाला दैनिक स्वदेश, ग्वालियर से पत्रकारिता का क, ख, ग सीखने वाले लोकेन्द्र सिंह ने नईदुनिया, पत्रिका और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में लम्बे समय तक अपनी सेवाएं देकर पहचान बनाई। उनके समसामायिक विषयों पर आलेख, कविता, कहानी और यात्रा वृतांत देशभर के पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशित होते रहते हैं। इस युवा पत्रकार और साहित्यकार ने लेखन जगत में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी किताब ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुयी है।
   
सामाजिक, सांस्कृतिक, मीडिया और राजनैतिक मसलों पर लिखने वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, चिंतक, विचारक और ख्यातिलब्ध पत्रकार लोकेन्द्र सिंह की यह प्रथम कृति पठनीय साबित हो रही है। ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’ लेखक के चुनिंदा आलेखों का संग्रह है। लोकसभा निर्वाचन- 2014 के पूर्व की सामाजिक, राजनैतिक परिस्थियों की यथार्थता पर बेबाक टिप्पणियों से भरे-पूरे छयालीस आलेखों का संकलन स्वागत योग्य प्रयत्न है। लेखक ने वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को बेहद सुंदर और भावपूर्ण अर्थ में समझाते हुए ‘अपनी बात’ में लिखा है कि ‘राजनीति कोई स्वर्णरेखा नाला जैसी है’ (ग्वालियर शहर के बीचों-बीच से निकला हुआ सबसे बड़ा नाला, जो कभी स्वर्णरेखा नदी हुआ करता था।) नाम अच्छा लेकिन चरित्र खराब। ऐसा इसलिए क्योंकि समाज के खास तबके द्वारा राजनीति को गन्दा बताया जाता है।’
   
लेखक की कथा एवं भाषा शैली विचारोत्तेजक, प्रभावपूर्ण और आंदोलित करने वाली है। मुख्यत: आतंकवाद, भ्रष्टाचार, मौजूदा सियासत को आधार बनाकर रचित इस संग्रहणीय कृति में पाठक के मानस को झकझोरने वाली बातों का समावेश किया गया है। तमाम तथ्यों और तर्कों के आधार पर लिखी गईं प्रभावशाली बातें लेखक की विश्वसनीयता और उच्च बौद्धिकता की परिचायक हैं।
   
लेखक की चिंतन शैली इस कदर जबरदस्त है कि उन्होंने अपने एक लेख में पहले ही पूर्वानुमान लगा लिया था कि अगर भाजपा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है तो संभावना है कि मोदी के प्रधानमंत्री पद की घोषणा होते ही नीतीश कुमार राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) से नाता तोड़ लेंगे। उक्त बात महज़ कुछ दिनों के बाद अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई। लेखक की वैचारिक गहराई और राष्ट्र प्रेम की जो तड़प हृदय से उपजी है, उसे लेखक ने अपने शब्दों के रूप में इस सारगर्भित कृति में उड़ेल दिया है।
   
अमूमन देखने को आता है कि समसामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों की उन्हीं दिवसों के लिए प्रांसगिकता होती है किन्तु ‘देश कुठपु‍तलियों के हाथ में’ पुस्तक को पढ़कर समझ में आता है कि इसमें संकलित लेख भविष्य के लिए ही लिखे गए हों। लेखक ने शायद इन्हें भारत के भविष्य के पाठकों के लिए ही लिखा हो। गोया कि लेखक ने राजनीति के ‘मोदी, मोदी और मोदी’, ‘इमेज सेट करने का खालिस षड्यंत्र’, ‘दामिनी कह गई-अब सोना नहीं’, ‘कुछ सवाल केजरीवाल से’, ‘तुष्टीकरण पर सुप्रीम कोर्ट की चोट’, ‘कांग्रेस को लगी मिर्ची’ जैसे छयालीस लेखों में राजनीति के लगभग सभी पहलुओं को छुआ है, जिसमें सर्वप्रथम राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद की झलक स्पष्टत: परिलक्षित होती प्रतीत होती है किन्तु लेखक ने ‘भाजपा के सेक्स लीडर’ जैसे विचारोत्तेजक लेख लिखकर पुस्तक को किसी दल या विचारधारा विशेष का अभिनन्दन ग्रन्थ होने से बचा लिया है।
   
तत्कालीन चर्चित विषयों पर लेखक ने अपने तरीके से विचार कर उसे तीखी अभिव्यक्ति प्रदान की है उनकी शैली में आकर्षण है। शीर्षकों में दृश्यात्मकता, सकारात्मकता, विश्लेषणात्मकता और काव्यात्मकता झलकती है। उनके शीर्षक पाठकों को पूरा लेख पढने को आमंत्रित करते हैं, यह भी कहा जा सकता है कि वे पढने को मजबूर करते हैं। चतुर्दिक जो परिदृश्य है, वो हताशा और निराशा को बढ़ाने वाले हैं। इनमें बदलाव आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। बात जब तथ्यों के आधार पर पूरे विश्लेषण के साथ रखी जाती है तो उसमें वजन होता है। इन लेखों की यही विशेषता है। राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्थाओं पर लेखक ने जमकर चोटें भी हैं। तटस्थ समीक्षक की दृष्टि से लेखन में राष्ट्रवाद की झलक दिखलाई पड़ती है। विषयों के चयन में विशेष दृष्टि रही है। जो विषयों की मौलिकता ला पाई है। वहीं, इसकी आवरण सज्जा ही मौन रूप से बहुत कुछ संदेश देती हुई प्रतीत होती है। तथ्यात्मक सधी हुई भावुकता जो तर्क संगत एवं वैचारिक विरलता लिए हुए है, पाठकों पर पर्याप्त प्रभाव डाल रही है।
   
पथ भ्रष्ट राजनीति को पटरी पर लाने के लिए समाज की चेतना को जागृत कर उसे बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए चेताना ही साहित्यकार और पत्रकार का सर्वोपरि संकल्प होता है। इस दृष्टि से पुस्तक के सभी आलेख उम्दा सिद्ध हो रहे हैं। उम्मीद ही वरन् यकीन है कि पुस्तक ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’ पाठकों के मानस पटल पर गहरा प्रभाव डालेगी, राजनीति को नजदीक से समझाने और उसके गंदे वातावरण से सचेत करने की दृष्टि से बेहद उपयोगी सिद्ध होगी। लेखक लोकेन्द्र सिंह को बधाईयां! इस समय चर्चा का विषय बन चुकी पुस्तक के पाठकों के बीच पहुंचने के बाद उनकी भविष्य में आने वाली कृति और रचना की प्रतीक्षा रहेगी।

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पुस्तक : देश कठपुतलियों के हाथ में
लेखक : लोकेन्द्र सिंह
संपर्क : [email protected]
मूल्य : 150 रूपये
प्रकाशक : स्पंदन
ई-31, 45 बंगले, भोपाल (मध्यप्रदेश) – 462003
दूरभाष : 0755-2765472
ईमेल : [email protected]

नीरज चौधरी समीक्षक, युवा पत्रकार और लेखक हैं।

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0 Comments

  1. neeraj

    July 27, 2014 at 2:28 pm

    नीतेश भाई, अभी ये शुरूआती समीक्षा है फिर मुझे समीक्षक व साहित्‍यकार का तमगा दे दिया गया…..आभारी हूं मैं मेरे फेवरेट मीडिया हस्‍ती यशवंत सर का, जो उन्‍होंने समीक्षा को भड़ास4मीडिया पर जगह दी.

    अपनी अूमल्‍य टिप्‍पणी देने हेतु आपका शुक्रिया

  2. Nitesh Tripathi

    July 27, 2014 at 7:13 am

    नीरज तुमअब समीक्षक हो गये……(Y)

  3. harekrishna

    July 28, 2014 at 6:26 am

    अच्छा लिखा है नीरज, कुछ नए विषयों पर भी लिखो.

  4. indian

    April 17, 2015 at 7:56 am

    अच्छा लिखा है नीरज

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