सनातनी स्प्रीचुअल टीवी चैनलों के जनक माधवकांत मिश्रा आध्यात्मिक चेतना में विलीन
पत्रकार से महामंडलेश्वर बने माधवकांत मिश्रा ( स्वामी मार्तण्ड पुरी) की कोरोना से मौत ने सनातम धर्म और पत्रकारिता के क्षेत्र को बड़ा झटका दिया है।
अस्सी-नब्बे के दशक की पत्रकारिता में लखनऊ में सफलता का हर परचम फहराने के बाद माधवकांत मिश्रा महामंडेलश्वर हो गये और स्वामी मार्तण्ड पुरी के नाम से जाने जाने लगे। आज इस महान हस्ती को भी कोरोना ने हमसे छीन लिया।
अखबारों में बतौर संपादक वो बेमिसाल थे। अच्छे पत्रकार के साथ वो बेहतरीन गुरु भी थी। लम्बे-चौड़े, गोरे चिट्टे, मृदभाषी, प्रभावशाली व्याकरण-उच्चारण वाली शुद्ध हिंदी में उनकी दिल्चस्प बातें। संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं में निपुण। अच्छे पत्रकार और संपादक के सम्पूर्ण गुण होने के साथ उनमें मैनेजमेंट, व्यवसायिक मापदंडों की समझ और लॉन्चिंग-ब्रॉडिग जैसी बड़ी ख़ूबियां थीं।
सन् 1995 से 2000 के दौरान सेटलाइट टीवी न्यूज चैनल्स के शुरुआती दौर में आध्यात्मिक चैनल की कल्पना को साकार करने वाले माधवकांत मिश्रा को सनातन धर्म की तमाम खूबियों की टीवी ब्रॉडिग का श्रेय भी दिया जायेगा।
योग गुरु बाबा रामदेव से लेकर तमाम सनातनी धर्मगुरुओं को माधवकांत मिश्रा के आध्यात्मिक टीवी चैनलों ने राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलायी। आस्था और साधना जैसे कई चैनल टीवी इंडस्ट्री में स्थापित होने के बाद ऐसे चैनलों की कल्पना हिट हो गई। और इन चैनलो के जरिये बहुत कुछ बदला। जिन बाबाओं की कल्पना हम कुटियों और जंगलों में करते थे वो बीएमडब्ल्यू से चलने लगे। बहुत सारी अच्छी बातें रहीं। लोगों में आध्यात्मिक चेतना जागी। टीवी के जरिए सनातन धर्म की तमाम खूबियां दुनिया तक पंहुंची। योग और भारतीय चिकित्सा पद्धति को भी इन चैनलों ने विस्तार दिया।
सब कुछ बदला और माधवकांत मिश्र खुद भी बदल गये। वो पत्रकार से महामंडलेश्वर हो गये और उनका नया नाम स्वामी मार्तण्ड पुरी हो गया। पत्रकारिता के पेशे में इतनी प्रभावशाली शख्सियत मैंने आज तक नहीं देखी। खबर लिखने से लेकर भाषा-शैली और फील्ड से खबर निकालने के गुण सिखाने वाले मिश्रा जी ट्रेनी लड़कों से भी दोस्तों जैसा व्यवहार करते थे।
मुझे याद है 1997 में लखनऊ में जबरदस्त शिया-सुन्नी फसाद हो रहे थे। पुराने शहर में साम्प्रदायिक दंगों की आग लगी थी। मिश्रा जी ने दंगे की कवरेज की जिम्मेदारी मुझे और अब्दुल हसनैन ताहिर को दी थी। और कवरेज में सुविधा के लिए उन जमाने में नायाब ( चौबीस साल पहले) मोबाइल फोन दिया था। बोले- तुम लोग रिपोर्टिंग करते-करते खुद शिया-सुन्नी दंगा मत करने लगना।
उनकी यादों के पिटारों में बहुत सारे दिलचस्प संस्मरण याद आ रहे हैं। एक दिन सुबह ग्यारह बजे वाली मीटिंग में पंहुचा तो उस दिन लोकल इंचार्ज की जगह वो खुद (संपादक) मीटिंग ले रहे थे। सब को एसाइनमेंट देने के बाद बोले- नवेद तुम्हें आज एसाइनमेंट नहीं मिलेगा। मैंने पूछा क्यों ! बोले तुम्हारे आने से पहले आफिस के लैंडलाइन फोन पर तुम्हारे लिए फोन आया था। एक मैसेज है- शुभम सिनेमाघर पर गुंजन तुम्हारा इंतेजार कर रही है। आज का एसाइनमेंट ये है कि तुम्हें शुभम सिनेमाहॉल में फिल्म देखना है।
इसी तरह मुझे याद है कि जब उन्होंने आस्था चैनल शुरू किया था तब बोले कि चैनल चलाने के लिए हमें आस्था से ज्यादा व्यवसायिक जरूरतों का ध्यान रखना पड़ता है। मुझसे मजाक में कहने लगे कि तुम्हें कोई बाबा-महत्मा ना मिलें तो ओसामा बिन लादेन से ही मेरा स्लॉट बिकवा दो। अच्छा पैसा देगा तो लादेन का ही प्रवचन चलवा देंगे।
पत्रकारिता छोड़ने के बाद गुरु जी भगवान के करीब और हम सब से दूर हो गये थे। कोरोना ने आज उनसे दुनिया ही छुड़वा दी। श्रद्धांजलि!
- नवेद शिकोह
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