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साहित्य

गीतों की चांदनी में एक माहेश्वर तिवारी का होना

गीतों की चांदनी में एक माहेश्वर तिवारी का होना दूब से भी कोमल मन का होना है । गीतों की चांदनी में चंदन सी खुशबू का होना है । मह-मह महकती धरती और चम-चम चमकते आकाश का होना है । माहेश्वर तिवारी के गीतों की नदी में बहना जैसे अपने मन के साथ बहना है । इस नदी में प्रेम की पुरवाई की पुरकशिश लहरें हैं तो चुभते हुए हिलकोरे भी । भीतर के सन्नाटे भी और इन सन्नाटों में भी अकेलेपन की महागाथा का त्रास और उस की फांस भी । माहेश्वर के गीतों में जो सांघातिक तनाव रह-रह कर उपस्थित होता रहता है ।  निर्मल वर्मा के गद्य सा तनाव रोपते माहेश्वर के गीतों में नालंदा जलता रहता है ।  खरगोश सा सपना उछल कर भागता रहता है ।  घास का घराना कुचलता रहता है ।  बाहर का दर्द भीतर से छूता रहता है , कोयलों के बोल / पपीहे की रटन / पिता की खांसी / थकी मां के भजन बहने लगते हैं।  भाषा का छल , नदी का अकेलापन खुलने लगता है।  और इन्हीं सारी मुश्किलों और झंझावातों में किलकारी का एक दोना भी दिन के संसार में उपस्थित हो मन को थाम लेता है ।

गीतों की चांदनी में एक माहेश्वर तिवारी का होना दूब से भी कोमल मन का होना है । गीतों की चांदनी में चंदन सी खुशबू का होना है । मह-मह महकती धरती और चम-चम चमकते आकाश का होना है । माहेश्वर तिवारी के गीतों की नदी में बहना जैसे अपने मन के साथ बहना है । इस नदी में प्रेम की पुरवाई की पुरकशिश लहरें हैं तो चुभते हुए हिलकोरे भी । भीतर के सन्नाटे भी और इन सन्नाटों में भी अकेलेपन की महागाथा का त्रास और उस की फांस भी । माहेश्वर के गीतों में जो सांघातिक तनाव रह-रह कर उपस्थित होता रहता है ।  निर्मल वर्मा के गद्य सा तनाव रोपते माहेश्वर के गीतों में नालंदा जलता रहता है ।  खरगोश सा सपना उछल कर भागता रहता है ।  घास का घराना कुचलता रहता है ।  बाहर का दर्द भीतर से छूता रहता है , कोयलों के बोल / पपीहे की रटन / पिता की खांसी / थकी मां के भजन बहने लगते हैं।  भाषा का छल , नदी का अकेलापन खुलने लगता है।  और इन्हीं सारी मुश्किलों और झंझावातों में किलकारी का एक दोना भी दिन के संसार में उपस्थित हो मन को थाम लेता है ।

क्या बादल भी कभी कांपता है ? यक़ीन न हो तो माहेश्वर तिवारी के गीत में यह बादल का कांपना आप देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं । बादल ही नहीं , जंगल और झील भी कांप-कांप जाते हैं । और इतनी मासूमियत से कि मन सिहर-सिहर जाता है । वास्तव में माहेश्वर तिवारी के गीतों में प्रेम और प्रकृति की उछाह , उस की विवशता ,  उस की मादकता का रंग अपनी पूरी गमक के साथ अपनी पूरी उहापोह के साथ उपस्थित मिलता है कि मन उमग-उमग जाता है।  माहेश्वर तिवारी की गीत यात्रा के इतने मधुर , इतने मादक, इतने मनोहर मोड़ प्रेम , प्रकृति और मनुष्यता की सुगंध में इस तरह लिपटे मिलते हैं कि जैसे मन की समूची धरती झूम-झूम जाती है । माहेश्वर के गीतों में प्रेम इस धैर्य और इस उदात्तता के साथ उपस्थित मिलता है गोया वह किसी उपन्यास का धीरोदात्त नायक हो । माहेश्वर के गीतों के रूप विधान और विलक्षण बिंब अपनी पूरी व्यंजना में प्रेम के आलोक में गुंजायमान तो होते ही हैं प्रेम का एक अलौकिक संसार भी रचते हैं । इतने देशज और मिट्टी में सने बिंब माहेश्वर तिवारी के यहां अनायास मिलते हैं , जो औचक सौंदर्य रचते हुए ठिठक कर प्रेम का एक नया वितान भी उपस्थित कर देते हैं तो यहीं माहेश्वर के गीत हिंदी गीत में ही नहीं वरन विश्व कविता में भी एक नया प्रतिमान बन जाते हैं । उन के गीतों में ही प्रेम का रूपक , बिंब और व्यंजना का अविकल पाठ अपने पूरे विस्तार के साथ प्रेम के वेग का रेशा – रेशा मन में एक तसवीर की तरह पैबस्त हो जाता है। अब सोचिए कि , लौट रही गायों के / संग-संग / याद तुम्हारी आती / और धूल के / संग-संग / मेरे माथे को छू जाती ! गायों के संग लौटती माथे को छूती धूल में सन कर जब प्रिय की याद घुलती हो तो प्रेम का यह रूप कितना उदात्त और कितना मोहक मोड़ उपस्थित कर मन में किस रुपहली तसवीर का तसव्वुर मन में दर्ज होता है । फिर एक अकेली किरण का पर्वत पार करने की जिजीविषा के भी क्या कहने ! और तो और इस चिड़िया हो जाने के मन का भी क्या करें। माहेश्वर के गीतों में प्रेम की कोंपलें फूटती है तो यातना के अनगिन स्वर भी । यह स्वर कभी थरथरा कर तो कभी भरभरा कर गिरते उठते है और मन को उद्वेलित करते हैं , मथते हैं । पानी में पड़े बताशे सा गलाते यह स्वर गुमसुम-गुमसुम , हकलाते संवाद की तरह उपस्थित होते हैं । चांदनी की झुर्रियां गिनते माहेश्वर के गीतों में बिना आहट संबंधों के टूटने का महीन व्यौरा भी है और झील के जल में डूबने गए कई भिनसारे भी ।  ऐसे जैसे कड़ाही के गरम तेल में पानी की कोई बूंद अचानक पड़ कर छन्न से बोल जाए , ऐसे ही माहेश्वर  के गीत बोलते हैं । माहेश्वर तिवारी अपने गीतों में चाबुक मारते हुए घुटन के अनगिन सांकल ऐसे ही खोलते हैं । और इन खुलती संकलन को जब माहेश्वर  तिवारी का मधुर कंठ भी नसीब हो जाता है तो जैसे घुटन और दुःख की नदी की विपदा पार हो जाती है। वह लिखते ही हैं , धूप में जब भी जले हैं पांव / घर की याद आई । हिंदी गीतों की चांदनी में माहेश्वर तिवारी का यही होना , होना है । माहेश्वर के  गीतों  का कंचन कलश इतना भरा-भरा है , इतना समृद्ध है कि क्या कहने :

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याद तुम्हारी जैसे कोई

कंचन कलश भरे।

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जैसे कोई किरन अकेली

पर्वत पार करे।

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लौट रही गायों के

संग-संग

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याद तुम्हारी आती

और धूल के

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संग-संग

मेरे माथे को छू जाती

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दर्पण में अपनी ही छाया-सी

रह-रह कर उभरे,

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जैसे कोई हंस अकेला

आंगन में उतरे।

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जब इकला कपोत का जोड़ा

कंगनी पर आ जाए

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दूर चिनारों के

वन से

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कोई वंशी स्वर आए

सो जाता सूखी टहनी पर

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अपने अधर धरे

लगता जैसे रीते घट से

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कोई प्यास हरे।

फिर वह जब  नदी , झील , झरनों सा बह कर चिड़िया हो जाने की खुशी भी किसी बच्चे की बेसुध ललक की तरह बांचते हैं और मौसम पर छा जाने की बात करते हैं तो मन वृंदावन हो जाता है :

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नदी झील

झरनों सा बहना

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चाह रहा

कुछ पल यों रहना

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चिड़िया हो

जाने का मन है

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फिर जब मूंगिया हथेली पर एक और शाम रचते हुए बांहों में याद के सीवान कसने का जो रूपक गढ़ते हैं , जो सांसों को आमों के बौर में गमकाते हैं तो उन का यह चिड़िया हो जाने का मन का मेटाफर मदमस्त हो कर मुदित हो  जाता है :

भरी-भरी मूंगिया हथेली पर

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लिखने दो एक शाम और।

कांप कर ठहरने दो

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भरे हुए ताल

इंद्र धनुष को

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बन जाने दो रूमाल

सांसों तक आने दो

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आमों के बौर।

झरने दो यह फैली

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धूप की थकान

बांहों में कसने दो

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याद के सिवान

कस्तूरी-आमंत्रण जड़े

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ठौर-ठौर।

और वह अजानी घाटियों में शीतल -हिमानी छांह के छोड़ आने का विलाप भी जब माहेश्वर अपनी पूरी मांसलता में दर्ज करते हैं तो मन के भीतर जैसे अनगिन घंटियां बज जाती हैं । मंदिर की निर्दोष घंटियां । भटका हुआ मन जैसे थिर हो जाता है प्यार की उस हिमानी छांह में । और विदा की वह बांह जैसे थाम-थाम लेती है :

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छोड़ आए हम अजानी

घाटियों में

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प्यार की शीतल-हिमानी छांह ।

हंसी के झरने,

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नदी की गति,

वनस्पति का

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हरापन

ढूढ़ता है फिर

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शहर-दर-शहर

यह भटका हुआ मन

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छोड़ आए हम हिमानी

घाटियों में

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धार की चंचल, सयानी छांह ।

ऋचाओं-सी गूंजती 

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अंतर्कथाएं 

डबडबाई आस्तिक ध्वनियां ,

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कहां ले जाएं

चिटकते हुए मनके

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सर्प के फन में

पड़ी मणियां,

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छोड़ आए हम पुरानी घाटियों में

कांपते-से पल, विदा की बांह ।

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और नंगे पावों में नर्म दूब की जो वह छुअन जाग जाए तो ? मन में रंगोली रच जाए तो ? तब कोयल बोलती है महेश्वर के गीतों में। स्वर की पंखुरी खुलती है , हंसते – बतियाते :

बहुत दिनों के बाद

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आज फिर

कोयल बोली है

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बहुत दिनों के बाद

हुआ फिर मन

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कुछ गाने का

घंटों बैठ किसी से

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हंसने का-बतियाने का

बहुत दिनों के बाद

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स्वरों ने

पंखुरी खोली है

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शहर हुआ तब्दील

अचानक

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कल के गांवों में

नर्म दूब की

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छुअन जगी

फिर नंगे पांवों में

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मन में कोई

रचा गया

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जैसे रंगोली है। 

माहेश्वर के यहां  तो पेड़ों का रोना भी इस चुप और इस यातना के साथ दर्ज होता है कि पत्ता , टहनी , सपना , शहर , जंगल सब के सब एक लंबी ख़ामोशी के साथ साक्ष्य बन कर उपस्थित हो जाते हैं :

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कुहरे में सोये हैं पेड़

पत्ता पत्ता नम है

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यह सबूत क्या कम है

लगता है

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लिपट कर टहनियों से

बहुत बहुत

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रोये हैं पेड़

जंगल का घर छूटा

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कुछ कुछ भीतर टूटा

शहरों में 

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बेघर होकर जीते

सपनों में खोये हैं पेड़

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वह एक गहरी उदासी में खींच ले जाते है आहिस्ता-आहिस्ता और कच्ची अमियों वाली उदासी शाम पर इस तरह तारी हो जाती है गोया ; भीतर एक अलाव जला कर / गुमसुम बैठे रहना / कितना / भला-भला लगता है अपने से कुछ कहना,  हो जाता है । अब घरों से खपरैल भले विदा हो गए हैं , खेतों से बैल और रात से ढिबरी भी अपने अवसान की राह पर हैं लेकिन माहेश्वर के गीतों में इन का धूसर और मोहक बिंब अपने पूरे कसैलेपन ,  सारी कड़वाहट और पूरी छटपटाहट के साथ एकसार हैं ऐसे जैसे भिनसार का कोई सपना टूट गया हो , अपनेपन की कोई ज़मीन दरक गई हो :

गर्दन पर, कुहनी पर

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जमी हुई मैल-सी ।

मन की सारी यादें

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टूटे खपरैल-सी ।

आलों पर जमे हुए

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मकड़ी के जाले,

ढिबरी से निकले

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धब्बे काले-काले,

उखड़ी-उखड़ी साँसे हैं

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बूढे बैल-सी ।

हम हुए अंधेरों से

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भरी हुई खानें,

कोयल का दर्द यह

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पहाड़ी क्या जाने,

रातें सभी हैं

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ठेकेदार की रखैल-सी।

माहेश्वर के गीतों में इतवार भी इस कातरता के साथ बीतता है गोया किसी नन्हे बच्चे का गीत कोई कीड़ा कुतर गया हो :

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मुन्ने का तुतलाता गीत-

अनसुना गया बिल्कुल बीत

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कई बार करके स्वीकार ।

सारे दिन पढ़ते अख़बार ।

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बीत गया है फिर इतवार ।

और थके हारे लोगों का साल भी ऐसे क्यों बीतता है भला , जैसा माहेश्वर बांचते हैं :

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बघनखा पहन कर

स्पर्शों में

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घेरता रहा हम को

शब्दों का

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आक्टोपस-जाल

कहीं पास से / नया-नया फागुन का / रथ गुज़रा है जैसे गीतों में उन की बेकली जब इस तरह उच्चारित होती है कि  ; जिस तरह ख़ूंख़ार / आहट से सहम कर / सरसराहट भरा जंगल कांप जाता है। तो यह  सब अनायास नहीं होता है :

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मुड़ गए जो रास्ते चुपचाप

जंगल की तरफ़,

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ले गए वे एक जीवित भीड़

दलदल की तरफ़ ।

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आहटें होने लगीं सब

चीख़ में तब्दील,

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हैं टंगी सारे घरों में

दर्द की कन्दील,

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मुड़ गया इतिहास फिर

बीते हुए कल की तरफ़ ।

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नालंदा जलता है तो बर्बरता का कोई नया अर्थ पलता है । तक्षशिला और नालंदा की यातना एक है । एकमेव है । नदी का अकेलापन कैसे तो तोड़ता है माहेश्वर के गीतों में और मन उसे बांचते हुए क्षण-क्षण टूटता है , दरकता है :

सूरज को

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गोद में

बिठाये अकुलाना

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सौ नए बहनों  में

एक सा बहाना

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माहेश्वर तिवारी के गीतों में सांघातिक तनाव के इतने सारे तंतु हैं , इतने सारे पड़ाव हैं , इतने सारे विवरण हैं कि वह मन में नदी की तरह बहने लगते हैं । देह में नसों के भीतर चलने और नसों को चटकाने लगते हैं :

लगता जैसे

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हरा-भरा चंदन वन

जलता है

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कोई पहने बूट

नसों के भीतर

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चलता है

मन ही नहीं माहेश्वर घर भर की स्थितियों को बांचने लगते हैं । उन का तापमान दर्ज करने लगते हैं। 

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सुबह-सुबह

किरनों ने आ कर

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जैसे हमें छुआ

सूरज उगते ही

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घर भर का माथा गर्म हुआ

माहेश्वर के गीतों में बेचैनी , प्यार और उस की धार और जीवन की अनिवार्य उदासियां इस सहजता से गश्त करती हैं गोया सड़क पर ट्रैफिक चल रही हो , गोया किसी राह में कोई गुजरिया चल रही हो , गोया नदी में नाव चल रही हो , गोया किसी मेड़ पर चढ़ते-उतरते कोई राही अपने पैरों को साध रहा हो और अपनी बेचैनियों को बेवजह बांच रहा हो : 

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धूप  थे , बादल हुए , तिनके हुए

सैकड़ों हिस्से गए दिन के हुए

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उदासी की पर्त-सी जमने लगी

रेंगती-सी भीड़ फिर थमने लगी

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हम कभी उन के , कभी इन के हुए

माहेश्वर के गीतों में बतकही , उम्मीद और तितलियों के किताबों से निकलने की तस्वीरें और उन की गंध भी हैं । फूल वाले रंग भी हैं और बदहाल वैशाली और आम्रपाली भी । तक्षशिला और नालंदा की यातना भी । डराता हस्तिनापुर भी झांकता ही है । यातना और तनाव के इन व्याकुल पहर में लेकिन उत्सव मनाती दूब भी है अपनी पलकें उठाती , घुटन की सांकलें खोलती और एक गहरी आश्वस्ति देती हुई । और इन सब में भी प्यार और उस की बारीक इबारत बांचती साहस और उम्मीद की वह किरण भी जो अकेली पर्वत पार करती बार-बार मिलती है ऐसे जैसे देवदार के हरे-हरे, लंबे-लंबे वृक्ष मन के पर्वत में उग-उग आते हों । सारी अड़चनें और बाधाएं तोड़-ताड़  कर । माहेश्वर तिवारी के गीतों की यही ताकत है । हम इसी में झूम-झूम जाते हैं । फिर जब इन गीतों को माहेश्वर तिवारी का मीठा कंठ भी मिल जाता है तो हम इन में डूब-डूब जाते हैं । इन गीतों की चांदनी में न्यौछावर हो-हो जाते हैं । माहेश्वर तिवारी हम में और माहेश्वर तिवारी में हम बहने लग जाते हैं । अजानी घाटियों में , प्यार की शीतल-हिमानी छांह में सो जाते हैं। माहेश्वर तिवारी के गीतों की तासीर ही यही है। करें तो क्या करें ?

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सरोकारनामा से दयानंद पांडेय का लेख

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0 Comments

  1. Ranjanagupta

    July 23, 2017 at 12:47 am

    मर्म को छूता हुआ लेख ..गीतकार की सभी उम्मीदों के किनारे किनारे बहता हुआ लेख …माहेश्वर तिवारी गीतों की बुलंदियों छूते है ..और उसी बुलंदी के शिखर पर उनके होने का आभास पाठक को कराता हुआ लेख ..बधाई लेखक और गीतकार दोनों को …

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