Navin Kumar : कोई पचास साल की एक महिला कमानी ऑडिटोरियम के मुख्य गेट के भीतर गार्ड से झगड़ा कर रही थी – मैं अंदर चली आई, मेरे पति को पार्किंग की जगह खोजने में देर लग गई उन्हें अंदर आने दीजिए प्लीज। उनके बुजुर्ग पति गेट के बाहर से हाथ हिलाते हुए कह रहे थे मैं ही हूं इनका पति। गार्ड हाथ जोड़ रहा था, “मैडम आपकी बात ठीक है लेकिन उनके लिए गेट खोला तो डेढ़ सौ लोग चढ़ बैठेंगे।” सोमवार को शाम 7 बजकर 10 मिनट पर दिल्ली के कमानी सभागार का ऐसा ही नज़ारा था। अंदर हॉल ठसाठस भरा हुआ। बीच की गैलरी तक की कारपेट पर लोग बैठे हुए। बाहर लोग मिन्नतें कर रहे थे हमें कोई कुर्सी नहीं चाहिए.. बहुत दूर से किराया भाड़ा खर्च करके आधी छुट्टी लेकर आए हैं बस नाटक देखने दीजिए।
मुझसे देखा नहीं गया तो मैंने अपने बूते में कमानी के प्रबंधकों से कहा कि लोग किसी भी तरह देखने को तैयार हैं तो आपको परेशानी नहीं होनी चाहिए। उनका जवाब था पहले से लोग खड़े हैं अगर गेट खोल दिया तो नाटक ही नहीं हो पाएगा, पहले से खड़े लोग हंगामा कर देंगे। मैं निरुत्तर था। नाटक था मैला आंचल। ऐसा भी नहीं था कि अनुराग कश्यप ने निर्देशित किया हो, ऐसा भी नहीं था कि शबाना आज़मी एक्ट कर रही हों, ऐसा भी नहीं था किसी रिएलिटी शो का मज़ा आने वाला हो। मैं दंग था दिल्ली जैसे शहर में रेणु के इतने कद्रदान आए कहां से? यह एक ऐसी चाहना थी जिससे आमिर खान और शाहरुख खान तक को रश्क हो सकता है।
Maitreyi Pushpa के नेतृत्व में दिल्ली हिंदी अकादमी ने जिस तरह से साहित्यिक दायरे में रहते हुए राजनैतिक हस्तक्षेप का सिलसिला शुरू किया है वह दंग करने वाली है। रेणु की कहानियों का नाट्य रूपांतरण करवाना, उनपर एक महीने का वर्कशॉप करवाना, पूरे हफ्ते रोज़ाना दो नाटकों का मंचन और आखिर मैं मैला आंचल की भव्य प्रस्तुति। एक ऐसे समय में जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अपने अभिजातपन से बाहर आने को ही तैयार नहीं है और उसके खिलाफ खड़ा हुआ अस्मिता थियेटर विचारों के अस्तबल में तब्दील हो चुका है हिंदी अकादमी का अपने सरकारीपन से बाहर निकलकर मंडी हाऊस के चौराहे पर चीख पड़ना चौंकाता है।
एक ऐसे समय में जब साहित्य अकादमी ने अपने सम्मानित लेखकों का पक्ष छोड़कर पूरी वैचारिकी पर ताला जड़ दिया है तो हिंदी अकादमी का जड़ता को तोड़कर साहित्य के मूल सरोकारों को विमर्श में ला देना आश्चर्य पैदा करता है। एक ऐसे समय में जब चेतन भगत और सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे लेखक पुस्तक मेलों के टॉम ब्वॉय हो चले हैं गांधी स्मृति के आहाते में पाश, धूमिल, गोरख या बल्ली सिंह चीमा के आदमकद पोस्टरों पर यूनिवर्सिटी के छात्रों को बात करते देखना अच्छा लगता है। अच्छा लगता है कोई अकादमी अदम गोंडवी को भी शिद्दत से याद करती है और दिनेश शुक्ल से जइसे आवैं घुइयां चार सुनने के लिए मंचीय योगासनों को छिन्न-भिन्न कर डालती है।
खैर आगे की कथा यह है कि मैं अपने शो ‘ये है इंडिया’ की वजह से ऑफिस पहुंचने के लिए नाटक के बीच से सात बजकर दस मिनट पर हॉल से बाहर निकला था। बाहर निकला तो गेट बंद और उस तरफ इतने लोग जितने आ जाएं तो कोई भी नाटककार अपने को धन्य समझता है। लेकिन गार्ड किसी भी तरह से बाहर वालों को आने देने को तैयार नहीं थे। मैंने कहा कि मुझे तो बाहर जाना है। गार्ड ने कहा सवाल ही नहीं। आप बाहर नहीं जा सकते। मैंने पूछा क्यों? उसने कहा गेट एक ही है आपके लिए खुलेगा तो उनके लिए भी खुल ही जाएगा। फिर पूछा तो क्या करूं। उसका जवाब था करना क्या है अंदर जाकर नाटक देखिए।
अंदर जाकर देखा तो सबसे आगे की मेरी वाली कुर्सी पर कोई और बैठा था। मैंने पूरा नाटक सबसे पीछे खड़े-खड़े देखा। जिन लेखकों और नाटककारों को पाठक और दर्शक न मिलने की शिकायत है उन्हें मेरा जवाब है इसका मतलब आप मर चुके हैं, अपनी मृत्यु के शोकगीत को साहित्य मत कहिए। आप अपने आपको ज़िंदा तो कीजिए। मैंने कल कमानी ऑडिटोरियम के गेट पर मैला आंचल देखने के लिए 17 साल के किशोर से 70 साल के बुजुर्ग तक को गिड़गिड़ाते हुए देखा है।
न्यूज24 में कार्यरत पत्रकार और एंकर नवीन कुमार की एफबी वॉल से.