कहानी
मैं ययाति हूं
राकेश त्रिपाठी
सोफे पर यतीश सिंह आराम की मुद्रा में लेटा हुआ था। सिगरेट उसकी उंगलियों में उसी तरह फंसी दिख रही थी, जैसे जाल में फंस गई मछली कुनमुनाती है। टीवी न्यूज़ की दुनिया में उसे 20 बरस हो चले थे। लेकिन आज के जैसा उद्विग्न वो कभी नहीं था। आउटपुट एडीटर मयंक उन्हें खरी-खोटी सुना कर चला गया था। जो सुना कर गया था, आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कहने की।
”ध्यान रखना यतीश….तुम्हारे सारे कारनामे जानता हूं….बिल्डरों से पैसे उगाही से लेकर चिटफंड मालिक का पैसा हथियाने तक के सारे राज़। चैनल के मालिक को गिरफ्तारी से बचाने के लिए बोरों में भरकर जो पैसे अफसरों को पहुंचाने के लिए तुम ले जाते थे, वो गए कहां, मुझे नहीं मालूम क्या? और इत्ते पैसे अगर पुलिस और आईएएस अफसरों में बांटे ही थे तो मालिक गिरफ्तार कैसे हो गया। ध्यान रखना, कभी मुझे हाथ भी लगाया न….तो इतने छेद कर दूंगा कि……..।”
गुस्से में मयंक कमरे से बाहर निकल गया था…48 की उम्र के यतीश सिंह को 78 की हालत में छोड़ कर। मयंक टीवी की दुनिया के तेज़-तर्रार रिपोर्टरों में से एक था। लेकिन बेलाग बात करना उसकी आदत में शुमार था। इस चैनल में पिछले 7 साल से काम कर रहा था। टीवी में काम करने वाले ज़्यादातर पत्रकारों की तरह वो न तो किसी गुट में शामिल था और न ही चमचों में उसका शुमार होता था।
टीवी न्यूज़ में दो ही गुट हैं- बिहारी और पहाड़ी। इन दोनों गुटों की एक बात बड़ी मज़ेदार थी। नौकरी उसे ही देते थे जो उनके सूबे, गांव, गली मोहल्ले या शहर का होता था। यानी अगर बिहार से है तो बिहारियों को बुला बुला कर नौकरियां दी जाती थीं। और अगर बिहारियों में भी एक खास वर्ग से ताल्लुक रखता है, तो सोने में सुहागा। फिर उनकी टीम बनती थी और उनका सीनियर जिस भी चैनल में जाता था, सारी की सारी टीम वहां जाती थी। मयंक की कमी यही थी। वो न तो बिहारी था और न ही पहाड़ी। लिहाज़ा अपनी प्रतिभा, दबंगई और भाषा के बलबूते लड़ता झगड़ता टीवी न्यूज़ चैनलों में 20 बरस की नौकरी कर चुका था। चूंकि दोनों ग्रुपों का चरित्र मूल रूप से एक ही था, इसलिए एक ग्रुप ऐसा भी था जिसमें इन दोनों ग्रुपों के वरिष्ठ लोग शामिल थे।
यतीश का फूहड़पन पूरी इंडस्ट्री में मशहूर था। चाहे कितनी भी बड़ी महफिल में बैठा हो, उसे पान की पीक डस्टबिन को ठीक मुंह के पास लाकर ही थूकनी होती थी। न्यूज़ मीटिंग में जब वो ऐसा कर रहा होता था, महिला एंकर्स मुंह बना कर सिर नीचा कर लेती थीं। उन्हें उस अंदाज़ से इतनी घिन आती थी कि एक दिन एक लड़की को उल्टी भी हो गई। इस चैनल में वो दो महीने पहले ही आया था। इससे पहले वो पी टीवी में 14 बरस की लंबी पारी खेल कर आया था। लेकिन टीवी न्यूज़ के धुरंधरों का मानना था कि उसने इन चौदह सालों में पी टीवी को अर्श से फर्श तक ला दिया था।
दो महीनेपहले जब उसे पी टीवी से निकाला गया तो मालिक ने उससे सिर्फ इतना कहा-“ओ जतीस….बई चौदा बरस में तो राम भी राबन को मार के अजोध्या आ गे थे। इत्ता टैम दिया तुझे, तूने गंद मचा दई। इत्ती गंद तो हमनै चाबल के धंधे में नाय की कबी।”
यतीश ने स्वभावत: दोनों हाथ जोड़ दिए- “सर, मैं तो आपकी सेवा में ही था इत्ते साल, कर ही रहा था काम।”
मालिक ने तुरंत टोका-“सेवा तो तू अपनी कर्रया था जतीस। हम जानते नाय? बो बाली इश्टोरी, जिसमै इंटेलीजेंस बालो अफसर फंसो थो। बामें तूने लै लिए थे 20 लाख रुपइए…आंय। हम्मैं पतो नाय का?ऐं? हम्मैं तौ जे बी पतो है कि तुमाई बीबी सारा पैसा प्रॉपर्टी में इनबेस्ट करती है। पैसो तुम कमाओ, इनबेस्टमेंट की जिम्मेदारी बा की। बाह भई..बाह….आंय।टट
यतीश के सामने हथियार डाल देने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं था। क्योंकि दो दिन पहले चैनल के मालिक ने पूरे चैनल के सामने अधीर चौधरी को नए संपादक के तौर पर इंट्रोड्यूस करवा दिया था। अधीर ने 20 बरस पहले अपना करियर इसी चैनल से शुरू किया था। हैंडसम और अच्छी शख्सियत के मालिक अधीर की, यूं तो यतीश के साथ कोई तुलना नहीं थी….लेकिन ग्रुपिज़्म का शिकार वो भी हुआ था। इसलिए पिछले बीस बरस में कई चैनलों से घूमता हुआ आज उसी चैनल का सर्वे-सर्वा बन बैठा, जिससे उसने कभी बतौर ट्रेनी शुरुआत हुई थी। इन बीस सालो में अधीर ने अपनी शख्सियत में कई चीज़ें जोड़ीं। वो एंकर बना, बड़े-बड़े मंत्रियों से दोस्ती गांठी, ढेर सारे पैसे कमाए, और चैनलों के मालिकों से दोस्ती बरकरार रखी। लिहाज़ा बीस साल में यतीश और अधीर के करियर में बहुत बड़ा अंतर आ गया। वो फर्क था क्लास का। पैसे दोनों ने कमाए, लेकिन अधीर का क्लास बहुत ऊपर था। यतीश वहां तक छलांग भी लगाता तो नहीं पहुंच सकता था।
टीवी और खबरों की समझ के बारे में भी फर्क बहुत साफ देखा जा सकता था। दोनों की उम्र भले ही एक हो, हैंडसम अधीर आज के युग का था और अगल बगल खड़े हो जाएं, तो यतीश अधीर के पिता की उम्र का लगताथा। पैंतालीस की उम्र में भी अधीर पर लड़कियां मरती थीं। फैन फॉलोइंग इतनी ज़बरदस्त कि किसी पार्टी में चला गया तो हर उम्र की औरतें सेल्फी खिंचाने को गिरी पड़ी रहती थीं। उधर यतीश का 20 बरस पहले एक सो कॉल्ड अफेयर था, जिसका जाल उसने ऐसा रचा था कि वो लड़की बिचारी एंकर बनने के चक्कर में आ ही गिरी उसकी झोली में। लेकिन फूहड़ यतीश उसे भी पचा नहीं पाया। एक दिन उसके मोबाइल से निकले एक मेसेज ने सारे राज़ बेपर्दा कर दिए। उसकी बीवी को जब वो मैसेज मिला तो उसने पूरे मामले को लास्टिक की तरह खींच दिया। इतना विस्तार दे दिया कि यतीश ने कसम खाई कि बीवी के अलावा किसी की ओर आंख भी उठा कर नहीं देखेगा। उसे एम.ए में पढ़ा रीतिकालीन कवि घनानंद का काव्य याद आ गया। उसने तय किया आगे से कभी प्रेम किया तो उसे गोपनीय भी रखेगा। प्रेम करने का न तो उसे सलीका था और न ही उसे गोपन रख पाने की कला, सो उसके बाद के सारे प्रेम-प्रसंग यतीश के मन में ही उपजे और मन में ही ख़त्म हो गए।
लेकिन आज वो क्या करे। मयंक ने उसे जो चार बातें सुनाई थीं वो उसके दिमाग में उमड़-घुमड़ रही थीं। सिर से पैर तक आग लगी हुई थी। ईर्ष्या और द्वेष दोनों ने उसे ऐसा घेर रखा था कि उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। एकबारगी उसे लगा कि वो मयंक को गोली मरवा दे…कह देगा किसी चेले से….क्राइम रिपोर्टरों के बड़े जाल होते हैं। कई अपराधियों से उनकी ठीक-ठाक यारी होती है। उसे ठमोद राय याद आया। यतीश ने उसे सिर्फ अपनी जात का होने का इतना फायदा दिया था कि उसे यकीन था कि असाइनमेंट हेड बनाए जाने का कर्ज आज वो चुका सकता है। वो उन लोगों में था जिसे यतीश ने पाल-पोस कर बड़ा भी किया था। क्या वो प्रमोद को फोन कर बोल दे कि ग़ाज़ियाबाद के किसी बड़े गुंडे से मयंक को उठवा ले। वो मौनी मौला, जिसे प्रमोद ने बलात्कार के एक केस में एसएसपी से कहकर कभी राहत दिलवाई थी या फिर बदरूद्दीन जिस पर कत्ल के 11 मुकद्दमे थे और आज तक पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी।
यतीश को एक घने कुहासे ने घेर लिया था। वो बदला लेने को बेताब था…उसका माथा गर्म हो रहा था…उसे सुरती की तलब लगी…लेकिन मेज पर बेतरतीबी से पड़ी खैनी की पुड़िया उससे उठाई न गई। अपमान ने उसे जैसे निचोड़ लिया था।
सोफे पर सोये चैनल के एडीटर-इन-चीफ यतीश सिंह को पता भी नहीं चला कि उनके केबिन का दरवाज़ा खोल कर कब उनका सबसे विश्वस्त चेला ठमोद राय भीतर आ गया। उसके जगाने पर वो उठे और उठते ही एक ही बात कही-‘उसे मरवा दो , अगवा करवा के ज़हर का इंजेक्शन दिलवा दो….जाओ कुछ भी करो…’
शातिर ठमोद ने चुपचाप बैठकर उनकी पूरी व्यथा सुनी और कहा-‘इलाज हो जाएगा…चिंता मत करिये।’
‘कौन सा इलाज?’ यतीश ज़ोर से चिल्ला कर बोला।
‘मार्केट में इस वक्त नौकरी नहीं है…मयंक की कोई एक ग़लती पकड़ लीजिए….सैक कर दीजिए। नौकरी मिलेगी नहीं… आपका बदला पूरा। उसे उस ग़लती की सज़ा दीजिए जो उसने की ही नहीं हो।’
‘उससे क्या होगा?’
‘अपनी ग़लती पर नौकरी गई तो इंसान कुछ कह नहीं पाता। किसी मूर्ख को बिना ग़लती के अगर सज़ा मिली, तो वो अपना प्रारब्ध मान कर दूसरे रास्ते चल पड़ता है, विरोध नहीं करता। लेकिन अगर किसी सतर्क को बिना ग़लती के सज़ा मिलती है, तो वो विरोध करेगा। लेकिन कर कुछ नहीं पाएगा। नौकरी जाने का अपमान झेलेगा, घर में पैसे आने बंद होंगे, तकलीफें बढेंगी तो पगला जाएगा, लेकिन उखाड़ नहीं पाएगा कुछ आपका। आपका तंत्र अभी बहुतै मजबूत है सर। सारे चैनलों के एडीटर आपके दोस्त हैं, आपके साथ हर हफ्ते खाते-पीते हैं। सब से कह दीजिए इस स्साले को घुसने न दें अपने चैनल में। नौकरी नहीं मिलेगी चार-छह महीने तो अउर पगला जाएगा बहनचोद। फिर घर में झगड़ा करेगा और बीवी बच्चों से लड़ते-झगड़ते एक दिन खुद खत्म हो जाएगा सर। महाराष्ट्र के किसानों की तरह फंदा न लगा लिया सर, त कहिएगा। अइसे ऊ जड़ से खत्म होगा।’ चमकती आंखों से ठमोद ने कहा।
यतीश सिंह सोफे से उछल कर बैठ गया। जाने कहां से उसके बदन में फुर्ती आ गई। उसके मुंह से बेसाख्ता निकला-‘अरे वाह रे मेरे चाणक्य…..।’ यतीश को समझ नहीं आ रहा था कि उसने अपने बीस बरस के करियर में कई लोगों की नौकरियां खाईं थीं, कइयों को ख़त्म किया था, लेकिन ये इत्ती छोटी सी बात उसे क्यों नहीं सूझी। उसने तय कर लिया कि अगले दिन से ये मिशन शुरू कर देना है। पहले चैनल की सीईओ से हर दूसरे दिन मयंक की दो चार ग़लतियों का ज़िक्र और फिर एक दिन काम तमाम।
हिंदी के न्यूज़ चैनलों और अख़बारों की यही नियति रही है। अपनी एक छोटी सी दुनिया में भी इतने भरम और इतनी कुंठाएं पाले रहते है कि राजनीति की खबरें लिखते-लिखते अपने दफ्तर में भी राजनीति करने लगते हैं कलम के शूरवीर। किसे उठाना है, किसे गिराना है, किसे‘सही’की शक़्ल में ग़लत सलाह देना है, किसकी लाश पर पैर रख कर आगे बढ़ जाना है, ये हिंदी के पत्रकारों से बेहतर कोई नहीं जानता। मयंक को याद आया जब उसने अपना करियर शुरू किया था, तो उसके संपादक ने नसीहत दी थी-“अभी डेस्क पर बिठा रहा हूं तुम्हें। लिखना सीख जाओ, तो बाहर निकलो, रिपोर्टिंग में जाओ, बड़े काम करो, बड़ी ख़बरें ब्रेक करो…..और अगर बैठ कर काम करना है, तो ठीक है, रिपोर्टरों की खबरों को अच्छी हेडलाइनें दे-देकर उन्हें अमर करते जाओ।” मयंक ने तभी से तय कर लिया था कि उसे रिपोर्टिंग ही करनी है।
संघर्ष के दिनों मे उसने अपने दोस्त अंशुमन से एक दिन कहा था- “बाबा, पत्रकार बनने से पहले हंसिया-हथौड़ा माथे पर चिपकाना ज़रूरी है क्या? ये साले वामपंथी पत्रकार किसी को आने ही नहीं देते आगे। साली हमारी जात भी ब्राह्मन की है। सरनेम देखते ही बाबा, ऐसा लगता है कि सामने वाले को सांप सूंघ गया है। हमने तो कभी जात-बिरादरी नहीं मानी, अब इसमें हमारी क्या ग़लती कि हम ब्राह्मन बाप की औलाद हो गए। एक जगह तो हमसे आरक्षण पर सवाल किया और हमारा जवाब पूरा हुआ नहीं था कि वो उठ कर चले गए। ठीक है दलितों पर अत्याचार हुआ है, तो क्या हमने किया, हम तो समाज की बराबरी की बात करते हैं। बस दशकों से आरक्षण की मलाई खा रहे लोगों का विरोध ही तो किया था हमने, और वो बिना बोले उठ कर चले गए। न देते नौकरी, सुन तो लेते पूरी बात। क्या ये वही रवैया नहीं है, जिसके विरोध पर इस देश में आरक्षण की मलाई खाई जा रही है।”
अंशुमन ने उस दिन जवाब में जो कहा वो मयंक की हिम्मत बढ़ा गया था। सिगरेट का एक कश लेकर बोला- ”बड़े दिनों से पी नहीं थी आज सोचा सिगरेट के साथ-साथ एक बीयर भी लगा लूं। मैं जहां हूं वो चैनल भी कुछ कम नहीं है। तुझे पता है, जो सो कॉल्ड सीनियर्स होते हैं, भले ही उनके कॉलर सफेद दिखें, हैं साले वो भी दर-हरामी। मेरा कोई बढ़िया स्टोरी आइडिया होगा, तो बैनचोद कह देगा फुस्स आइडिया है। और कोई लड़की घटिया सा आइडिया बता देगी, तो साला पूरा न्यूज़रूम उसकी मदद करने लगता है। सारे सीनियर उसको अपने अपने केबिन में बुला कर‘पत्रकारिता कैसे करें’इस पर लेक्चर देने लगते हैं। जैसे रात भर में उसको पुलित्ज़र पुरस्कार पाने लायक बना कर ही दम लेंगे। ये साली हमारे पेशे की सबसे बड़ी कमज़ोरी है, लड़की उनकी लाइन पर आए न आए, लेकिन उसको मौका देते देते साला हमारा करियर तबाह हो जाता है। लेकिन यहां एक दूसरे की कमज़ोरिया छुपाने और झूठी तारीफें आगे बढ़ने का ज़रिया बन गई है। वो कहानी सुनी है न तूने। गधा और ऊंट दोस्त बने। गधे ने हर ओर कहना शुरू किया कि ऊंट बेहद खूबसूरत दिखता है। ऊंट ने कहना शुरू किया कि गधे की आवाज़ सबसे सुरीली है। तो यही है खेल इन सबका…एक दूसरे की तारीफ कर-कर के एक दूसरे की मार्केटिंग करते हैं बास्टर्ड। वही एक कॉकस है, उसी के लोग पूरी इंडस्ट्री में फैले हुए हैं। किसी ने हुक्म ऊदूली की तो बस समझ लो, अब किसी दूसरे चैनल में भी आपको नौकरी नहीं मिलेगी। सबके सब एक दूसरे को बताते रहते हैं कि कौन उनके गुट में शामिल है और किसके आगे करना है, किसको पीछे । पता है…ऊचे पदों पर बैठे लोग तो और बड़े धृतराष्ट्र हो जाते हैं। हमारे यहां है एक नौकवी साहब। उनको कॉमा-फुलस्टॉप ठीक करने में प्रवीणता हासिल है, उसके अलावा उनको टीवी का ककहरा भी नहीं पता। बस आप उनका यशोगान करते चलिए। वही कर-कर के लोग कहां से कहां पहुंच गए। बनते साले बड़े लेफ्टिए हैं, लेकिन मंत्रियों और नेताओं से काम करा करा के करोड़ों रुपये कमा लिए हैं।”
अंशुमान ने बुझ रही सिगरेट को जमीन पर फेंक कर उसे यूं कुचल दिया जैसे बड़ी मुश्किल से दुश्मन पकड़ में आया हो और वो उसे हमेशा के लिए ख़त्म कर देना चाहता हो।
मयंक को समझ नहीं आ रहा था क्या करे। उसे लगा इतने साल टेलीविज़न जर्नलिज़्म में काम करने का बाद वो अब इस लायक भी नहीं बचा है कि कुछ और करने की सोचे। मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ उसने इतनी रिपोर्टें फाइल की थीं कि अब तो कोई उसे अपना पीएस या ओएसडी भी नहीं बनाएगा। पत्रकारों की एक प्रजाति ऐसी भी है। जब लगा कि अब कोई नौकरी नहीं देगा, तो मंत्री जी का पीआर संभाल लो। इसी बहाने लोगों के काम करा-करा के कुछ कमाई हो जाती है। उसने सोचा कि इससे अच्छा था नायब तहसीलदारी वाली नौकरी ही कर लेता।
पत्रकारिता के जुनून ने उससे बरसों पहले मिली वो नौकरी भी छुड़वा दी, जो उसे रात दिन पढ़ाई करने के बाद मिली थी। ऊंचे सरकारी ओहदे से रिटायर हुए पिता कहते रह गए, लेकिन मयंक ने एक नहीं सुनी। हार कर पिता ने बस इतना कहा-‘पछताओगे एक दिन।’आज मयंक को पिता की निराशा में कही बात सही लगने लगी। पत्रकारिता में उसे भी बड़े मौके मिले पैसा कमाने के, लेकिन उसने हमेशा उन्हें मज़ाक में लिया। एक बार तो पेट्रोलियम मिनिस्टर ने एक्सक्लूज़िव इंटरव्यू देने के बाद उससे पूछा भी था-“पेट्रोल पंप चाहिए क्या…..ले लो..थोड़ी बेइमानी करनी पड़ेगी…लेकिन संतानें वो संघर्ष नहीं करेंगी जो तुम कर रहे हो।”
लेकिन मयंक तिवारी की ज़बान पर सरस्वती जी पहले की तरह साक्षात विराज़मान थीं। सो उनकी ज़ुबान से निकला-“नहीं सर..मैं क्या करूंगा पेट्रोल पंप का।” आज मयंक को वो पल पहली बार याद आ रहा है। आज से पहले उसने कभी उस घटना के बारे में सोचा तक नहीं कभी। लेकिन आज उसे लग रहा था कि उसके पिता सही कहते थे कि ऊपरवाला मौका सबको देता हैं। कोई उस मौके का इस्तेमाल कर लेता है और कोई नहीं कर पाता। पहली बार मयंक ने खुद से सवाल पूछा-“क्या वो एक मौका था….और क्या वो चूक गया”उसका मन वितृष्णा से भर उठा। उसे लगा कि यही करना था तो मेहनत से कमाई हुई नायब तहसीलदारी ही ठीक थी। बुढ़ापे में पेंशन तो मिलती। उसने तय किया कि अब वो नौकरी की तलाश करना शुरू करेगा। क्योंकि बेटी की फीस और मकान की किश्तों की ज़िम्मेदारी तो उसी को निबाहनी है।
लेकिन दस दिन बाद एक शाम जब मयंक दफ्तर पहुंच कर अपनी स्टोरी फाइल कर रहा था, रिसेप्शन से उसका फोन आ गया।
एचआर हेड ने बुलवाया था। इतनी लंबी नौकरी में कभी मयंक ने मैनेजमेंट और एचआर से सीधे बात नहीं की। ठसके से काम करता था और दबंग संपादकों की छाया में इतना काम कर चुका था कि एचआर से जुड़ी उसकी बातें संपादक ही करते थे। किस्मत अच्छी थी कि उसे ऐसे धाकड़ संपादक मिले जो एचआर से जुड़ी उसकी बातें खुद ही कर लेते थे। किस्मत अच्छी थी कि उसे ऐसे धाकड़ संपादक मिले जो मालिकों की भी नहीं सुनते थे और मैनेजमेंट के आगे कभी किसी जूनियर रिपोर्टर का भी असम्मान नहीं होने देते थे। ऐसे में आज एचआर के इस फोन ने उसे आसन्न संकट का एहसास करा दिया। मयंक एचआर हेड के कमरे में जब पहुंचा तो वो दोनों हाथों से माथा पकड़ कर बैठे हुए थे। बिना कुछ कहे उन्होंने एक मेल की कॉपी उसके आगे बढ़ा दी। मयंक ने देखा- मेल संपादक यतीश सिंह की मेज़ से था। बोल्ड अक्षरों में जो लिखा था, उस पर उसकी निगाह पड़ी। लिखा था-‘Ask him to resign Immediately.’
मयंक ने चुपचाप कागज़ का वो टुकड़ा उठाया और तेज़ी से सीढ़ियां उतर गया। उसके कदम सीधे संपादक यतीश सिंह के कमरे के सामने ही जा कर रुके। आज उसने दस्तक भी नहीं दी। दरवाज़े को धकियाते हुए अंदर घुसा तो उसे आवाज़ सुनाई दी- ‘आइए पंडिज्जी महराज…..क्या स्टोरी ले आए आज।’
मयंक उसकी मेज़ पर दोनों हाथ रख कर झुका और ध्यान से यतीश की आंखों में देखने लगा।
“तुम्हारा संदेश मिल गया है यतीश।”
मयंक का चेहरा यतीश के इतने पास था कि वो किसी आशंका से हड़बड़ा उठा। मयंक ने कहा-“घबराओ नहीं, मारूंगा नहीं तुमको। इस्तीफा दे रहा हूं। मरना एक ही दिन है यतीश। मैं रोज़ रोज़ नहीं मरता। खटास डॉट कॉम को एक स्टोरी भेज दी है। अब से घंटे भर में छप जाएगी। जितने महीन तुम हो, उतनी ही महीन वो स्टोरी भी है मेरी….तुम्हारे काले कारनामों की कहानी..पूरे सबूत के साथ। कहां कहां, किस किस बिल्डर के साथ तुमने अपनी बीवी के नाम पर इनवेस्टमेंट किया। घंटे भर में बच सको तो बच लो। ईडी वाले जल्द तुम्हारे घर और बिल्डर्स पर छापे मारने वाले हैं। इनकम टैक्स वाले बोनस में पीछे पीछे होंगे और हां …कौन सा अखबार पढ़ते हो……द नेशन? उसमें कल पहले पेज पर तुम्हारी तस्वीर आ रही है। बधाई हो। बड़े पत्रकार बन गए तुम तो। कहानी तो और भी हैं तुम्हारी मेरे पास… सुशीला सपूत और तुम्हारी वो सीडी भी जो धऩॉल्टी के एक होटल की है, But you know… I respect women. और, वैसे भी मैं कमर के नीचे वार नहीं करता। ये स्साले संस्कार हैं न…जाते नहीं जल्दी।”
मयंक वापस जाने लगा लेकिन दरवाज़े तक पहुचते ही फिर मुड़ा। यतीश काठ बना हुआ उसकी ओर देखे जा रहा था, जैसे उसे लकवा मार गया हो। मयंक ने कहा…..”और हां…मैं बताना भूल ही गया….दो दिन बाद बीबीसी ज्वाइन कर रहा हूं। दो महीने की ट्रेनिंग और फिर दक्षिण पूर्व एशिया का ब्यूरो हेड। जा रहा हूं तो अब वापस कभी इन सीढ़ियों पर लौटूंगा नहीं, जैसे तुम तीसरी बार लौटे हो।”
यतीश खुद को संभाल भी नहीं पाया था कि मयंक आराम से बाहर निकल गया। खुले आकाश के नीचे खड़े हो कर उसने गेट पर खड़े गार्ड को देखा, उसकी जेब से बीड़ी निकाली और बोला-” का दद्दू…आज उधार पिलाय दो बीड़ी…”
चैनल में काम करने वाली लड़कियां अपनी शिफ्ट खत्म होने पर निकल रही थीं। उनको मेट्रो स्टेशन तक छोड़ने के लिए नए बने दो रिपोर्टर अपनी बाइक पर तैनात थे। गेट पर हलचल तेज़ हो रही थी। गार्ड के पास दूर से दौड़ता हुआ एक भूरे रंग का छोटा सा पिल्ला आया। वो उसे रोज़ दूध पिलाता था। जस्ते की एक तश्तरी मे उसने पैकेट वाला दूध निकाला और डाल दिया। पिल्ला पूंछ हिलाते हुए जल्दी जल्दी दूध पीने लगा। मयंक ने बीड़ी का आखिरी कश लगाया….जूते से उसे ज़मीन पर मसला, मुस्कुराया और बुदबुदाया…’सही है’……और तेजी से आगे बढ़ गया। ज़िंदगी की अगली रेल उसका इंतज़ार कर रही थी।
इस कहानी के रचनाकार राकेश त्रिपाठी हैं जो कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे हैं. राकेश की लिखी यह कहानी दैनिक जागरण समूह की तरफ से प्रकाशित मैग्जीन पुनर्नवा के वार्षिकांक में छप चुकी है. राकेश से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
मनीष दुबे
July 25, 2019 at 7:41 pm
वाह राकेश जी वाह
कुमार अभिषेक
July 26, 2019 at 8:12 am
इतनी लंबी और बे सिर-पैर की कहानी बस दो ही पंडिज्जी लिख सकते हैं। एक नखलऊ वाले पांडेय बाबा और दूसरे ई शिरीमान जी।
बढ़िया है।
Alka Mishra
July 26, 2019 at 8:49 pm
हर लफ्जों में कड़वी सच्चाई छूपी है
अनिल त्रिपाठी
July 27, 2019 at 2:25 pm
पत्रकारिता जगत की समस्त विद्रूपताओं को समेटे….सत्य और सिर्फ़ सत्य से साक्षात्कार करती अद्वितीय रचना।
कोटिशः बधाई प्रिय राकेश।
Sunil Kumar
August 6, 2019 at 2:34 am
Journalism quality vanished. Newspaper are only appointing servants
Sunil Kumar
August 6, 2019 at 2:36 am
What about khemka???