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मजीठिया की आग : चौबीस घंटे बोलने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया भी खामोश

देश-विदेश की कई घटनाओं व समस्याओं पर आवाज बुलंद करने वाले प्रिंट मीडिया कर्मियों के खिलाफ पिछले एक साल से एक ऐसी घटना घटित हो रही है, जिसकी आवाज तक नहीं उठ पा रही है। यह घटना है प्रिंट मीडिया के कर्मियों के लिए घोषित मजीठिया वेज बोर्ड को सर्वोच्च अदालत के आदेशों के बावजूद लागू न किया जाना। इससे भी बड़ी घटना यह तब बन चुकी है, जबकि अपना हक मांगने वाले कई पत्रकार व गैर पत्रकार साथियों को अखबार मालिकों व उनके इशारों पर नाचने वाले प्रबंधन का शिकार होकर नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। 

देश-विदेश की कई घटनाओं व समस्याओं पर आवाज बुलंद करने वाले प्रिंट मीडिया कर्मियों के खिलाफ पिछले एक साल से एक ऐसी घटना घटित हो रही है, जिसकी आवाज तक नहीं उठ पा रही है। यह घटना है प्रिंट मीडिया के कर्मियों के लिए घोषित मजीठिया वेज बोर्ड को सर्वोच्च अदालत के आदेशों के बावजूद लागू न किया जाना। इससे भी बड़ी घटना यह तब बन चुकी है, जबकि अपना हक मांगने वाले कई पत्रकार व गैर पत्रकार साथियों को अखबार मालिकों व उनके इशारों पर नाचने वाले प्रबंधन का शिकार होकर नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। 

हाल ऐसे हैं कि दूसरों की आवाज बुलंद करके उनको न्याय दिलाने वाले खुद के मामले में बंधुआ मजदूरों जैसे हालात में जी रही हैं। इनकी आवाज उठाने वाला भी कोई नहीं है। ऐसी बेचारगी में जीने को विवश हैं अखबारों के पत्रकार और यहां कार्यरत अन्य कर्मी। मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर अखबारों के दफ्तरों में अघोषित इमरजेंसी लागू है। जो कोई बढ़े हुए वेतन और इससे भी ज्यादा अपने एरियर की मांग करता है, उसे या तो नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है या फिर कई तरह से उत्पीडि़त किया जाता है।

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ऐसी घटनाएं पूरे देश में घटित हो रही हैं। देश के इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़ अधिकतर बड़े अखबार समूहों ने मजीठिया वेज बोर्ड नहीं दिया है। केंद्र सरकार इस वेज बोर्ड को 11 नवंबर, 2011 से अधिसूचित कर चुकी है। सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम होने के बाद सभी बड़े अखबार समूह इसके खिलाफ अपनी पुरानी रणनीति के तहत कोर्ट चले गए। इस बार भी उन्होंने मिलकर माननीय सर्वोच्च अदालत का  दरवाजा खटखटाया। केस चला और आखिर सात फरवरी, 2014 को शीर्ष अदालत ने भी अखबार कर्मियों के पक्ष में निर्णय सुनाया। इतना ही नहीं अदालत ने अखबार मालिकों की याचिकाओं को रद्द करते हुए एक साल के भीतर मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने के साथ ही चार किश्तों में बकाया एरियर भी देने के आदेश पारित किए। 

धन-बल के जरिये वेज बोर्ड को निरस्त करवाने में असफल अखबारों के पूंजीपति मालिकों ने अब नई चाल चल दी। उन्होंने न केवल शीर्ष अदालत के आदेशों की अव्हेलना करके अदालत की अवमानना की, बल्कि आदालत के फैसले के दम पर अपना हक मांगने वाले कर्मचारियों के दमन की कोशिशें भी तेज कर दीं। कई संस्थानों में छंटनी व तबादलों को दौर शुरू हुआ। कई सालों से इस व्यवसाय में कार्यरत कर्मियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। यहां तक कि कईयों से जबरन इस्तीफे भी साइन करवाए गए। जो नौकरी नहीं खोना चाहते थे, उनसे वेज बोर्ड न लेने के इलफनामे लिखवा लिए गए। कुल मिलाकर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मजबूती देने वाले प्रिंट मीडिया कर्मियों को बूरी तरह कुचल कर रख दिया गया। 

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सभी अखबार मालिक एक हो गए और इतने बड़े पैमाने पर चले इस अभियान को खबर तक नहीं बनने दिया गया। सिर्फ सोशल मीडिया के जरिये ही ये बातें सामने आईं। इसमें जनसत्ता एक्सप्रेस व भड़ास4मीडिया जैसी पत्रकारों की खबरें देने वाली साइटों ने अहम भूमिका निभाई, मगर इलेक्ट्रानिक मीडिया तो मानो अखबार मालिकों से सांठगांठ करके बैठ गया। हालांकि मजीठिया वेज बोर्ड इलेक्ट्रानिक मीडिया में लागू नहीं होता फिर भी इसको लेकर किसी खबरिया चैनल ने एक खबर तक नहीं चलाई। और न ही मजीठिया वेज बोर्ड और इसको लेकर पत्रकारों व गैर पत्रकारों के उत्पीडऩ से संबंधित एक भी बहस करवाना गवारा समझा। देश के मीडिया इतिहास में इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि जो इलेक्ट्रानिक मीडिया राजनीति की एक छोटी से छोटी घटना पर डिवेट पर डिवेट करवाता नजर आता है, वह देश के लाखों प्रिंट मीडिया कर्मियों की आवाज को बुलंद करने में असफल साबित हुआ है। हालांकि राज्यसभा चैनल में जरूर एक बार इस संबंध में परिचर्चा देखने को मिली, मगर यहां भी पत्रकार व मालिकों का पक्ष रखने के लिए वही लोग मौजूद रहे, जो मालिकों के साथ बैठकर मलाई खाने को मशहूर थे। 

मौजूदा हालात की बात करें तो इस समय देश के हजारों पत्रकार अपने हक के लिए कानूनी जंग लड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया मामले में आदेश न मानने पर कई अखबारों के खिलाफ आदालत की अवमानना के मुकदमे दायर किए गए हैं। वहीं अखबारों के मालिकों के हौंसले अभी भी पस्त नहीं हो पा रहे हैं। उनकी ओर से बड़े से बड़े वकील अदालत में खड़े किए गए हैं। कुछ क ओर से तो पूर्व की यूपीए सरकार के वो मंत्री भी मजीठिया के खिलाफ खड़े हुए हैं, जिन्होंने कैबिनेट में होते हुए खुद इसे मंजूरी दी थी। 

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कुल मिलाकर असंगठित पत्रकारों व गैर पत्रकारों की कमजोरी का फायदा उठाकर अखबार मालिक हर हाल में उन्हें उनका हक न देने पर अड़े हुए हैं।  हो भी क्यों न क्योंकि अधिकतर साथी नौकरी जाने के भय के मारे काम करने को मजबूर हैं। वैसे भी अखबार मालिकों की एकता के चलते उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले को दूसरी जगह ठिकाना भी मिलना मुश्किल है। ऐसे में जो सामने आकर लड़ रहे हैं, वो भविष्य में नौकरी की उम्मीद छोड़ चुके हैं और जो छदम तरीके से लड़ रहे हैं उन्हें भविष्य में कुछ भला होने की उम्मीद है। 

मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशो के तहत अखबारों व न्यूज एजेंसियों के पत्रकारों व गैर पत्रकार कर्मियों का वेतन लगभग दोगुने से ज्यादा किया गया है। इतना कि वे सम्मान से भरण-पोषण कर सकें। इससे पहले जितने भी वेज बोर्ड आए हैं, उनकी तुलना में मजीठिया वेज बोर्ड ने प्रिंट मीडिया के कर्मियों के लिए ऐसी वेतन प्रणाली लागू की है, जो सही मायने में इस इंडस्ट्री के शोषित कर्मियों को सम्मानजनक आर्थिक स्थिति में ला सकती है। इस वेतन को केंद्रीय कर्मियों के वेतन की तरह ही व्यवस्थित किया गया है। जहां बेसिक में मौजूदा आर्थिक हालात व समाचार पत्र स्थापना की कुल आय के आधार पर पर्याप्त बढ़ोतरी की गई है, वहीं वेतन सम्मानजनक बनाने के लिए वेरिएवल पे की  भी व्यवस्था है। डीए का निर्धारण भी साल में दो बार करने की व्यवस्था है। डीए की गणना कंज्युमर प्राइज इंडेक्स के तहत निजी उद्योगों की मौजूदा परिस्थितियों के मुताबिक है। वहीं बेसिक व वेरिएवल पे को जोड़कर एचआरए व टीए का निर्धारण शहरों की स्थिति के अनुसार किया गया है। देर रात तक काम करने वालों के लिए रात्रि भत्ता भी है। 

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अखबारों को सत्ता व व्यवसाय के शिखर पर पहंचाने वाले पत्रकार व गैर पत्रकार कर्मियों को उनका हक मिल पाने की बड़ी वजह उनका संगठित न होना है। खासकर पत्रकार वर्ग में खुद को बड़ा समझने की ऐसी भावना होती है, जो उनको एक-साथ नहीं आने देती। हर  परिस्थिति में खुद को बाकियों से अलग रखकर आगे निकलने की हौड़ ने उसे वेतन की लड़ाई में अकेला व देश के निजी उद्योग का सबसे कमजोर कर्मचारी साबित किया है। इसी वजह से केंद्र ने पत्रकार व गैर पत्रकारों की भलाई के लिए वेतन आयोग को जिंदा रखा है। इसके बावजूद पत्रकार अपना हक लेने में कमजोर ही साबित हुए हैं। जहां तक गैर पत्रकार साथियों की बात है, तो वे अपने तकनीकी कौशल के माध्यम से अपने काम में लगे रहते हैं, उनमें आपसी तालमेल व एक-दूसरे का साथ देने का कौशल भी गजब का है। इसी के चलते अब तक की लड़ाई में पत्रकारों की उपेक्षा गैरपत्रकार साथियों ने हिम्मत दिखाते हुए अखबार मालिकों की नींद हराम कर रखी है।  

हालांकि मजीठिया वेज बोर्ड लागू करवाने का जिम्मा राज्य सरकारों व इनके श्रम विभाग का था, मगर अखबार मालिकों से पंगा लेने की हिम्मत न होने और पत्रकारों के संगठित होकर आवाज न उठाने के चलते ऐसा नहीं हो पाया। इक्का-दुक्का लोगों ने आवाज उठाई तो उनकी आवाज दबा दिया गई या फिर सुनी ही नहीं गई। मेरे मामले में ही श्रम विभाग एक साल में कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं कर पाया है। सिर्फ समझौता वार्ताओं का दौर ही चल रहा है, जो अखबार प्रबंधन के लिए मायने नहीं रखता। हालांकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 28 अप्रैल 2015 को सभी राज्यों के श्रम सचिवों को श्रम आयुक्तों के माध्यम से लेबर इंस्पेक्टरों की तैनाती करने व वेज बोर्ड लागू किए जाने को लेकर स्टेट्स रिपोर्ट तीन माह में देने के निर्देश देकर श्रम विभाग को हरकत में आने पर मजबूर किया है। इसी के चलते अब लेबर इंस्पेक्टर अखबारों के दफ्तरों में जाकर छानबीन कर रहे हैं। 

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हैरानी की बात है कि वर्किंग जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूजपेपर इम्पलाइज एक्ट 1955 की धारा 17डी के तहत श्रम निरीक्षकों को इसकी शिकायतों का निपटारा करने की शक्तियां दी गई हैं। केंद्र के इस कानून को लागू करने का जिम्मा राज्य सरकारों के श्रम विभाग का है। ऐसे में राज्यों के श्रम विभाग ही इस वेज बोर्ड के तथ्यों से अनभिज्ञ हैं। केंद्र ने वेज बोर्ड बनाकर इसे लागू करने का अपना काम तो पूरा कर दिया , मगर केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने इसे सख्ती व सही तरीके से लागू करवाने के लिए श्रम निरीक्षकों को ट्रेनिंग तक नहीं दी है। इस कारण श्रम निरीक्षक वेज बोर्ड के तहत लागू वेतनमान की गणना की जानकारी तक नहीं रखते। इस संबंध में जब मैने हिमाचल प्रदेश के श्रम विभाग से आरटीआई में  जानकारी मांगी, तो जवाब मिला कि विभाग किसी प्रकार की सैलरी की गणना नहीं करता। अगर विभाग वेज बोर्ड के तहत सैलरी की गणना नहीं करता तो, एक्ट के तहत मिली शिकायत का निपटरा कैसे करेगा। इससे जाहिर होता है कि केंद्र ने जहां इस  वेज बोर्ड को लागू करने की अपनी जिम्मेवारी निभाकर राज्यों को माथापच्ची करने को छोड़ दिया। वहीं राज्यों में अखबार मालिक अपने रसूख का भी भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के जांच आदेशों के बाद श्रम निरीक्षक हरकत में तो आए हैं, मगर अभी भी वह अखबार में वेतनमान दिए जाने या न दिए जाने की पुख्ता जांच के लिए प्रशिक्षित नहीं किए गए हैं। यह जांच कैसे की जाए और वेतनमान की पुष्टि का पैमाना क्या होगा, इन बातों को लेकर उन्हें कोई गाइडलाइन नहीं जारी की गई है। 

 जुझारू वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र अग्रवाल से संपर्क : 9816103265, [email protected]

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0 Comments

  1. rajesh

    July 22, 2015 at 11:03 am

    महाराष्‍ट्र के श्रम अधिकारियों को क्‍या वाकई मजीठिया संबंधी कोई आदेश या निर्देश नहीं मिले हैं?

    सुव्रत श्रीवास्‍तव
    मैं एक आरटीआई कार्यकर्ता हूं और स्‍वतंत्र पत्रकारिता भी करता हूं। पिछले दिनों एक आरटीआई के माध्‍यम से जब मैंने मुंबई के लेबर कमिश्‍नर कार्यालय से ये जानना चाहा कि क्‍या मुंबई के एक दिग्‍गज प्रकाशन संस्‍थान मैग्‍ना पब्लिशिंग कंपनी में मजीठिया आयोग की‍ सिफारिशें लागू कर दी गयी हैं, जिसकी स्‍टारडस्‍ट (अंग्रेजी), स्‍टारडस्‍ट (हिंदी), सैवी, हेल्‍थ एंड न्‍यूट्रिशन, सोसायटी, सोसायटी इंटीरियर, सिटाडेल जैसी आधा दर्जन से अधिक पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, तो लेबर ऑि‍फसर महेश पाटिल ने मुझे आरटीआई का लिखित जवाब देने की बजाय आरटीआई पर दिये मेरे फोन नं पर मुझसे संपर्क कर मिलने के लिए अपने कार्यालय में बुलाया। वहां मौजूद उनके साथी अधिकारियों उप श्रम आयुक्‍त जाधव, सहायक श्रम आयुक्‍त भुजबल आदि ने हैरत भरे अंदाज में कहा कि ये मजीठिया वेज बोर्ड क्‍या है…हमें इस संबंध में मुख्‍यमंत्री की ओर से कोई आदेश या निर्देश नहीं मिला है न ही यहां इस संबंध में जांच के लिए कोई विशेष अधिकारी ही नियुक्‍त किया गया है…हम इस बारे में आपको कोई जानकारी नहीं दे सकते…ऐसी आरटीआई तो आकर पड़ी रहती हैं…। मैंने जब उनसे ये कहा कि सुप्रीम कोर्ट की अमुक साइट पर जाकर आप उस फैसले को पढ़ सकते हैं तो उन्‍होंने कहा कि हमे देखेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जांच की निश्चित समय सीमा समाप्‍त होने वाली है और अभी तक मुंबई जैसे महानगर के लेबर अधिकारियों को कुछ पता ही नहीं है, ये भला कैसे संभव हो सकता है… इस बारे में कोई जानकारी जुटाने के लिए श्रम विभाग को मुख्‍यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के कार्यालय से क्‍या वाकई कोई निर्देश नहीं मिला है…अगर ऐसा है तो ये आश्‍चर्य की बात है और साथ ही साथ माननीय सर्वोच्‍च अदालत के आदेश का उल्‍लंघन भी।

  2. ´ravinder

    July 22, 2015 at 12:29 pm

    राजेश जी आपने यह बहुत महत्वपूर्ण जानकारी जुटाई है। अगर लेबर विभाग ने आपको आरटीआई का लिखित जवाब नहीं दिया है, तो इसके खिलाफ अपील की जा सकती है। अगर लिखित जानकारी मिली है, तो विभाग के कमीशनर व महाराष्ट्र सरकार के सक्रेटरी लेबर के खिलाफ माननीय सर्वाेच्च न्यायालय के आदेशों की अव्हेलना करने व अदालत की अवमानना का मुकद्दमा बनता है। इस जानकारी को सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ रहे वकीलों के माध्यम से कोर्ट तक पहुंचाया जाना जरूरी है। तभी ये अधिकारी काबू में आ सकते हैं। फिलहाल अपनी आरटीआई पर कानूनी तौर पर कार्रवाई जारी रखें।

  3. KASHINATH MATALE

    July 23, 2015 at 2:06 pm

    GUIDE LINES KI JARURAT HAI.
    FITMENT KAISE KARNA, DA KE LIYE KONSE POINTS LENA FITMENT 1ST JULY 2010 KARNA HAI. JAHA JAHA IMPLEMENT HUA HAI SAB GALAT TARIKESE HUA HAI. ISILIYE SALARY KI GANNA KAISI KI JAY ISKI TRAINING KI JARURAT HAI.
    WAGES UPWARD REVISION HONA CHAHIYE. MANAGEMENT NE KAHI KAHI DOWNWARDS WAGES DIYE HAI. YEH BAHOTHI GALAT HAI.

    SAHI TARIKESE CALCULATION HONA CHAHIYE.

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