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मनुष्यता भीड़ के तर्क से संचालित होती है, तभी तो पशुओं को मारकर खा लेते हैं हम!

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सुशोभित-

न्याय जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि इसके मानदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं…

स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म ‘लिंकन’ का दृश्य है कि पार्लियामेंट में अश्वेतों के अधिकार पर ज़ोरदार बहस चल रही है। प्रस्ताव का विरोधी एक सांसद उठ खड़ा होता है और कहता है- “अश्वेतों को अधिकार? यह तो हद्द हो गई। इसके बाद अब क्या प्रस्ताव रखा जाएगा? यह कि औरतों को भी वोट देने का अधिकार होना चाहिए?” पूरी संसद इस कथन का ज़ोरदार तालियों से समर्थन करती है।

यह 1860 का दशक है और अमेरिका में औरतों को वोट देने का अधिकार नहीं था, वहीं अश्वेतों को दासों के रूप में ख़रीदा-बेचा जाता था। यह पूरी तरह से सर्वमान्य था। आज आप ऐसी बात सोच भी नहीं सकते। आज अमेरिका दुनिया में लिब्रलिज़्म का गढ़ है, उनका अख़बार द न्यूयॉर्क टाइम्स तमाम तरह के वीमन्स राइट्स, एलजीबीटीक्यू राइट्स, एबॉर्शन राइट्स आदि का मुखपत्र है। पर आज से ढाई सौ साल पहले वहाँ भिन्न तस्वीर थी। तब उन लोगों ने कुछ सिद्धांतों पर सहमति बनाई थी, आज दूसरे सिद्धांतों पर सहमति बना ली है। सर्वसम्मति से संविधान बनता है। और सर्वसम्मति से ही संविधान संशोधित होता है। लेकिन ये सर्वसम्मति होती क्या है?

1860 का दशक तो पुरानी बात हो गई, अभी पिछली सदी में 1940 के दशक में जर्मनी में तमाम तरह की रेशियल थ्योरीज़ चलती थीं। नात्सीवाद का आधार पूर्णतया वैज्ञानिक था। बड़े-बड़े एंथ्रोपोलॉजिस्ट्स और एवल्यूशनरी बायलॉजिस्ट्स हिटलर की हुकूमत में तैनात थे, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि यहूदी, स्लाविक, अश्वेत और समलैंगिक नस्ली रूप से हीन होते हैं और इनका जीवित रहना मनुष्य जाति के लिए ख़तरा है। यानी इन्हें ऐसा विषाणु मान लिया गया था, जिनका सामूहिक संहार ही ऊँची नस्ल के लिए वैक्सीनेशन की तरह था। एक बार इस पर उन्होंने सर्वसम्मति बना ली, फिर उनको रोकने वाला कोई नहीं था। नात्सी पुलिस यहूदियों के घरों में घुस जाती, उन पर कब्ज़ा कर लेती, पुरुषों को यातना शिविरों में भेज दिया जाता और उनसे हाड़तोड़ काम लिया जाता, औरतों और बच्चों को गैस चेम्बरों में भेजकर मार दिया जाता। यह अनेक वर्षों तक चलता रहा और इस तरह से उन्होंने 60 लाख यहूदियों की हत्या की! केवल एक रेशियल-थ्योरी के आधार पर।

युद्ध के बाद जब मित्र राष्ट्रों ने नात्सियों पर न्यूरेमबर्ग कोर्ट में वॉर क्राइम चलाया तो आला नात्सी अफ़सरान वहाँ इस अंदाज़ में पेश हुए, मानो वे कोई नेक कार्य कर रहे थे और दुष्ट ताक़तों ने इसमें ख़लल डाल दिया। उनमें कोई ग्लानि नहीं थी। उलटे हरमन गॅरिंग ने जब न्यूरेमबर्ग ट्रायल्स के दौरान आत्महत्या की तो उसने उससे पहले ग्रेटर जर्मनी ज़िंदाबाद का नारा लगाया, मानो वो कोई शहीद हो। हिटलर, हिमलर और गोयबल्स तो पहले ही आत्महत्या करके शहीद हो चुके थे। आज भी जर्मनी में कुछ नियो-नात्सी हैं, जो उन्हें हुतात्मा की तरह याद करते हैं।

मनुष्य जब किसी बात पर सर्वसम्मति बना लेते हैं तो उसके बाद वो कुछ भी कर गुज़र सकते हैं। न्याय जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि इसके मानदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं। राष्ट्रों के संविधान नवीनतम मानकों पर आधारित होते हैं, लेकिन भरोसा नहीं कि सौ साल बाद के क्या मानक होंगे। आख़िर अश्वेतों को दास बनाकर रखा जाना चाहिए, यह अमेरिकी संविधान का एक लिखित नियम ही था। पार्लियामेंट में डिबेट अमेंडमेंट के लिए चल रही थी। सुचिंतित संविधान था।

बेबीलोन में अगर कोई व्यक्ति किसी की बेटी की हत्या कर देता, तो उसे क्या सज़ा दी जाती थी? बदले में उसकी भी बेटी की हत्या कर दी जाती थी। आँख के बदले आँख। तुमने उसकी बेटी मारी, हम तुम्हारी बेटी को मार डालेंगे। यही क़ानून था। आज दो हज़ार साल बाद जब हम इस नियमावली को पढ़ते हैं तो पूछते हैं, लेकिन हत्यारे का क्या? दो निर्दोष लड़कियों को मार डाला गया और दो हत्यारे खुले में घूमते रहे, इसमें कहाँ न्याय है? लेकिन बेबीलोन वालों को उसमें न्याय लगता था। वे उस पर एकमत थे।

एन्शेंट रोम के लोग क्या-क्या कारनामे करते थे, इस पर तो ग्रंथ लिखे गए हैं। अकल्पनीय, जघन्य कृत्य। सभ्य यूरोप में आज से दो सौ साल पहले तक मृत्युदण्ड की सज़ा सार्वजनिक रूप से गला काटकर दी जाती थी। गिलोटिन मशीन के द्वारा। फिर अपराधी का कटा हुआ सिर उठाकर भीड़ को दिखाया जाता था। सामूहिक अवचेतन संतुष्ट होता था। जब फ्रांस में क्रांति हुई तो उन्होंने राजा और रानी का भी ऐसे ही गला काट दिया। रूस में क्रांति हुई तो क्रांतिकारियों ने ज़ार के मासूम बच्चों को गोली मार दी, जो पूरी तरह से बेक़सूर थे। और क्रांति मनुष्यता की बेहतरी के लिए हुई थी।

इतिहास को पढ़ें और ख़ुद से पूछें कि आज आपको जो न्याय लगता है, क्या दो हज़ार साल बाद वह किसी को न्यायपूर्ण लगेगा?

युवाल हरारी ने कहा है कि मनुष्यों में कलेक्टिव-मिथ्स के निर्माण की अद्भुत क्षमता है। वे काग़ज़ के टुकड़ों पर सर्वसम्मति बना लेते हैं तो वह मुद्रा बन जाती है। फिर उसके लिए मर-मार सकते हैं। काग़ज़ पर खींची लकीरों पर सर्वसम्मति बनाते हैं तो वह राष्ट्र की सम्प्रभु सीमा बन जाती है। फिर उसके लिए युद्ध लड़ सकते हैं। एक सामूहिक कल्पना पर सर्वसम्मति बनाकर उसे ईश्वर घोषित कर देते हैं और उसी को पूजते हैं। जबकि स्वयं उन्होंने ही वह मूर्ति बनाई थी, स्वयं उन्होंने ही उसकी कल्पना की थी। उसका मनुष्यों से पूर्व कोई अस्तित्व नहीं था, कोई धारणा नहीं थी।

मनुष्यता भीड़ के तर्क से संचालित होती है। क्या सही है और क्या ग़लत है, यह मत पूछो। क्या सर्वमान्य है, यह पूछो। अगर मैं यह कर रहा हूँ, तुम कर रहे हो, सब कर रहे हैं, तब तो यह सही ही होगा, फिर भले वह सामूहिक अपराध हो। दंगा-फ़साद में लूट-खसोट पर सहमति निर्मित होती है। जब एक देश की सेनाएँ विजेता की तरह दूसरे देश में घुसती हैं तो औरतों के साथ बलात्कार सर्वसम्मति से किया जाता है। मनुष्य के द्वारा बनाए गए आपराधिक नियम, क़ायदे, क़ानून सब सापेक्ष हैं। वे आज हैं, कल नहीं थे। और वे किसी भी क्षण स्थगित किए जा सकते हैं, बशर्ते भीड़ को एक-दूसरे का सम्बल मिल जाए।

आज पूरी दुनिया के मनुष्यों ने इस बात पर सर्वसम्मति बनाई हुई है कि पशुओं को मारकर खा लेना एकदम उचित है, इसमें कुछ भी ग़लत नहीं। पशुओं को फ़ैक्टरियों में उत्पाद की तरह पैदा करना, वहाँ उन्हें बंधक बनाकर रखना और फिर क्रूरता से मार डालना- यह सर्वमान्य है। इसीलिए सूर्यास्त के रंगों को देखकर जिनका गला रूँध जाए, वैसे अत्यंत संवेदनशील लेखक-कविगण भी बड़े आराम से माँस खाते हैं, क्योंकि वे एक सर्वस्वीकृत वस्तु कर रहे होते हैं। वे एक पक्षी पर कविता लिखते हैं, दूसरे का चित्र बनाते हैं, तीसरे को मारकर खा जाते हैं- और उन्हें इसमें कुछ विचित्र नहीं लगता!

पूरी मनुष्य-जाति जैसे नींद में डूबी हुई है। इसका अपना कोई विवेक नहीं है, भीड़ का विवेक ही इसका विवेक है। भीड़ फ़साद भी करती है और भीड़ संविधान भी बनाती है- दोनों के पीछे सर्वमान्यता का तर्क काम करता है।

मेरी दृष्टि में मनुष्य-जीवन का एक ही लक्ष्य है- जिन-जिन बातों पर भीड़ ने सहमति बना ली है, उन्हें प्रश्नांकित करना, उनका मुआयना करना, उनमें तर्कसंगति खोजना! हर वो मूल्य, हर वो धारणा जो सर्वमान्य है, उससे सावधान। उसका परीक्षण करो। उसकी सत्यता की खोज करो। और एक कंसिस्टेंट नैतिक-तार्किक सरणी का सूत्रपात करो, फिर चाहे आप पूरी दुनिया में अकेले ही क्यों ना हों। किसी चीज़ को अगर पूरी दुनिया सही मानती है, इतने भर से आप भी उसको सही मत मान लो। एक मेधावी, नैतिक विद्रोह करो!

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