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सुख-दुख

मृत्यु को महोत्सव बनाने का विलक्षण उपक्रम है संथारा

जैन धर्म में संथारा अर्थात संलेखना- ’संन्यास मरण’ या ’वीर मरण’ कहलाता है। यह आत्महत्या नहीं है और यह किसी प्रकार का अपराध भी नहीं है बल्कि यह आत्मशुद्धि का एक धार्मिक कृत्य एवं आत्म समाधि की मिसाल है और मृत्यु को महोत्सव बनाने का अद्भुत एवं विलक्षण उपक्रम है। तेरापंथ धर्मसंघ के वरिष्ठ सन्त ‘शासनश्री’ मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ ने इसी मृत्यु की कला को स्वीकार करके संथारे के 10वें दिन चैविहार संथारे में दिनांक 4 अगस्त 2018 को सुबह 05.50 बजे देवलोकगमन किया।

मुनिश्री ने गत दिनांक 26 अगस्त को सायं 07.43 पर तिविहार संथारे का प्रत्याख्यान किया था। उनको 3 मिनट का चैविहार संथारा आया। मुनिश्री की पार्थिव देह अंतिम दर्शनों हेतु अणुव्रत भवन, 210, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग में रखा गया, जहां से उनकी समाधि यात्रा दरियागंज, लालकिला होते हुए निगम बोध घाट पहुंची। हजारों श्रद्धालुजनों सहित अनेक राजनेताओं, साहित्यकारों, धर्मगुरुओं, समाजसेवियों एवं रचनाकारों ने उनके अन्तिम दर्शन किये।

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मुनि सुमेरमलजी सुदर्शन ने नब्बे वर्ष की आयु में अपने जीवन ही नहीं, बल्कि अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने के लिये संथारा की कामना की, उनकी उत्कृष्ट भावना को देखते हुए उनके गुरु आचार्य श्री महाश्रमण ने इसकी स्वीकृति प्रदत्त की और उन्हें 26 अगस्त 2018 को सांय संथारा दिला दिया गया। मुनिश्री का सम्पूर्ण जीवन भगवान महावीर के आदर्शों पर गतिमान रहा है। आप एक प्रतिष्ठित जैन संत हैं। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है।

एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं प्रवचनकार के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। विशाल आगम साहित्य आलेखन कर उन्होंने साहित्य जगत में एक नई पहचान बनाई है। ग्यारह हजार से अधिक ऐतिहासिक एवं दुर्लभ पांडुलिपियों, कलाकृतियों को सुरक्षित, संरक्षित और व्यवस्थित करने में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन आगमों के सम्पादन-लेखन-संरक्षण के ऐतिहासिक कार्य में आपका सम्पूर्ण जीवन, श्रम, शक्ति नियोजित रही है। अनेक विशेषताओं एवं विलक्षणओं के धनी मुनिश्री को ही आचार्य श्री महाश्रमण के आचार्य पदाभिषेक के अवसर पर सम्पूर्ण समाज की ओर से पछेवड़ी यानी आचार्य आदर ओढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सुप्रतिष्ठित जैन विद्या पाठ्यक्रम को तैयार कर भावीपीढ़ी के संस्कार निर्माण के महान् कार्य को भी आपने अंजाम दिया है। ऐसे महान् साधक, तपस्वी एवं कर्मयौद्धा संत का संथारा भी एक नया इतिहास निर्मित कर रहा है।

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एक बार संत विनोबा भावे ने कहा था कि गीता को छोड़कर और महावीर से बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। यह बात मैं गर्व से नहीं, बल्कि स्वाभिमान से कह सकता हूं। विनोबा भावे ने जैन संतों का भी अनुकरण किया है। उन्होंने जैन परम्परा में मृत्यु की कला को भी आत्मसात करते हुए संलेखना-संथारा को स्वीकार कर मृत्यु का वरण किया। संलेखना के दौरान वर्धा में गांधी आश्रम में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था कि देश को उनकी जरूरत है। उन्हें आहार नहीं छोड़ना चाहिए। तो संत विनोबा भावे ने कहा था कि मेरे और परमात्मा के बीच में अब किसी को नहीं आना है, क्योंकि अब मेरी यात्रा पूर्ण हो रही है। न केवल विनोबा भावे बल्कि अनेक जैनेत्तर लोगों ने भी समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करके संथारे को गौरवान्वित किया है। मुनि सुदर्शन ने अपनी मृत्यु को इसी प्रकार धन्य करके अमरत्व की ओर गति की है।

जैन धर्म की सबसे प्राचीन आत्म उन्नयन की परम्परा है संथारा (संलेखना)। संथारा एक अहिंसक और आध्यात्मिक साधना पद्धति है इसलिए इसके समर्थन में होने वाले उपक्रम भी अहिंसक एवं आध्यात्मिक होते हैं। संथारा को श्रावकीय मनोरथों की शृंखला में तीसरा और आखिरी मनोरथ माना गया है। साधारणतः जीवन को प्रिय एवं मृत्यु को अप्रिय माना जाता है। लेकिन जैन दर्शन जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन का दर्शन प्रस्तुत करता है। भगवान महावीर ने कहा था कि मृत्यु से मत डरो, यह अभय का सूत्र व्यक्ति को निरंतर तद्नुरूप साधना से प्राप्त हो सकता है और इससे व्यक्ति का मृत्यु के प्रति भय भी क्षीण हो जाता है। जब व्यक्ति को लगे कि यह शरीर अब कम काम करने लगा है तब इस पर संलेखना का प्रयोग शुरू करें। इससे बाह्य दृष्टि से भले ही शरीर-बल क्षीण होगा पर आत्मबल प्रकट होता रहेगा।

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निरंतर संलेखना तप से जब मृत्यु निकट भी आयेगी तब व्यक्ति के लिए शरीर त्याग करने का मोह नहीं रहेगा। वह अभय बनकर अनशनपूर्वक अपनी जीवन यात्रा को समाप्त कर सकेगा। यह न केवल श्रावक बल्कि मुनि के लिए भी जीवन की सुखद अंतिम परिणति है। मृत्यु की इस अद्भुत कला संथारा को लेकर वर्तमान समय में अनेक भ्रांतियां एवं ऊंहापोह की स्थितियां परिव्याप्त हैं। एक आदर्श परंपरा पर छाये कुहासे एवं धुंधलकों को छांटने की जरूरत है। मुनि सुदर्शन ने एक साहसिक कदम उठाते हुए जैन धर्म की आध्यात्मिक विरासत को सुरक्षित रखने का उपक्रम किया एवं इसकी प्रेरणा दी है। जन-जन के घट-घट में मृत्यु की विलक्षण परम्परा का दीप प्रज्ज्वलित कर अंतर के पट खोलने का संदेश दिया हैं। जन्म और मृत्यु एक चक्र है, आदमी आता है, गुजर जाता है, आखिर क्यों? क्या मकसद है उसके आने-जाने और होने का। वह आकर जाता क्यों है? पुख्ता जमीन क्यों नहीं पकड़ लेता? क्या उसके इस तरह होने के पीछे कोई राज है? कुल मिलाकर मुनि सुदर्शन ने संथारा स्वीकार करके एक नया इतिहास रचा है।

मृत्यु को लेकर जो अज्ञान है। यदि उस अज्ञान के दुर्ग की प्राचीरों को जमींदोज कर दिया जाये तो कोई उलझन शेष नहीं रहेगी। अज्ञान भय को जन्म देता है और भय जिंदगी को नर्क बना देता है। असल में आसक्ति या राग तमाम विपत्तियों की जड़ है और अनासक्ति जननी है मुक्ति की, शांति की, समता की। अनादि संसार में कोई भी ऐसा जीव नहीं है जो जन्म लेकर मरण को प्राप्त न हुआ हो। देवेन्द्र, नरेन्द्र, मुनि, वैद्य, डाॅक्टर सभी का अपने-अपने सुनिश्चित समय में मरण अवश्य हुआ है। कोई भी विद्या, मणि, मंत्र, तंत्र, दिव्यशक्ति, औषध आदि मरण से बचा नहीं सकते। अपनी आयु के क्षय होने पर मरण होता ही है। कोई भी जीव यहां तक कि तीर्थंकर परमात्मा भी, अपनी आयु अन्य जीव को दे नहीं सकते और न उसकी आयु बढ़ा सकते हैं और न हर सकते हैं। अज्ञानी मरण को सुनिश्चित जानते हुए भी आत्महित के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ रहता है। जबकि ज्ञानी मरण को सुनिश्चित मानता है। वह जानता है कि जिस प्रकार वस्त्र और शरीर भिन्न हैं, उसी प्रकार शरीर और जीव भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए छूटते हुए शरीर को छोड़ने में ज्ञानी को न भय होता है और न ममत्व, अपितु उत्साह होता है। यही उत्साह संथारा की आधारभित्ति है और पुनर्जन्म या जन्म-जन्मांतर या उसकी श्रृंखला को मेटने या काटने की कला है, उस कला से साक्षात्कार करके मुनि सुदर्शन ने मृत्यु को महोत्सव का स्वरूप प्रदान किया है।

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जो मरण ज्ञानपूर्वक होता है वह सुखद एवं भव भ्रमण विनाशक होता है। प्रत्येक जीव मरण समय में होने वाले दुःखों से भयभीत है, मरण से नहीं। अपने मरण को सुखद और स्वाधीन करने के लिए मरण संबंधी ज्ञान होना आवश्यक है। मरण का ज्ञान अर्थात् संलेखना मरण/समाधिमरण करने का ज्ञान होना आवश्यक है। मनुष्य जीवन का सर्वोत्कृष्ट महोत्सव मृत्यु है। आत्मकल्याण करने के लिए संलेखना धारण कर अपनी मृत्यु का महोत्सव मनाना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकती है। मनुष्य को जीवन में राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि विविध प्रकार के उत्सव मनाने का अवसर प्राप्त होता है। प्रत्येक उत्सव का अपनी-अपनी जगह महत्व है। उनके महत्व का कारण उनमें अनेक विशेषताएं हैं। विशेष समय पर आते हैं, अनेक बार मनाने का अवसर प्राप्त होता है किन्तु मृत्यु महोत्सव जीवन के अंत में एक बार ही मनाने का अवसर प्राप्त होता है। संसार में जीवों को जन्म-जरा-मृत्यु से मुक्त कराने वाला उत्सव ही सर्वोत्कृष्ट उत्सव है। इसलिए जैनाचार्यों ने मृत्यु को महोत्सव कहा है। जैन धर्म के मृत्यु महोत्सव एवं कलात्मक मृत्यु को समझना न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिये बल्कि आम जनता के लिये उपयोगी है। यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न-जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा स्व-प्रेरणा से लिया गया निर्णय है। जैन धर्म-दर्शन-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहाँ धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला को आत्मसात किया जाता है। मुनिश्री सुमेरमलजी सुदर्शन का संथारा निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का निमित्त बनेगा एवं उन्हें भी अमरत्व प्राप्त होगा, यही विश्वास है।

-ललित गर्ग

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बी-380, प्रथम तल, निर्माण विहार, दिल्ली-110092

https://www.youtube.com/watch?v=4cUPu_2CBhY

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