श्रीप्रकाश दीक्षित-
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू… यह मुहावरा शायद सत्ताधारी नेताओं और मीडिया के लिए ही गढ़ा गया है. कुर्सी मिलने के महीने दो महीने बाद ही हवा-हवाई नेता सरकारी विज्ञापनों के मार्फ़त अपना गुणगान शुरू कर देते हैं जो अगले चुनाव की आचार संहिता तक जारी रहता है.
मीडिया में भी लार्जेस्ट सरकुलेटेड डेली, नंबर वन, सबसे तेज, सबसे विश्वसनीय और आपको आगे रखने वाले फतवे प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया माध्यमों में खूब ठोंके जाते हैं. इनकी असलियत चीखने चिल्लाने वाले पत्रकार अर्णव गोस्वामी द्वारा रिपब्लिक को नंबर वन बनाने के लिए अपनाए हथकंडों ने उजागर कर दी है. मुंबई पुलिस ने टीआरपी में हेराफेरी पर अर्णब समेत 4 लोगों को आरोपी बना चार्जशीट दायर की है.
दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में साठ के दशक में मत्थे याने नाम के ऊपर रोज लिखा रहता था- हिंदी का सर्वश्रेष्ठ दैनिक. अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की यह हास्यास्पद मिसाल थी. इन दिनों कमजोर प्रतिस्पर्धी अखबारों के चलते हिंदी अख़बारों में दैनिक भास्कर छाया है. सबसे ऊंची पायदान पर होने के बावजूद कोरोना से पहले यह भी राग दरबारी अलापा करता था. संपादक के नाम पत्र स्तम्भ गायब हो गया और बेजान संपादकीय भी खबरनुमा अंदाज मे नजर आने लगे. ख़बरों को निगेटिव और पाजिटिव में बाँटा जाने लगा. इसके पीछे नोन तेल आदि धंधों में पाँव पसारने को माना गया.
अलबत्ता कोरोना के दौर में इसके तेवर आक्रामक हैं. मौत के तांडव और सिस्टम की दुर्दशा पर सचित्र कवरेज ने सत्ता की नींद हराम कर दी है. वैसे इस कवरेज में अन्य अख़बार और चैनल भी पीछे नहीं रहे. इसे सोशल मीडिया की सक्रियता से जोड़ा जाता है जो कड़वा सच सीधे घरों तक पहुंचाता है. दैनिक भास्कर सबसे विश्वसनीय और तेज का दावा करता है जिस पर यकीन नहीं होता..
एक जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस ने शतरंज के नन्हें चैम्पियन पर बड़ी खबर छापी और संपादकीय भी लिखा. जिस दिन उसमें संपादकीय छप रहा था उस दिन दैनिक भास्कर पहले पेज पर खबर परोस रहा था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. अब इंडियन एक्सप्रेस ने तो कभी भी पहले और दूसरे नंबर का दावा किया नहीं. तो उसके बाद खबर छापने पर आपको किस पायदान पर माना जाए..?
अक्षत
July 7, 2021 at 1:03 am
सर मैं भी कुछ पत्रकारों को बड़े करीब से जानता हूँ,उनसे कई बार इस विषय पर चर्चा हुई है कि कांग्रेस शासन और भाजपा सरकार में मीडिया का हाल कब अच्छा रहा? वह बताते हैं कि सरकार को खुश करने वाली पत्रकारिता पुरानी है. कांग्रेस के ज़माने में भी विज्ञापन के लिए यह काम होता था मगर भाजपा के शासन में मामला सिर्फ विज्ञापनों तक सीमित नही बल्कि सरकार चाहती है कि मीडिया ‘सिर्फ’ वही दिखाए जो सरकार के पक्ष में हो,अन्य कुछ भी नही.
आपसे आग्रह है,कांग्रेस के शासनकाल और भाजपा के शासनकाल में पत्रकार और पत्रकारिता की हालत पर एक वीडियो बनाए ताकि हम फर्क थोड़े और बेहतर ढंग से समझ पाएं ।