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सुख-दुख

मीडिया जगत सेठों और सरकारों के अधिकाधिक नियंत्रण में आता गया!

प्रकाश के रे-

हिंदी पत्रकारिता दिवस की बधाई. आपने ग़ौर किया होगा कि हमें लगभग मुफ़्त में टीवी चैनल मिलते हैं और अख़बारों की क़ीमत एक कटिंग चाय से भी कम होती है. प्रतिस्पर्धा, विज्ञापनों की होड़, पाठकों की ओर से दबाव नहीं होने, समाज में राजनीतिक चेतना मंद होने आदि कारकों की वजह से हिंदी पट्टी में मीडिया को लेकर वैचारिक वातावरण और व्यापारिक संरचना का विकास नहीं हो सका. इस कारण मीडिया जगत सेठों और सरकारों के अधिकाधिक नियंत्रण में आता गया.

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पाठक को इन बातों से बहुत सरोकार नहीं रहा क्योंकि सूचना की अधिकता के दौर में उसे अख़बार-टीवी की चिंता करने की ज़रूरत नहीं रही और वह उपभोक्ता बनने को ही चेतन/जानकार होने का समानार्थी समझता है. तमाम फ़ॉल्टलाइन होने के कारण पाठक अपनी तुष्टि के लिए आसानी से ख़बर पा सकता है या उन ख़बरों की मनचाही मीमांसा कर सकता है.

मेरा मानना है कि फ़ेक न्यूज़ या ट्विस्ट का मसला मीडिया का नहीं है, फ़ॉल्टलाइन के बहुवचन और पाठकों के आलस का है. इसीलिए मैं फ़ैक्ट चेक को समय और संसाधन की बर्बादी मानता हूँ. हाँ, उपभोग के लिए एक अलग वेराइटी ज़रूर है.

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हिंदी मीडिया की ख़ासियत यह भी है कि वह अपने को हिंदी भाषा के वर्चस्व और हिंदी राष्ट्रवाद से गहरे तक जोड़कर रखता है क्योंकि जगत सेठों और सरकारों के लिए भी ये दोनों संजीवनी है.

एक आग्रह मैं छोटे शहरों और ज़िलों में कार्यरत पत्रकारों से करना चाहूँगा- दोस्त, नाली बनवाने में, बालू निकालने में, पेड़ काटने में घपले-घोटाले की रिपोर्टिंग कर क्या जान देना, क्यों हमले झेलना? सुरक्षित रहें, जैसे आपके वरिष्ठ रहते हैं, जैसे महानगरों के पत्रकार रहते हैं. जान है, तो जहान है…

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