कैसी पत्रकारिता… कैसा सामाजिक सरोकार, सिस्टम बीमार… हम सब लाचार… न जाने क्यों ऐसा लगता है कि पत्रकारिता जीवन की सबसे बड़ी भूल है… परेशान हूं, पर जब भी पत्रकारिता छोड़ना चाहता हूं तो घर वाले ये कहकर टाल देते हैं कि इतना पैसा बर्बाद किया, अब क्या करोगे… फिर सोचता हूं कि जिंदगी के 4-5 साल तो गवां ही दिये पत्रकारिता में… अब इस दलदल से बाहर जाकर भी मुझे क्या मिल जाएगा…
मीडिया मैनेजमेंट को ये समझ में आता है कि पत्रकारों को सैलेरी दी जाती है तो इनसे कुछ भी लिखवाएंगे, कुछ भी करवाएंगे और जब मन में आएगा तो बिना सैलेरी के ही काम पर लगा देंगे… कहीं वर्तमान समय में पत्रकारों की दशा बंधुवा मजदूरों की तो नहीं हो गई… किसी पत्रकार ने जरा सा मुंह खोल दिया तो बेरोजगारी का तमाचा मार दिया जाता है और फिर उसे भटकना पड़ता है…
ऐसी दशा के जिम्मेदार वो मीडिया इंस्टीट्यूट भी हैं जहां से लगातार हर साल सैकड़ों बच्चे मीडिया की चकाचौंध में आकर ये भूल जाते हैं कि मीडिया की वास्तविक सच्चाई क्या है… मालूम उन्हें ही है जो भुक्तभोगी हैं… मीडिया इंस्टीट्यूट बच्चों से मोटी फीस वसूल करते हैं और यह वादा कर लेते हैं कि उन्हे प्लेसमेंट मिलेगा, नौकरी मिलेगी… कुछ ही दिनों में कोई अंजना ओम कश्यप तो कोई रजत शर्मा बनकर छा जाएगा…. पर वास्तविकता इन सबसे परे है… जो इस दलदल में फंस गया बस यूं समझिए कि वो कांटे वाली मछली निगल गया, जिसे न वो उगल सकता है न निगल सकता है…
मयंक तिवारी
(गलती से पत्रकार)
आयुष
July 8, 2019 at 5:40 pm
मयंक भाई के लेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. जब पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए आये थे तो लगता था कि क्रांति ला दिया जाएगा लेकिन अब स्वयं से युद्ध लड रहे. मीडिया हाउस में आकर बैठने के बाद कितनों के कलम की स्याही सूख जाती है. यहां न चाहते हुए भी वह काम करना पड़ता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. कॉलेज वाले अपना जेब भरने के चक्कर में बहुतो का कैरियर नष्ट कर देते हैं.
मयंक तिवारी
July 30, 2019 at 5:12 am
आयुष अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत
Puja kumari
October 10, 2022 at 8:55 pm
Midiya bne ka teyari krne liye