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सुख-दुख

बीते दो दशकों में मीडिया की दशा-दिशा में आए बदलावों का वरिष्ठ पत्रकार एलएन शीतल द्वारा विस्तृत विश्लेषण

मीडिया के बदलते रुझान-1 : इन नवकुबेरों ने मिशन शब्द का अर्थ ही पागलपन कर दिया

 

अगर हम मीडिया के रुझान में आये बदलाव के लिए कोई विभाजन-रेखा खींचना चाहें तो वह विभाजन-रेखा है सन 1995. नरसिंह राव सरकार के वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गयी खुली अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप अख़बारी दुनिया में व्यापक परिवर्तन हुए. पहला बदलाव तो यह आया कि सम्पादक नाम की संस्था दिनोदिन कमज़ोर होती चली गयी, और अन्ततः आज सम्पादक की हैसियत महज एक मैनेजर की रह गयी है.

मीडिया के बदलते रुझान-1 : इन नवकुबेरों ने मिशन शब्द का अर्थ ही पागलपन कर दिया

 

अगर हम मीडिया के रुझान में आये बदलाव के लिए कोई विभाजन-रेखा खींचना चाहें तो वह विभाजन-रेखा है सन 1995. नरसिंह राव सरकार के वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गयी खुली अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप अख़बारी दुनिया में व्यापक परिवर्तन हुए. पहला बदलाव तो यह आया कि सम्पादक नाम की संस्था दिनोदिन कमज़ोर होती चली गयी, और अन्ततः आज सम्पादक की हैसियत महज एक मैनेजर की रह गयी है.

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दूसरा बदलाव यह आया कि मीडिया में बाज़ार का दख़ल उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया. बढ़ते विज्ञापनों के कारण अख़बारों के पेजों की संख्या बढ़ती गयी, ज़्यादा से ज़्यादा पेज रंगीन करने की होड़ ने रफ़्तार पकड़ ली, और अख़बार मिशन से व्यवसाय, और व्यवसाय से धन्धे में तब्दील हो गये. और…जब कोई व्यवसाय धन्धा बन जाये तो मर्यादाओं का चीरहरण होने में देर नहीं लगती.

विज्ञापन हथियाने के लिए चाटुकारिता और ब्लैकमेलिंग के हथियार खुलकर चलाये जाने लगे. तीसरा और सबसे दुःखद बदलाव यह आया कि बाज़ारवाद के कारण जिन लोगों ने देखते-देखते बेशुमार दौलत के टापू खड़े कर लिये, उन्होंने उन टापुओं पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने के लिए नये-नये अख़बार निकाल लिये, धड़ाधड़ चैनल शुरू कर दिये. इन नये कुबेरों का नैतिकता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है. ऐसे लोगों के शब्दकोश में तो मिशन शब्द का अर्थ ही पागलपन लिख दिया गया है.

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ऐसे नव-कुबेरों का प्रतिनिधित्व करता है एक समाचार-पत्र समूह, जिसके सन 1992 में मात्र पाँच संस्करण होते थे, जिनकी कुल प्रसार संख्या मात्र डेढ़ लाख कॉपियाँ थीं, आज देश का सबसे बड़ा मीडिया समूह है, जिसके न जाने कितने अन्य धन्धे देश भर में फैले हैं. चैनलों की भीड़ ने, आपसी होड़ के चलते, तथाकथित ख़बरों के जरिये महज़ सनसनी फैलाना ही अपना परम धर्म मान लिया है.

मजबूरन अख़बारों को भी इस भेड़चाल का शिकार होना पड़ा है. अगर हम चौथे बदलाव की बात करें तो मीडिया-ट्रायल का चलन लगातार बढ़ता जा रहा है. हालांकि कई मामलों में मीडिया-ट्रायल के फ़ायदे भी हुए हैं, लेकिन ज़्यादातर मामलों में हमारे न्यूज़ चैनलों में घुसे जेम्सबाण्डों और स्वयंभू जजों को नतीज़ों पर पहुँचने की जल्दी इतनी ज़्यादा होती है कि वे अपनी इन हरकतों से मामलों की तार्किक जाँच-पड़ताल और न्याय-प्रक्रिया को अपूरणीय नुकसान पहुँचाने से भी गुरेज नहीं करते. आरुषी हत्याकाण्ड इसका माकूल उदहारण है.

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समाचारों और विचारों में बाज़ार इस कदर हावी है कि ख़बर और विज्ञापन में अन्तर कर पाना बेहद मुश्किल काम हो गया है. बाज़ार का इससे ज़्यादा साफ़ असर क्या होगा कि ख़रीदारी के लिए शुभ माने जाने वाला पुष्य नक्षत्र की आवृत्ति साजिशाना ढंग से बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है. यहाँ तक कि कुछ अख़बार तो श्राद्ध पक्ष के दौरान भी पुष्य नक्षत्र के आगमन के प्रायोजित समाचार छापकर पाठकों को बेवकूफ़ बनाने से बाज नहीं आते. तमाम अख़बार ख़रीदारी के लिए तरह-तरह के मेले लगाने को अपना परम कर्त्तव्य मान बैठे हैं. यह पाठकों के खिलाफ़ एक गहरी मीडियाई साजिश है.

पाँचवाँ और आख़िरी बदलाव सुकून देने वाला बदलाव है. पहले सम्पादक नाम के प्राणी को विज्ञापनदाता और विज्ञापन लाने वाले स्टाफ से इस कदर जन्मजात चिढ़ होती थी कि वह विज्ञापनदाता पार्टी के ख़िलाफ़ ख़बर छापने को अपने वज़ूद की बुनियादी शर्त मानता था, और विज्ञापन-कर्मी उनके लिए हेय प्राणी होते थे. लेकिन अब यह ‘सबके साथ सबके विकास’ का युग है. अब सम्पादक के दायित्वों के साथ प्रबन्धकीय दायित्व भी जुड़ गये हैं और आज उद्योग-व्यवसाय के हितों का ख्याल रखने का जिम्मा वे बखूबी निभाने लगे हैं.

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(जारी)

लेखक एलएन शीतल वरिष्ठ पत्रकार हैं और नवभारत ग्रुप के सीनियर ग्रुप एडिटर हैं. शीतल से संपर्क फेसबुक के इस लिंक Facebook.com/lnshital.1958 के जरिए कर सकते हैं

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पार्ट दो पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करके अगले पेज पर जाएं>>

मीडिया के बदलते रुझान-2 : पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ

वर्तमान में, पूरा भारतीय समाज पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ की चपेट में है. वह दरक रहा है. विडम्बना यह है कि लगभग पूरा मीडिया इस हमले और घुसपैठ को रोकने तथा पाठक को उससे आगाह करने की बजाय ख़ुद उसका वाहक बन बैठा है. चूँकि, ज़्यादातर मीडिया-मालिक वही हैं, जो उस घुसपैठ से लाभान्वित हो रहे हैं, इसलिए वे पहरुए की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं.

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भविष्य में पश्चिम का बाज़ार और ज़्यादा हावी होगा, सांस्कृतिक हमला और ज़्यादा तेज होगा. नतीजतन हमारे मूल्य तिरोहित होंगे, समाज विखण्डित होगा. और, कुल मिलकर हम कमज़ोर होंगे. अन्देशा इस बात का है कि मीडिया अपने मौजूदा चरित्र को पकड़े रहने पर आमादा रहेगा. मात्र पाठकीय दबाव ही ऐसा अकेला जरिया है, जिसके बूते मीडिया को सही रस्ते पर लाया जा सकता है. इस लिए, भविष्य के वास्ते पाठकों की दोहरी ज़िम्मेदारी है कि वे, न केवल उस ख़तरे से ख़ुद आगाह रहें, बल्कि मीडिया की दशा और दिशा को भी नियन्त्रित रखें.

सामूहिक सोच को बाज़ारू बनाने पर आमादा है मीडिया
मीडिया का काम जनरुचि को परिष्कृत करना और सकारात्मक बातों के प्रति रुझान पैदा करना भी होता है. लेकिन, मीडिया समाज की सामूहिक सोच को विकृत करने और उसे बाज़ारू बनने पर आमादा है, क्योंकि उपभोक्तावाद का यही तक़ाज़ा है. हमारा मीडिया बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाला कारगर औजार साबित हुआ है. मीडिया नित नये उत्पादों की ज़रूरत पैदा करने, और फिर उनकी बिक्री बढ़ाने का माध्यम मात्र बनकर रह गया है. वह आम आदमी की चिन्ताओं को कारगर ढंग से पेश नहीं करके, उनकी आपराधिक उपेक्षा कर रहा है. वह उच्च वर्ग में शामिल होने को आतुर मध्यम वर्ग का नुमाइन्दा ज़्यादा नज़र आता है.

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एक ही मकसद – विज्ञापनदाताओं की हित-रक्षा!
लगभग पूरा मीडिया अपने पाठकों-श्रोताओं को तटस्थ सूचनाओं और निष्पक्ष विश्लेषण से वंचित रखकर समाचार और विचार में पूर्वग्रह ठूँस रहा है. वह उत्पादों को महिमामण्डित करने में जुटा है. उसकी यह भूमिका एक बड़े अशुभ की चेतावनी है. वह पाठकों को अपनी सुविधा से सामग्री परोसता है. परोसने की इस शैली का उद्देश्य पाठकों के दीर्घकालिक हितों की रक्षा करना कम, विज्ञापनदाताओं के हितों की रक्षा करना ज़्यादा है. दूसरी तरफ वह ग्रामीण क्षेत्र की घोर उपेक्षा कर रहा है. ऐसा वह अनजाने में नहीं, जानबूझ कर कर रहा है. ग्रामीणों की कौन-सी समस्याएँ हैं, इसकी बहुत कम चिन्ता मीडिया को है.

ज़्यादातर अख़बार और चैनल सियासी बयानबाजी, नेताओं की ऊलज़लूल हरकतों, लफ्फाजियों और झूठी घोषणाओं तथा छवासवीर तथाकथित समाजसेवियों की विज्ञप्तियों से पटे होते हैं. जीवन के हर क्षेत्र में क्षुद्र राजनीतिक दखलन्दाजी जिस ख़तरनाक हद तक बढ़ी है, उसका प्रतिकार करने में मीडिया नाकाम रहा है. देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा न तो विज्ञापनदाता है, और न ही नित नये विज्ञापनों से ‘कृतार्थ’ होने की हालत में हैं. इसलिए अख़बारों और चैनलों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस वर्ग के दीर्घकालिक हितों को पोषित करने वाली सामग्री को समुचित तयशुदा स्थान अनिवार्यतः मिले. इसके लिए, यदि कोई कानून भी बनाना पड़े, तो बनाया जाना चाहिए.

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मीडिया के बदलते रुझान-3 : इन्सानी संसाधनों को भी मिले मशीनी संसाधनों जैसी तवज्जो

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चूँकि मीडिया को अनौपचारिक तौर पर लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना गया है, इसलिए परम आवश्यक है कि हमारे मीडिया-संस्थानों की उत्पादन-प्रक्रिया पारदर्शी हो, और उनमें पाठकीय सरोकारों के प्रति जवाबदेही भी तय हो. इसे सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि मीडिया में ऐसे लोग आयें, जो योग्य हों, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वचनबद्ध हों तथा वे अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों की तुलना में मिशनरी जज़्बे से ज़्यादा भरे हों. ऐसे युवाओं को मीडिया में लाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल, सुनिश्चित भविष्य तथा अच्छे वेतन अनिवार्य हैं. सभी मीडिया-मालिक अपने मशीनी संसाधनों जितनी तवज्जो अपने इन्सानी संसाधनों को भी दें, यह निहायत ज़रूरी है. सभी को मालूम है कि नये वेतनमान दिलाने में सुप्रीम कोर्ट तक को एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है. इससे समझा जा सकता है कि मीडिया-मालिकों की चमड़ी कितनी मोटी है.

प्रबन्धन-परस्त नरमुण्डों को प्रश्रय
वर्तमान में मीडिया के आन्तरिक ढांचे में सबसे बड़ा ग्रहण यही लगा है कि पत्रकारों की गुणवत्ता को तिरोहित कर, प्रबन्धन-परस्त नरमुण्डों को प्रश्रय देने की परिपाटी चल पड़ी है. ऐसे पालित पत्रकारों द्वारा वेतन पर ज़्यादा जोर नहीं दिये जाने के पर्याप्त निजी कारण होते हैं. इसके लिए मौजूदा दोषपूर्ण कानूनी प्रावधानों को बदलना होगा. जब सरकारों में बैठे लोग अपने निजी हितों के लिए येन-केन-प्रकारेण अपने मन मुताबिक ख़बरें छपवा लेते हैं, तो वही लोग अपने उस कौशल, धनबल और सत्ताबल का इस्तेमाल मीडिया की दशा और दिशा सुधारने के लिए क्यों नहीं कर सकते? मीडिया संस्थानों के लिए यह कानूनन अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे सुस्थापित शर्तों को पूरा करने पर ही सरकारी और ग़ैर सरकारी विज्ञापन पा सकेंगे.

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संसाधनों में हो पारदर्शिता अनिवार्य
चूँकि, मीडिया नाम की संस्था के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही अनिवार्य है, इसलिए यही पारदर्शिता मीडिया-प्रतिष्ठानों के संसाधनों पर भी लागू होनी चाहिए. किसी भी पत्र-पत्रिका या चैनल को शुरू करने की अनुमति दिये जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अख़बार या चैनल शुरू करने के लिए राशि कहाँ से आयी है, शुरूआती पाँच वर्षों के लिए संचालन पर कितनी राशि ख़र्च होगी और वह कहाँ से आयेगी तथा मीडिया संस्थान शुरू करने वाले का आर्थिक आधार क्या है. इसी के साथ, मीडिया के क्षेत्र में प्रवेश करने के इच्छुक महानुभावों को अनुमति देने से पहले उनके पिछले 20 वर्षों के आर्थिक अतीत की जाँच-पड़ताल भी बारीकी से की जानी चाहिए. लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ की शुचिता बनाये रखने के लिए ज़्यादा उचित तो यह होगा कि मीडिया चलाने वाले प्रतिष्ठान केवल मीडिया ही चलायें, कोई और धन्धा न करें; क्योंकि मीडिया धन्धा तो हो गया है, लेकिन उसे महज धन्धा ही नहीं माना जा सकता. वह अन्ततः एक मिशन भी है, लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ भी है, और जन-प्रतिष्ठान भी!

(जारी)

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मीडिया के बदलते रुझान-4 : रिपोर्टर बनने पर सभी आमादा

कोढ़ में खाज यह है कि सभी नव आगन्तुक, क्राइम या पॉलिटिकल रिपोर्टर ही बनने पर उतारू होते हैं। कोई भी उप सम्पादक नहीं बनना चाहता। इसके चलते, हिन्दी मीडिया संस्थानों में सम्पादन डेस्क निरन्तर कमज़ोर और हेय होते चले गये, जबकि वे इन संस्थानों की रीढ़ होते हैं। हालात इस कदर बदतर हो गये हैं कि अब तो रिपोर्टरों को ही सम्पादक बनाया जाने लगा है, क्योंकि वे ‘सम्पर्क-सम्पन्न’ जो होते हैं!

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पीआरओ पैदा कर रहे हैं पत्रकारिता संस्थान
हमारे पत्रकारिता संस्थान पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं. और वह भी अधकचरे. इस पर भी उन्हें मुगालता यह कि उनकी आधी-अधूरी जानकारी ही अन्तिम सच है. जब वे किसी अख़बार से जुड़ते हैं तो उनके उस ‘ज्ञान’ की पोल पहले दिन ही खुल जाती है. यह दुरावस्था भविष्य के लिए एक भयावह संकेत है. आज दरकार इस बात की है कि सभी मीडिया संस्थान अपने-अपने संसाधनों के आंशिक योगदान से ऐसे प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करें, जिनके प्रबन्धन में उनकी नुमाइन्दगी हो और उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा से सफल होकर निकले प्रफ़ेशनल ही नियुक्त किये जायें. मौजूदा पाठ्यक्रम में, बदलती चुनौतियों के अनुरूप आमूल-चूल परिवर्तन किया जाये.

संयुक्त चयन प्रणाली
जिस तरह सभी बैंकों के लिए संयुक्त चयन प्रणाली है, उसी तरह से मीडिया के विभिन्न संस्थानों के लिए भी संयुक्त चयन प्रणाली लागू की जानी चाहिए. वेतन, प्रशिक्षण और चयन – इन तीनों ही स्तरों पर संजीदगी से एक निर्दोष प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है.

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आखिरी पार्ट पांच पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करके अगले पेज पर जाएं>>

मीडिया के बदलते रुझान-5 :  बने मीडिया नियामक आयोग

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जब हम न्यायपालिका को और ज़्यादा जवाबदेह तथा पारदर्शी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं, तो फिर मीडिया को ही पवित्र गाय मानकर क्यों छोड़ दिया जाये? कहने के लिए, मीडिया की ज़्यादती के शिकार पाठकों और सरकारों के मनमाने रवैये से पीड़ित अख़बारों की व्यथा-कथा सुनने के लिए एक संस्था है – ‘प्रेस कौंसिल’. लेकिन यह अधिकार–विहीन संस्था एक तमाशा-मात्र बनकर रह गयी है. यह दोषियों को सिर्फ़ चेतावनी दे सकती है. दण्ड देने का हक़ इसे नहीं है. मीडिया की दशा और दिशा सुधारने के उपायों की कड़ी में सबसे पहले एक स्वायत्तशासी, उच्चाधिकार-प्राप्त मीडिया नियामक आयोग बनाया जाना चाहिए, जो निर्वाचन आयोग या सूचना आयोग की तरह, अखिल भारतीय स्तर पर काम करे; और प्रदेशों में भी इसका राज्य स्तरीय ढांचा हो. यह आयोग ज़िला स्तर पर निगरानी-प्रकोष्ठ गठित करे, जो शुरूआती स्तर पर पाठकों की शिकायतों की जाँच-पड़ताल करके उन्हें आगामी सुनवाई के लिए अग्रेषित कर सकें. इससे पाठकीय सरोकारों के प्रति मीडिया की जवाबदेही बढ़ेगी.

चार काम करे मीडिया नियामक आयोग
यह निकाय मुख्य रूप से चार काम करे. एक तो यह कि वह बेलगाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होड़ ले रहे प्रिंट मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता पर रोक लगाये. चूँकि हमारे पाठक संगठित नहीं हैं, इसलिए उनके दीर्घकालिक सरोकारों से जुड़ी सामग्री के लिए इस नियामक आयोग की भूमिका अत्यन्त सार्थक रहेगी. वह निकाय तय करे कि कोई मीडिया-संस्थान चित्रों या अन्य सामग्री (‘लिंग वर्धक यन्त्र’, ‘कण्डोम के मजे’, ‘फुल बॉडी मसाज’, ‘दोस्ती करो और दिल खोलकर बातें करो’ आदि) के जरिये अश्लीलता न परोसे. दूसरे, उक्त नीति नियामक आयोग का दायित्व यह सुनिश्चित करना भी हो कि किसी भी अख़बार या चैनल में, विज्ञापनों के लिए दिये जा रहे स्थान या समय तथा समाचारों को मिलने वाले स्थान या समय का अनुपात तर्कसंगत हो. जो अनुपात तय किया जाये, उसका पालन भी हो.

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विज्ञापन ज़रूरी, लेकिन …
कोई शक़ नहीं कि किसी भी मीडिया संस्थान को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं, लेकिन ऐसा भी हरगिज़ न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढ़ने पड़ें. पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार-सामग्री को ख़बरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे. यह उसका तीसरा काम होगा. अपने चौथे काम के रूप में, वह आयोग यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सत्ता-प्रतिष्ठान ‘मित्र’ और ‘शत्रु’ अख़बारों की आन्तरिक तथा गुप्त सूची बनाकर विज्ञापनों की बन्दरबाँट न कर पाये. चुनावों के समय मीडिया के एक बड़े वर्ग की शर्मनाक हरक़तों पर तो ख़ुद शर्म भी बेहद शर्मसार है. ऐसी स्थिति में, यदि यह आयोग गठित किया जाता है, तो पाठकों को मिलने वाली सामग्री का स्तर सुधरेगा, उन्हें ज़्यादा सामग्री मिलेगी तथा मीडिया की आज़ादी अप्रभावित रह सकेगी.

वक़्त का तक़ाज़ा है एक पाठकीय यज्ञ
एक बड़े अँगरेज़ी अख़बार के सम्पादक ने पदमुक्त होने के अवसर पर लिखे अपने ‘विदा-लेख’ में पाठकों को ‘मी लॉर्ड’ के सम्बोधन से सम्बोधित किया. कितना अच्छा लगता है पाठक को दिया गया यह ‘मी लॉर्ड’ का सम्बोधन! लेकिन इसी के साथ दुःख भी होता है कि हमारे ज़्यादातर अख़बार और चैनल अपनी कथनी और करनी के जरिये पाठकों के इस सम्मान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं. हमें, जागरूक पाठक होने के नाते, अपनी इस अपमानजनक स्थिति को ख़त्म करना होगा. इसके लिए एक पाठकीय यज्ञ वक़्त का तक़ाज़ा है, जिसमें समिधा डालना हम सभी का युग-धर्म है. तभी पत्रकारिता की उज्ज्वल सम्भावनाओं के जगमग टापू फैलते नज़र आयेंगे. अगर बदकिस्मती से ऐसा न हो सका तो, यही कहना पड़ेगा –

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बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है!
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा!!

(समाप्त)

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0 Comments

  1. pramod singhal

    November 13, 2015 at 1:31 am

    nice colam hai.

  2. pramod singhal

    November 13, 2015 at 1:33 am

    aaj ki media ki satyta vyakt ki gayi hai….

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