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उत्तराखंड

त्वरित टिप्पणी : पिथौरागढ़ में हरदा हारे या फिर कांग्रेस संगठन?

कुछ दिन पहले उत्तराखंड कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह का पिथौरागढ़ उपचुनाव के बाबत अहम बयान आया था जो राजनीतिक हलकों से जुड़े लोगों को चौंका भी गया था। प्रीतम सिंह ने सीबीआई झेल रहे पार्टी नेता हरीश रावत को एक पत्र लिखा (अखबार में छपी खबर के मुताबिक)। पत्र में हरीश रावत से मतदान तक पिथौरागढ़ में ही कैम्प करने का निवेदन किया गया था। इस निवेदन के पीछे प्रीतम सिंह ने पुत्र की शादी का हवाला देते हुए अपनी पारिवारिक व सामाजिक व्यस्तता की बात कही थी।

एक राजनीतिज्ञ के तौर पर प्रीतम सिंह के इस कदम या हरदा से की गई विनती के दिन ही पिथौरागढ़ के चुनाव परिणाम का खुलासा हो गया था। यह भी साफ हो गया कि कभी-कभी चुनावी महाभारत में नेताओं के लिए भी पारिवारिक-सामाजिक दायित्व उनके राजनीतिक दायित्व से बढ़ कर हो जाते है। प्रीतम सिंह ने मतदान के करीब 10 या 12 दिन पहले हरदा से पिथौरागढ़ में ही डटे रहने का अनुरोध किया था। चुनाव प्रचार के बीच ही प्रीतम सिंह ने दिल्ली में भव्य शादी समारोह का आयोजन किया।

अब पिथौरागढ़ का चुनावी पिटारा खुल चुका है। मतदाताओं ने स्वर्गीय प्रकाश पन्त के निधन के बाद उपजी सहानुभूति लहर में बहते हुए भाजपा उम्मीदवार चंद्रा पन्त को विधानसभा में भेजा। कांग्रेस प्रत्याशी अंजू लुंठी लगभग 3 हजार मतों से चुनाव हार गई। भाजपा की इस जीत का सेहरा किसी भी नेता या संगठन के माथे नही बंधेगा। यह जीत अपेक्षित थी। यही होना भी था। स्वर्गीय प्रकाश पंत जी को श्रद्धांजलि के तौर पर इस जीत को याद किया जाएगा। उनकी पत्नी चंद्रा पंत की जीत को ठीक वैसे ही देख जाना चाहिए जैसे सुरेंद्र राकेश के निधन के बाद हुए भगवानपुर उपचुनाव में ममता राकेश और थराली से भाजपा विधायक मगनलाल शाह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी मुन्नी देवी की जीत।

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लिहाजा, पिथौरागढ़ के रण में मिली जीत के बाद भाजपा को कालर खड़े करने की जरूरत नहीं है। सहानुभूति लहर में मतदान प्रतिशत का 2017 के चुनाव (64 प्रतिशत)के मुकाबले गिरना (47 प्रतिशत )भी भाजपा की रणनीति को कठघरे में खड़ा करने की लिए काफी है। साफ जाहिर है कि संगठन मतदाताओं को बाहर निकालने से परहेज करता रहा। दूसरा, चंद्रा पंत की जीत बहुत भारी जीत भी नहीं कही जा सकती। इसे एकतरफा जीत भी नहीं कह सकते। इस जीत से किसी भी राज्यस्तरीय भाजपा नेता का कद नहीं बढ़ा है। जीत का यह मामूली अंतर 2022 में भाजपा के लिए चिंता का सबब भी बन सकता है। जबकि, यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि कांग्रेस की नई उम्मीदवार अंजू लुंठी उम्मीद से ज्यादा टक्कर दे गई।

यहां कांग्रेस के पूर्व विधायक मयूख महर पहले ही उपचुनाव लड़ने से मना कर चुके थे। हरीश रावत समेत कांग्रेस संगठन मयूख की जी हुजूरी में जुटा रहा। लेकिन मयूख टस से मस नही हुए। तमाम विकल्पों पर विचार के बाद अंतिम समय में अंजू लुंठी को उम्मीदवार बनाया।हरीश-मयूख के अलावा उनकी टीम पिथौरागढ़ में डटी रही।

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अब तस्वीर के दूसरे पहलू में सवाल तो कांग्रेस से पूछने का बनता है कि पिथौरागढ़ में आखिरकार हार किसकी हुई? कांग्रेस संगठन की या हरदा की। चूंकि, प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह व नेता प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश का पिथौरागढ़ में कोई निर्णायक आधार भी नहीं था। जो कुछ भी धनिया-पुदीना था वो सिर्फ और सिर्फ हरीश रावत की दुकान में था। तमाम परस्पर तल्खियों के बावजूद पूर्व विधायक मयूख महर अब भी हरीश रावत के खास माने जाते रहे है। वो भी प्रचार में खूब डटे।

अब जहां से बात शुरू की थी, उसी पर आते हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से सार्वजनिक निवेदन कर यह राजनीतिक सन्देश देने में कामयाब रहे कि पिथौरागढ़ अब आपके हवाले। मैं घर की शादी में बिजी। ऐसे में जीत-हार की अंकगणित का सेहरा हरीश के ही सिर बंधना तय था।

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हालांकि, यह भी सत्य है कि प्रीतम के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद दोनों के रिश्ते मधुर नही देखे गए। एक-दूसरे को बायपास करने की होड़ मची रही, जो अभी भी जारी है। इधर, हरीश रावत पर सीबीआई के मुकदमे और फिर पिथौरागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस ऊपरी तौर पर एकजुट नजर आयी। पिथौरागढ़ के अपेक्षित चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस खेमे में यह चर्चा भी जोर पकड़ेगी कि आखिरकार हारा कौन? जिम्मेदारी किस पर फिक्स होगी ? उत्तराखंड कांग्रेस संगठन पर या फिर चुनाव प्रचार की बागडोर थामे रहे पिथौरागढ़-अल्मोड़ा के पूर्व सांसद हरीश रावत पर……

लेखक अविकल थपलियाल उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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