गाजीपुर में अपने बुजुर्ग चरवाहे मित्र हक्कू खांव और उनकी बकरियों के साथ भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह.
वे अपना नाम हक्कू खांव बताते हैं. हम लोग मन ही मन मान लेते हैं कि असली नाम हलाकू खान होगा. हमने उनसे कहा भी कि आप अपना नाम गलत बता रहे हैं. शायद हलाकू खान होंगे आप. तो वे समझाए, ”नाहीं बेटा… ई नांव हमार बचपने से हउवे…”.
असल में हम पढ़े लिखे शहरी लोग अपनी जिद्दी अवधारणाओं और आग्रही मानसिकताओं के गुलाम होते हैं, सो जो हम सोचते मानते समझते हैं, उसे ही आखिरी सत्य मानकर दूसरों को सिखाते बताते भरमाते रहते हैं, अपने हिसाब से दूसरों को करेक्ट किया करते हैं. हक्कू खांव अगर हक्कू खांव ही हैं तो क्या फरक पड़ता है हमको आपको. लेकिन हम लोगों को जाने क्यों तुरंत लगा कि इनका नाम कुछ गलत-सा लग रहा है, अधूरा-सा लग रहा है. इसलिए कि हमारे अवचेतन में शायद यह समा गया है कि कोई अगर खुद का नाम हक्कू खांव बता रहा है तो ये पक्का हो गया है कि ये शख्स मुसलमान है… और, अगर ये मुसलमान है तो फिर हक्कू खांव क्यों है… नजदीकी करीबी शुद्ध नाम तो हलाकू खान है… इसे तो हलाकू खान हो जाना चााहिए…
विविधताओं को देखने समझने बूझने की आदत छोड़ता जा रहा है हम लोगों का मन-मस्तिष्क. जिस भयंकर सरलीकरण और ध्रुवीकरण की आंधी चली हुई, उसने देसजपना, भदेसपना, फक्कड़पन को अपने में लीलना, समेटना शुरू कर दिया है. मनुष्य या तो हिंदू हो गया है या मुसलमान. मनुष्य या तो सवर्ण हो गया है या दलित. मनुष्य या तो पुरुष हो गया है या स्त्री. इनसे अलग परे अनंत किस्म के मनुष्यों की श्रेणियां गुम हो रही हैं, छोटी होती जा रही है. सांप्रदायिक फसल काटते कटवाते नेताओं अफसरों ने समाज के सोच विचार के तरीके को दूषित विषैला कर दिया है. अवचेतन में शायद हम भी कुछ जहरीले फसलों को पनपा लिए होंगे दिल दिमाग में.
वैसे भी कहते हैं कि नाम में क्या रक्खा है. सो, चलिए नाम को छोड़ ही देते हैं. हक्कू खांव के काम पर बतियाते हैं. हक्कू खांव बकरी चराते हैं. पूछने पर कहते हैं कि वो तो सदा से यही काम करते हैं. मतलब फुल टाइम पेशा है उनका बकरी चराना. बताइए भला. जहां लोग करियर प्रमोशन पैकेज के चक्कर में अपना दूसरों का दिल दुखाकर अटैक ले दे आते जाते हैं वहीं हक्कू खांव है कि बकरी चराने को फुल टाइम पेशा बताते हैं और अपनी पूरी जिंदगी इस करियर से जोड़कर खुद को मस्त पाते हैं.
हक्कू खांव को अपना दोस्त मैं कई वजहों से मान बैठा. मुझे पता है ये दोस्ती अभी इकतरफा है क्योंकि हक्कू खांव ज्यादा उजली शकल वाले और एंड्रायड फोन चलाने वाले मूंछ दाढ़ी विहीन शख्स को तुरंत साहब मानते कहते आए हैं और ऐसा ही व्यवहार मुझसे भी करते रहे. हक्कू खांव के बोलने बतियाने में कोई आपाधापी उग्रता अशांति हड़बड़ाहट नहीं है क्योंकि उनकी बकरियां इत्मीनान से चरती रहती हैं. हक्कू खांव तक शांति वाया बकरियां पहुंचती हैं और वह दिन के हर लम्हें को अलग-अलग अंदाज में जीते हैं. कभी उकड़ूं बैठकर. कभी किसी अनजान से बतियाकर. कभी सुर्ती रगड़कर. कभी बकरियों से बतियाकर. कभी शाम के मांस-मछरी वाले सुस्वादू भोजन की मन ही मन प्लानिंग करते हुए.
हक्कू खांव चेहरे से भारत के झुर्रीधारी आम बुजुर्ग आदमी सरीखे भले लगते दिखते हों लेकिन उनका असली दम तो भड़ास के यशवंत ने देखा. कलम से मैं यशवंत भले ही कितनों को पटकनी देता रहता हूं लेकिन पंजा लड़ाने में बुजुर्ग दोस्त हक्कू खांव को मात नहीं दे पाया. वो भी तब जब मैं पंजा लड़ाने का अभ्यास सतत करता रहता हूं और अभी तक के अपने नब्बे फीसदी प्रतिद्वंद्वियों के पंजों को वाम पक्ष में धूल चटाकर / गिराकर खुद को पंजागुरु टाइप चीज मन ही मन मानने का गर्व करता रहता हूं. शायद वो हिस्ट्री चैनल पर जो सुपर ह्यूमन वाली सीरिज देखते देखते मेरे मन में बैठ गया है कि मैं अपने शरीर की शारी उर्जा को अपने पंजों में कैद कर दुनिया के किसी भी शख्स के पंजों को मरोड़ सकता हूं. लेकिन हक्कू खांव ने मेरे ग्लोबल और सुपर सपने को यूं चुटकियों में धराशाई कर दिया और मेरे पंजों को धरती से सटाकर दक्खिन दिखाते हुए मात दे दिया.
हक्कू से बातचीत का वीडियो रिकार्ड करना बंद ही तभी करता हूं जब हक्कू खांव गट्टा / पंजा लड़ाने के लिए तैयार होते हैं. हक्कू खांव से बातचीत रिकार्ड करते हुए मैं कभी उतना सहज नहीं रह पाया जितनी सहजता से हक्कू खांव बतिया रहे थे. उन्हें हमारे उनके चेहरे के बीच में फंसे किसी स्मार्ट फोन से कोई दिक्कत नहीं हो रही थी. वो आंख में आंख डालकर बात करने के लिए कोई न कोई मोबाइल के इधर उधर का कोना खोज ही ले रहे थे.
हक्कू खांव को मैं गरीब मान रहा था. उनकी शकल देखकर. उनके पेशे को देखकर. उनकी बकरियां देखकर. उनकी उमर देखकर. दिन यूं ही काटने के उनके अंदाज को देखकर. लेकिन जब हक्कू खांव के साथ रोजाना सुर्ती रगड़कर दोस्त की माफिक बैठकी कर बतियाने लगा तो महसूस हुआ कि मेरे से बहुत ज्यादा अमीर हैं हक्कू खांव. जिंदगी को जितनी सहजता, सरलता से वो जी रहे हैं, उतना मैं बिलकुल नहीं. हालांकि मैं सहजता और सरलता से जीवन जीने की प्रक्रिया को जानने बूझने जीने के लिए ही दर दर डेरा डंडा लेकर भटकता फिरता हूं पर यहां तो हक्कू खांव एक जगह विराजकर ही पूरी दुनिया की सहजता को मंद मंद इंज्वाय कर रहे हैं.
हक्कू खांव से कई रोज मिला. न वो मिलने आते थे और न मैं उनसे मिलने को बेचैन रहता था. मैं अकेला खटिया पर लेटकर धूप सेंक रहा होता और वहां से गुजर रहे कुछेक कुत्तों बकरियों मनुष्यों को देख रहा होता. हक्कू खांव और उनकी बकरियां एक नियम समय रोज आतीं और चरतीं हुईं आगे निकल जाती. इसी दरम्यान हक्कू खांव से बातचीत हो जाया करती. मुलाकात के तीसरे दिन मुझे लगा कि हक्कू खांव और उनकी बकरियों के साथ फोटू खिंचवाकर फेसबुक पर डाला जाए तो शायद खूब लाइक आए. शहरी मन मिजाज आजकल धूल मिट्टी घर समाज से कम इंटरैक्ट करता है, फेसबुक ट्विटर पर ज्यादा चूं चपड़ कर लाइक कमेंट्स बटोरने में लगा रहता है. सो, अपन ने ऐसा ही किया. और, सच में, फेसबुकियों को हक्कू खांव के साथ साझे में बकरी चराने वाली मेरी तस्वीर काफी पसंद आई. सैकड़ों लाइक्स और कमेंट्स इस तस्वीर ने बटोरे 🙂
हक्कू खांव के बारे में जब मैं सोचता हूं तो कई कई तरीके से सोचने लगता हूं. जैसे ये कि देश कि इकानामी चाहें जिस दिशा में जाए, देश की सत्ता पर चाहें जो विराजमान हो जाए, महंगाई का ग्राफ चाहें जिधर को चला जाए. इन सभी बड़ी बड़ी चीजों के अस्त या पस्त या मस्त होने से हक्कू खांव और उनकी बकरियों की सेहत पर तो कोई फरक पड़ने वाला नहीं. बकरियां घांस खाती हैं और हक्कू खांव घर में पाले रखे मुर्गे. बकरियां जब बिक कर कहीं किसी दूसरे के संग चली जाती हैं तो बदले में हक्कू खांव को पैसा दे जाती हैं. हक्कू खांव इन पैसों से अपने ‘पतोहिया’ और अपनी ‘बुढिया’ को खिलाते जिलाते हैं.
हक्कू खांव बताते हैं कि उनकी नइकी वाली पतोहिया रोज रोज मछरी मांस गोश्त खाती है और इतना खाती है कि उसका देख के हक्कू खांव का मन भर जाता है. हक्कू खांव कई टेंपो चलवाते हैं. दर्जन भर से ज्यादा. शहर के करीब की अपनी जमीन बेचकर उससे तीन गुनी ज्यादा जमीन दूर किसी गांव में खरीद ली है और कुछ पैसे से टेंपो खरीद कर शहर में चलवाते हैं. बताते हैं कि उन्हें रोज पंद्रह सौ रुपये की आमदनी टेंपूओं से हो जाती है. जिन हक्कू खांव को मैं सिर्फ बकरी चराने वाला मान रहा था वो तो पूरे सफल किस्म के गृहस्थ भी निकले. उनके बदरंग कपड़ों और झुर्रीदार चेहरों से उनके समझदार और सहज मन-मिजाज को नहीं समझा जा सकता है.
हक्कू खांव पार्टी करते हैं. गोश्त मछली मुर्गा पूरे इत्मीनान से बनाते पकाते हैं. मैंने उनसे कहा- ”हक्कू खांव जी, हम भी इन सबके शौकीन हैं, एक दिन हमको भी खिला दीजिए तो बदले में हम एक दो रोज आपकी बकरियां चरा दिया करेंगे.”
हक्कू खांव ने इस पर क्या सहज और मजेदार जवाब दिया, उसे आप नीचे दिए गए वीडियो लिंक पर क्लिक करके देख सुन सकते हैं… हक्कू खांव के पास करने को बहुत सारी बातें हैं. अपनी पतोह से लेकर अपनी जमीनों तक. इस वीडियो में कुछ सेकेंड्स संवाद स्थगित है, यानि आडियो नहीं है. कुल 6 मिनट 54 सेकेंड के इस वीडियो में 5 मिनट 25 सेकेंड से लेकर 5 मिनट 52 सेकेंड तक हक्कू खांव से बातचीत का आडियो उपलब्ध नहीं है. संभव है मेरी गलती से मोबाइल का रिकार्डिंग स्पीकर उंगलियों से ढंक तुप गया होगा, उसी कारण आवाज बेहद मामूली आ रही है.
arvind
December 12, 2014 at 11:21 am
Bahut badhiya. 🙂 🙂
santosh singh
December 12, 2014 at 1:18 pm
Dehati parives ke samne shahri log kewal style me adhik ho sakte hai khane rahne ka style dehati logp ke pas hai masti se jite hai
sanjeev singh thakur
December 12, 2014 at 8:21 am
Asli Bharat k pratinidhi hain aise log nakli India k nahin