ये तस्वीर एआई-वन की है. बहुत लंबी इस अंतरराष्ट्रीय उड़ान के दौरान जहाज में समय काटने के लिए खाने-पीने-सोने के बाद भी भारी समय बचता. ऐसे में दिमाग को तसल्लीबख्श खुराक देकर दुरुस्त रखने के लिए और समय से परे हो जाने के लिए सबसे सही काम हुआ करता राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बात करना, बहस सुनना, हर किसी के पेश किए गए विचार को समझना. इस बहस-विमर्श बतियाने गपियाने समझने-समझाने हंसने हंसाने के दौर में पता ही नहीं चलता कब घंटों बीत गए.
इस पूरे बौद्धिक सत्र का बड़ी शिद्दत से संचालन / संयोजन करते कराते थे राज्यसभा टीवी के सीईओ और एडिटर इन चीफ Gurdeep Singh Sappal जी. वो जब भी मीडिया डेलीगेशन टीम के सदस्यों वाले जहाज के कूपे में आते तो हर एक से हलो हॉय के बाद जहां कहीं दो-चार लोगों में विचार-विमर्श होता दिखता तो उसमें शामिल हो जाते. उनको सुनकर लगता कि इस शख्स के विचार कितने सुस्पष्ट, उदात्त और जनपक्षधर हैं.
आने-जाने के दौरान कम से कम आधा दर्जन बार गंभीर बातचीत कई मुद्दों पर हुई. राज्यसभा टीवी के भाई Shyam Sunder पूरी बातचीत बहस में अपने निजी नजरिए को पूरी गंभीरता और विस्तार के साथ रखते और हम लोगों की जिन बातों से राजी न होते उस पर अपनी असहमति दर्ज कराते हुए ढेर सारे तर्क, तथ्य, सैद्धांतिक समझ और व्यावहरिक अनुभवों को पेश करते. सब कुछ को सुन कर सप्पल साब एक नतीजापरक / कानक्लुडिंग नजरिया पेश करते जिसमें वे कोशिश करते सबके सवालों और संदेहों का उत्तर समाहित हो. वेनेजुएला के साथ अमेरिकी गुंडई हो या भारत में राजनीतिक आंदोलनों का अंजाम, बताने-समझाने के लिए सप्पल साब के पास तर्क और तथ्य का भंडार होता, और, सबसे अलग किस्म का एक नया पर्सपेक्टिव भी.
इसी तरह ट्रिब्यून के संदीप दीक्षित जी समेत कई अन्य पत्रकार साथी इन बहसों में शिरकत कर देश, काल, समय समेत अनेक अनोखें प्ररकणों / मामलों पर अदभुत जानकारियां देते. ऐसे ही विमर्श बतकही के एक मौके पर जब पीटीआई के फोटोग्राफर शैलेंद्र भोजक जी विचार विमर्श में तल्लीन हम लोगों की चुपके से तस्वीर बनाने में मशगूल थे तो हम लोग उनके मुख-कैमरा मुद्रा देख तुरंत पोज देने वाली स्टाइल में व्यवस्थित हो डटे… कुछ इस अंदाज में- ” लो भाई खींचो, जितना मन हो उतना खींचो!” 🙂
मैं निजी तौर पर वेनेजुएला को समझना चाह रहा था जिसके बारे में इंटरनेट पर नकारात्मक खबरों की बाढ़ है. एक क्रांतिकारी रहे देश में आंतरिक हालात कितने बिगड़ चुके हैं, इंटरनेट पर फैली पसरी ढेर सारी खबरें यही बताती रहीं. वेनेजुएला को लेकर अमेरिका और अमेरिकन मीडिया का जो रुख है, उसके पीछे बड़ा खेल तेल का है. वेनेजुएला ने अपने समाजवादी / कम्युनिस्ट स्वभाव के कारण हमेशा साम्राज्यवादी अमेरिका को दुत्कारा और कम्युनिस्ट चीन से याराना रखा. तेल निकालने समेत ढेर सारा कार्य व्यापार वेनेजुएला ने चीन को सौंप रखा है. इसका नतीजा ये हुआ कि बौखलाए अमेरिका ने वेनेजुएला पर कई बहानों से तरह-तरह की पाबंदी लगा दी.
वेनेजुएला ने अपनी आय का ज्यादातर हिस्सा देश के सोशल सेक्टर पर खर्च किया. हेल्थ, एजुकेशन, हाउस या यूं कहिए रोटी कपड़ा मकान सब फ्री में सभी को दे रखा है. यही वजह है कि वहां साक्षरता सौ प्रतिशत है. हर एक के पास कंप्यूटर है. सबके रहने के लिए घर है. लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों, अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा फैलाई गई नकारात्मक खबरों से टूरिस्टों का आना बंद हो जाने, तेल का दाम लगातार गिरने और आम जन को राज्य पर पूरी तरह डिपेंडेंट कर देने जैसे कई कारणों से धीरे धीरे अर्थव्यवस्था कमजोर होती गई. तेल के गिरे दामों ने आग में घी का काम किया जिससे वेनेजुएला की लोकल मुद्रा बोलिवर का पतन भयंकर रूप से हुआ. हालत यह है कि अमेरिका का एक डालर अब एक हजार बोलिवर के बराबर है.
अमेरिकन मीडिया और अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों के लगातार नकारात्मक कवरेज के कारण आय के दूसरे सबसे बड़े साधन टूरिज्म का वेनेजुएला से खत्मा हो गया. शासन-सत्ता से ही सब कुछ मिलते जाने के कारण पनपे संतुष्टि भाव ने जनता को समानांतर कार्य व्यापार खेती उद्यम विकसित न करने दिया. इंटरनेट और सोशल मीडिया ने यहां की जनता को दुनिया की हलचलों से जोड़ा और सबके मन में आकांक्षाओं-उम्मीदों-लालसओं-रंगीनियों-सपनों के पर लगा दिए. अमेरिका और सीआईए ने तीन काम बहुत मजबूती से किया. अर्थव्यवस्था कमजोर किया, विपक्ष को मैनेज किया और दुष्प्रचार किया. कमजोर होती अर्थव्यवस्था से जूझ रह वेनेजुएला में एक ऐसा अमेरिका संरक्षित विपक्ष तैयार हुआ, पनपा जो जनता को भड़काते हुए सारी दुर्गति के लिए वहां के समाजवादी / कम्युनिस्ट शासन को जिम्मेदार ठहराने लगा. अमेरिकी प्रतिबंधों से पीड़ित और गिरती अर्थव्यवस्था से कई किस्म के अभाव झेलती जनता ने यथास्थितिवाद के खिलाफ बदलाव के विपक्षी नारे पर भरोसा करना शुरू कर दिया है.
आने वाले दिनों में अगर वेनेजुएला में अमेरिका संरक्षित डमी सरकार सत्ता में आ जाए और तेल के सारे कारखाने खदान आदि चीन से लेकर अमेरिका के हवाले कर दिया जाए तो कोई बड़ी घटना मत मानिएगा. तब अमेरिका प्रतिबंध हटा लेगा और दुनिया भर के टूरिस्टों को वेनेजुएला जाने के लिए प्रोत्साहित करेगा जिससे वहां फौरी तौर पर चमक दमक तो दिखाई देने लगेगा लेकिन दीर्घकालीन रूप से होगा यह कि जनता की सारी जिम्मेदारियां जो अभी राज्य के कंधे पर है, धीरे धीरे बाजार के हवाले हो जाएगी और एक ऐसा वक्त आएगा, भारत की तरह, वहां कारपोरेट का राज होगा, नौजवान लोग दस बीस हजार की अस्थाई नौकरियां इन्हीं कारपोरेट में करेंगे और हेल्थ-एजुकेशन जैसे बेहद महंगे काम के लिए खेत-मकान बेचेंगे या खुद को गिरवी रख कंगाल हो जाएंगे.
मेरे खयाल से वेनेजुएला और भारत की शासन व्यवस्था दोनों ही दो अतियों पर हैं. अगर इनके बीच का कोई रास्ता निकाला जा सके, जिसमें एक तो मूल में समाजवादी राज्य व्यवस्था हो जो स्वास्थ्य शिक्षा मकान तकनीकी जैसे जरूरी काम को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए हर नागरिक को इसे मुहैया कराए और इन क्षेत्र से निजी कंपनियों / कारपोरेट्स को खदेड़ दे, साथ ही इसके समानांतर छोटे छोटे उद्यम व्यापार खेती आदि को प्रमोट कर ग्रासरूट लेवल पर लाभप्रद मार्केट रिलेटेड माडल डेवलप कराए तो एक शानदार शासन सिस्टम बनाया खड़ा किया जा सकता है.
एक बहुत शानदार बात तो मैं बताना भूल ही गया. वेनेजुएला में महिला और पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं है. वहां की महिलाएं वैसे ही रहती पहनती हैं जैसे मर्द. हम जैसे लोग जो सामंती कुंठित किस्म के उत्तर भारतीय परिवेश से आते हैं, वेनेजुएला की महिलाओं को देखकर लगभग चौंक पड़ते हैं कि क्या कोई देश ऐसा भी है जहां महिलाएं इतनी आजादी रखती हों और पुरुषों के मन में एक परसेंट भी महिलाओं के दोयम होने टाइप का भाव न हो. वेनेजुएला की राज्य व्यवस्था ने वहां के लोगों को अदभुत किस्म की चीजें दी हैं जो हम लोग अपने कारपोरेट्स-पूंजीवादियों के शासन पद्धित में कभी नहीं हासिल कर पाते.
असल में कारपोरेट्स-पूंजीवाद बस वहीं तक सुधार कार्यक्रम चलवाता है जहां तक उसके धंधे के बेरोकटोक चलने में दिक्कत होती है. उसका कनसर्न समाज और जनता से नहीं रहता. उसका लक्ष्य पूंजी होता है, अधिक से अधिकतम पूंजी इकट्ठे करते रहना. इस चक्कर में वह जनता को बाजार के हवाले किए रहता है और बाजार बड़ी क्रूरता से जनता को चूसते हुए उसे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से विकलांग बनाता रहता है.
वेनेजुएला गए बगैर आप असली समाजवादी / कम्युनिस्ट शासन को नहीं समझ सकते. अच्छी शासन व्यवस्थाओं की दिक्कत यह है कि वह लगातार साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को चैलेंज करते रहते हैं और यह साम्राज्यवाद / पूंजीवाद / कारपोरेट्स की मजबूरी है कि वह लगातार अपने पूरे तंत्र के जरिए झूठ को सच में तब्दील कर जन मानस को भड़काते रहते हैं ताकि उन्हें मुनाफा पीटने के लिए ज्यादा से ज्यादा और नए से नया बाजार मिलता रहे. वेनेजुएला को बाजार और यहां की जनता को कीड़े-मकोड़े में तब्दील करने के लिए अमेरिका समेत सारे यूरोपीय यूनियन वाले देश जी जान से लगे हैं. इसी के तहत यूरोपीय मीडिया लगातार ऐसी खबरें छापता बताता रहता है जिससे वेनेजुएला और वहां के शासन की एक खौफनाक तस्वीर सामने आती है.
हां, ये सच है कि वेनेजुएला की राजधानी कराकस समेत कई शहरों में अभावों के कारण अराजक घटनाएं होने लगी हैं, संगठित अपराधी गिरोह सर उठाने लगे हैं और किसी का भी लुट जाना, पिट जाना आम बात हो गई है. पर यह भी सच है कि ऐसी हालत पैदा करने के लिए बहुत हद तक अमेरिकी पाबंदी जिम्मेदार है जिसने वेनेजुएला की नाकेबंदी कर रखी है. कुछ हद तक वेनेजुएला की शासन पद्धित भी जिम्मेदार है जिसने लोगों को परजीवी बना दिया है, वे हर चीज के लिए सरकार पर निर्भर हो गए हैं जिसके कारण वे ब्रेड के लिए लंबी लंबी लाइन लगाने के लिए तो तैयार रहते हैं पर खुद कुछ कर के पैदा करने से बचना चाहते हैं. समाजवादी / कम्युनिस्ट व्यवस्था में कैसे लोगों को खुद काम कर अर्जित करने के लिए मोटीवेट किया जाए, इसके लिए चीन का माडल देखा समझा जा सकता है. वेनेजुएला यह नहीं कर पाया जिसके कारण वहां की जनता के लिए शासन बोझ हो गया है और शासन के लिए जनता बोझ की तरह दिख रही है. आवश्यक सामान-चीजों की ब्लैक मार्केटिंग हद से बढ़ गई है. जीवन के लिए जरूरी चीजें बाजार से गायब हो गई हैं.
वेनेजुएला अब जिस तरफ चल पड़ा है उसमें अब वहां कम्युनिस्ट / समाजवादी शासन ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं है और दुखद यह है कि कोई देश वेनेजुएला की मदद करने के लिए तैयार नहीं है. अकेला चीन वेनेजुएला का बोझ अपने सिर नहीं उठा सकता. वैसे भी चीन ने दूसरे देशों में समाजवादी राज कायम रखने के लिए हथियार से लेकर पैसा देने वाली सोवियत संघ की नीति को शुरू से ही नहीं अपनाया है. तो कह सकते हैं कि वेनेजुएला को लेकर अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की नीति कामयाब होने की ओर है. चमत्कारी नेता ह्यूगो शावेज का न होना भी बड़ा संकट है जो अपने जोश और विजन से पूरे वेनेजुएला को जवान बनाए रहते थे और कुछ भी कर गुजरने के लिए प्रेरित करना का जज्बा लिए रहते थे.
आने जाने के दौरान जहाज पर सप्पल साहब के नेतृत्व में हुई बहसों और मौके पर जाकर वहां के स्थानीय लोगों से बातचीत के बाद वेनेजुएला को लेकर एक ठीकठाक समझ अपन के दिमाग में डेवलप हुई. मैं खुद भी कम्युनिस्ट शासन से संबंधित बहुत सारी बातों से सहमत नहीं लेकिन वेनेजुएला जाकर बिलकुल सामने से देखा कि कैसे एक राज्य अपनी जनता की हर जिम्मेदारी खुद उठाता है और मनुष्य को पूरी तरह से आजाद छोड़ देता है. लेकिन हम मनुष्यों के दिमाग बड़े अजीब होते हैं. जो हमें मिल जाता है, वह मूल्यहीन हो जाता है और जो न मिला होता है, वह अमूल्य दिखता है. मानव मन के इस कांट्रास्ट को समझेंगे तभी जान पाएंगे कि क्यों कम्युनिस्ट शासन वाले देशों की जनता लालसाओं-इच्छाओं की जुगुप्सा से भरपूर उत्तेजित होकर यदा-कदा पूंजीवादी मॉडल के खुले बाजार वाली शासन पद्धति की ओर उन्मुख देशों के मनुष्यों जैसा बनना चाहती है और क्यों पूंजीवादी देशों की भरपूर आजाद कही जाने वाली जनता कम्युनिस्ट / समाजवादी शासन पद्धति वाले देशों की माफिक सोशल सेक्टर (हेल्थ, एजुकेशन, मकान आदि) की जिम्मेदारी अपने सरकारों के कंधे पर डालने के लिए आंदोलित होती है.
राज्यसभा टीवी के सीईओ और एडिटर इन चीफ गुरदीप सप्पल सोशल मीडिया की तरफ इशारा करके कहते हैं कि इसने एक अजीब दौर शुरू कर दिया है जिसमें दिमागी रूप से बौने किस्म के लोग एकजुट होकर अपनी झूठी और सतही राय को समूह में सच की तरह पेश कर वायरल करते हैं और खुद के जैसे झूठे-सतही नेता को सबसे सच्चा नेता बताते हैं. यही कारण है कि दुनिया भर में झूठे-मक्कार और आक्रामक किस्म के विचार विहीन नेताओं की फौज पैदा हो रही है जो सत्ता में आने पर अंतत: जनता के खिलाफ और कारपोरेट्स के पक्ष में काम करते हैं. ऐसे ही नेता अगर धरती को किसी नए किस्म के युद्ध में झोंक दें और पूरी धरती से जीवन तबाह करने की ओर अग्रसर हो जाएं तो कोई बड़ी परिघटना न होगी.
सप्पल साब आगे बताते हैं- अमेरिका में एक नेता आक्रामक तरीके से यह कहते हुए चुनाव लड़ रहा है कि अमेरिका की खोई ताकत वह वापस करेगा, अमेरिका बहुत बर्बाद देश हो गया है, यह महाशक्ति जैसा नहीं रहा… सोचिए जरा, सबसे ताकतवर देश अमेरिका को यह नेता जीतकर किस तरह ताकतवर देश साबित करेगा? दूसरे देशों पर बेवजह हमला करके? दूसरे देशों पर कब्जा करके? दूसरे देशों को बात बात में सबक सिखा के? और, जब यह सब वह करेगा तो उसके इस कृत्य से दुनिया किस तरफ जाएगी? लेकिन मजेदार बात है कि अमेरिका के लोग इस बड़बोले नेता पर यकीन कर रहे हैं और उसे हीरो मानकर उसे जिताने में लगे हैं. यह फेनोमिना पूरी दुनिया में दिखेगा आपको. भारत हो या अमेरिका या वेनेजुएला… हर जगह सोशल मीडिया ने बिलकुल नए किस्म के नेतृत्व गढ़े हैं जो जन हित के लिहाज से खतरनाक हैं. आज के दौर में सच और झूठ में फर्क करना बेहद मुश्किल हो गया है. झूठ को सच की तरह पेश किया जाता है और सच पर सौ सवाल उठाकर उसे झूठा साबित कर दिया जाता है. ऐसे में किसी को जानना समझना हो तो दूसरों की राय पर जाने की बजाय खुद की खुली आखों और खुद के खुले दिमाग का इस्तेमाल करना पड़ेगा, जमीनी स्तर पर उतरना पड़ेगा, मौके पर जाना पड़ेगा, तब जाकर एक सही नजरिया कायम कर सकेंगे हम लोग. लेकिन आज के फटाफट वाले दौर में इतनी जहमत कौन उठाना चाहेगा. वेनेजुएला भी आने वाले दिनों में ऐसे ही एक सतही किस्म के नेतृत्व के हवाले हो सकता है जिसकी परिणति शासन सत्ता से जनपक्षधरता का खात्मा होगा. इसमें अमेरिका तो लगा ही हुआ है, सोशल मीडिया के जरिए वेनेजुएला की जनता भी एकजुट होकर बदलाव के संबंध में दिखाए जा रहे सपने को जरूरी मानने लगी है.
खैर, अब बात करते हैं दूसरी तस्वीर की.
ये दूसरी तस्वीर ईटीवी बिहार के एडिटर Kumar Prabodh के साथ वेनेजुएला के होटल में स्थित भारतीय मीडिया सेंटर की है. प्रबोध भाई से मेरा याराना सबसे ज्यादा रहा क्योंकि हम दोनों बिहार यूपी की माटी के खांटी देसज स्वभाव वाले पत्रकार थे, सो, अक्सर आंखों ही आंखों में कूट भाषा में बहुत कुछ कह बतिया लिया करते थे. रजनीगंधा-तुलसी का याराना कितना तगड़ा होता है, इसे वही समझ सकता है जो इसका शौकीन हो. ज्यादातर सिगरेट वाले थे लेकिन प्रबोध भाई और शैलेंद्र भोजक भाई ने रजनीगंधा-तुलसी की कमी पूरी यात्रा के दौरान न अखरने दी. आखिर जहाज में चढ़ने का क्या फायदा जब हम जैसे यूपी बिहार के भइये पत्रकार खैनी गुटखा ही न खा पाएं, वो भी 21 घंटे की अंतरराष्ट्रीय उड़ान में. 🙂
जितना मजे से वक्त बहसियाने-गपियाने से कटा, उतने ही प्यार से प्रसन्न रखा रजनीगंधा-तुलसी के चबाने ने. जब मुंह बंद करने का मन होता तो कुमार प्रबोध भाई या शैलेद्र भोजक जी को इशारा करता और हां हां ना ना करते करते तुलसी रजनीगंधा दोनों में से कोई न कोई उपलब्ध करा ही देता. मेरी तरह कुमार प्रबोध और शैलेंद्र भोजक भी उपराष्ट्रपति के साथ और एआई वन में पहली बार उड़ रहे थे. लौटानी को तो स्थिति ये हुई कि तुलसी कुमार प्रबोध के पास बची रह गई और रजनीगंधा का स्टाक सिफ शैलेंद्र भोजक के पास. तब एक दूसरे से अनजान इन दोनों के बीच संवाद / पुल / लेन-देन का काम करते हुए बंदरोचित न्याय मैं करने में जुटा रहता. इनसे तुलसी लेकर उनको देता और उनसे रजनीगंधा लेकर इनको थमाता. इस प्रक्रिया के दौरान बीच में डंडी मार कर थोड़ा-थोड़ा खुद के मुंह में फेंकता रहता. इस तरह दोनों को ये मलाल न होता कि कोई घुसपैठिया उनके निजी स्टाक को लगातार शेयर करते हुए अवांछित रूप से कम कर रहा है. 🙂
कह सकता हूं कि जहाज पर गपियाने-बतियाने और बीच बीच में तुलसी-रजनीगंधा चबाने ने कम से कम वेनेजुएल के बारे में बड़ा ज्ञान दे दिया. कई साथी सिगरेट पीते थे सो बीच बीच में निकल जाते और धुआं फूंक मार कर बहस में नई उर्जा से शामिल हो जाते.
शुक्रिया शैलेंद्र भोजक भाई, इतनी प्यारी तस्वीर खींचने और फिर मेल पर भेजने के लिए. आपकी तस्वीरों ने बहुत सारी बहसों बातों यादों को ताजा कर दिया, और देखिए न, लिखते लिखते कितना कुछ लिख गया. फिर से प्यार और आभार.
लेखक यशवंत सिंह भड़ास के संस्थापक और संपादक हैं.
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