Connect with us

Hi, what are you looking for?

उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश में भाजपा के गले में अटक गये हैं मिथकीय किरदार

Krishan pal Singh-

उत्तर प्रदेश में राजनीतिक रंगमंच पर मिथकीय किरदारों के प्रेत जगाना भारतीय जनता पार्टी के गले में अटक गया है। आधुनिक जरूरतों के अनुरूप बनते ढ़ांचे को इन प्रेतों का उत्पात बहुत आघात पहंुचा रहा है जिससे स्थिति जटिल हो गई है और भाजपा के सयाने अपने को धर्म संकट में घिरा पा रहे हैं। विधानसभा चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन इस घमासान ने सत्तारूढ़ पार्टी को इतना फंसा दिया है कि निकट भविष्य में बहुत देर तक इनसे छुटकारा पाने के लिए उसे हाथ पैर मारने पड़ेंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुख्यमंत्री के रूप में योगी के वरण से बेपटरी हुई भाजपा-

साध्वी उमा भारती को जब मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनाया गया था और राजकाज की अपनी शैली का परिचय जब उन्होंने वहां की राजधानी भोपाल में सड़कों पर निकलते समय जगह-जगह सरकारी कार रोककर विचरण करती गायों को रूक-रूककर रोती खिलाने के दृश्यों से देना शुरू किया था तो भाजपा के तत्कालीन केन्द्रीय नेतृत्व के कान खड़े हो गये थे। पार्टी की विचित्र होती छवि बचाने के लिए अटल-आडवानी को जैसे की मौका मिला उन्होंने उमा भारती को निपटाया और हुबली प्रकरण के पटाक्षेप के बाद भी उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री पद की कमान नहीं मिलने दी। उत्तर प्रदेश में संघ जब भाजपा के भारी बहुमत से सत्ता में आने पर योगी आदित्यनाथ के वरण के फैसले के लिए उद्यत हो गया था तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिचकिचाये तो थे जिससे इस फैसले में काफी देरी भी हुई पर उन्होंने पाया कि उनके लिए संघ को वीटो करने का कोई अवसर नहीं है तो उन्हें हालातों से समझौता करने में ही गनीमत नजर आयी। हालांकि संघ के इस कदम से धार्मिक सैद्धांतिक प्रश्न खड़े हो गये थे क्योंकि राजा के सन्यासी और योगी बनने के तो दृष्टांत तो भारतीय पुरा साहित्य में मौजूद हैं पर योगी या सन्यासी के राजा बनने का कोई नहीं है। भागवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। इसके कारण न तो कंस पर विजय के बाद उन्होंने मथुरा के सिंहासन को संभालने की इच्छा जताई और न ही पांडवों को महाभारत जिताने का पूरा श्रेय होने के बावजूद अपना राजतिलक कराने की। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर संघ ने इस पौराणिक इतिहास में विपर्यास जोड़ने का काम किया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

योगी का धार्मिक प्राथमिकताओं पर संचालित शासन-

योगी ने शासन की सार्वभौम प्राथमिकताओं को अनदेखा करके पुरानी पड़ चुकी धार्मिक मान्यताओं को शासन की प्राथमिकता में अपनाया जिससे कदम-कदम पर व्यवहारिक कठिनाइयां उत्पन्न हुई। प्रशासन पर शासन की कसाबट इन प्राथमिकताओं ने भटका दी। अनुपयोगी विकास में शासन के संसाधन व्यय किये नतीजतन आर्थिक रफ्तार को तेज करने के लिए जिन कदमों को तकाजा था वे संसाधनों को टोटा पड़ जाने से पिछड़ने लगे। विभिन्न विभागों में परखे हुए प्रेजेन्टेशन के अनुरूप कार्यनीति संचालित करने और सरकार को कुशल प्रबंधन की ट्रेनिंग दिलाने की कबायद बांझ बन गई। प्रशासन और न्याय की आधुनिक मान्यतायें उन पर सवार वर्ण व्यवस्था के भूत के कारण लड़खड़ा गई। मुख्यमंत्री ने सोचा कि आठ पुलिस वालों का संहार करने वाले विकास दुबे के एनकाउंटर से उन्हें बड़ी वाहवाही मिलेगी क्योंकि वे अभी भी अपनी एनकाउंटर वीरता पर मुग्ध रहते हैं। पर योगी इस बात को भूल गये कि भारतीय दंड विधान और संविधान कुछ भी कहता हो लेकिन वर्ण व्यवस्था का कानून तो यह कहता है कि किसी ब्राह्मण को किसी भी अपराध के लिए दंड देना तो दूर दोषी तक नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए ओरों के फर्जी एनकाउंटरों की बात दूसरी थी पर इस एनकाउंटर में तो उन्हें कटघरे में खड़ा होना ही था। जिन धार्मिक आख्यानों में वे अघोषित रूप से सामाजिक और संवैधानिक ज्ञान के श्रोतों को खोज रहे हैं उनमें यह धारणा व्याप्त की जा रही है कि कितने भी गुण होने के बावजूद कोई शूद्र सम्मान प्राप्त करने का अधिकारी नहीं बन सकता। इस तरह की उलटबांसी किसी पार्टी को मतिभ्रम का शिकार बना दे तो यह लाजिमी है। गोविंदाचार्य के समय लायी गई सोशल इंजीनियरिंग ने भाजपा को आगे बढ़ाने और शीर्ष पर पहुंचाने में बहुत मदद दी है लेकिन इस ज्ञान ने उसकी अभी तक के सारे श्रम पर पानी फेरने का काम किया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

क्षत्रिय तो दान में हार चुके हैं राज्यसत्ता –

योगी सरकार में उत्तर प्रदेश में संवैधानिक रूप से आरक्षण को समाप्त किये बिना ही इस व्यवस्था को पंगु बनाने की बिसात बिछाई गई ताकि सवर्णशाही को ताकत दी जा सके लेकिन नतीजा उल्टा हुआ और इन उपायों ने सवर्ण एकता की दरारों को उभार डाला। क्षत्रिय और ब्राह्मण द्वंद के पुराने पन्ने खोल डाले। राजा हरिशचन्द्र और वामन अवतार की पुरा कथायें क्या बताती हैं कि क्षत्रिय तो राज्यसत्ता पर अधिकार को दान में हार चुके हैं। चूंकि दान मांगने और प्राप्त करने का अधिकार पुरानी मान्यताओं में सिर्फ ब्राह्मणों का रहा है इसलिए यह स्वतः स्पष्ट है कि क्षत्रियों ने अपना यह अधिकार किसको दान में दिया है। जाहिर है कि इस स्थिति में वर्ण व्यवस्था फिर सिर उठायेगी तो ब्राह्मण क्षत्रियों के सामने राज्यसत्ता पर अपना हक देखेंगे नतीजतन राज्यसत्ता में क्षत्रिय की उपस्थिति उन्हें हक तलफी महसूस होगी। इस संदर्भ में और भी पुरा कथाओं के संदेश डिकोड किये जा सकते हैं। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को राज्यसत्ता में इस जिम्मेदारी के लिए नियुक्त किया था कि वे धर्म की रक्षा करेंगे। अब धर्म क्या है। आध्यात्मिक संदर्भ में पहले धर्म के टर्म का जिक्र नदारद है इसकी बजाय तत्व चर्चा और तत्व ज्ञान के शब्द हैं जिनसे इसकी अभिव्यक्ति की जाती है। संस्थागत रूप से धर्म का टर्म वर्णाश्रम व्यवस्था को परिभाषित करने के लिए लाया गया था क्योंकि क्षत्रिय राजा की जिम्मेदारी वर्णाश्रम धर्म की रक्षा की थी जिसके पालन में गड़बड़ी होने पर उनसे जबावदेही ली जाती थी और अपनी सफाई के लिए वे अपरिहार्य कार्रवाई को बाध्य किये जाते थे। राम कथा में शंम्बूक प्रसंग में इसको देखा जा सकता है। कालांतर में क्षत्रिय राजाओं की निष्ठा वर्णाश्रम धर्म में डगमगा गई और उन्होंने बौद्ध धम्य, जैन धर्म व तमाम पंथ चलाकर जाति प्रथा के उन्मूलन के माध्यम से वर्ण व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने की चेष्टायें की जिससे ब्राह्मण वर्ग का विश्वास उन पर से उठ गया। अंततोगत्वा मौर्य वंश के शासन के अंतिम समय में वृहद्रथ का वध करके पुष्प मित्र शुंग ने सत्ता संभाल ली जो ब्राह्मण थे। बकौल बाबा साहब अम्बेडकर उन्होंने मानव स्मृति के स्थान पर मनु स्मृति लिखवाई जिसमें ब्राह्मणों के लिए सेनापति और राजा का पद धारण करने में निषेध को समाप्त किया गया। शस्त्रों के मामले में पहले सफाई तक के लिए शस्त्रों को ब्राह्मण नहीं छू सकते थे पर मनु स्मृति में शस्त्रों के प्रयोग का अधिकार भी ब्राह्मणों को दे दिया गया। इस तरह वर्ण व्यवस्था का इतिहास यह प्रतिपादित करता है कि क्षत्रिय राज्यसत्ता के अधिकार से वंचित किये जा चुके हैं और यह धारणा वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों की आपत्ति का कारण बन जाती है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आत्म सम्मान को ठेस से बिफरे लाभार्थी –

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में लाभार्थी परक योजनाओं को अपना ट्रंप कार्ड मानकर मुगालते में थी। पहले के चुनावों में इस कार्ड ने उसे बड़ा फायदा पहुंचाया भी था पर आश्चर्यजनक है कि इस बार यह कार्ड फलीभूत नहीं हुआ है। बजह वही वर्ण व्यवस्थावादी तौर तरीके हैं जिससे पिछड़ों और दलितों में उनकी सामाजिक अवहेलना को छुपाया नहीं जा सका। चूंकि लाभार्थियों में इन्हींे वर्गो के लोग बहुतायत में हैं जिन्हें मुफ्त राशन नमक के एहसान के कारण अपने आत्म सम्मान से समझौता गंबारा नहीं हुआ है। भाजपा की सत्ता किसी राज्य में पहली बार नहीं आयी है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी जब मुख्यमंत्री बने तो उनके सामने बड़ी चुनौती थी। वे पटेल नेतृत्व को हटाकर मुख्यमंत्री बनाये गये थे जिनका गुजरात में प्रभुत्व है। उनकी नाराजगी का जोखिम था फिर भी शीघ्र ही हुए विधानसभा के चुनाव में वे बहुमत बटोरने में सफल हुए और इसके बाद देश भर में खलनायक बनाये जाने के बावजूद उन्होंने राज्य में अपनी सत्ता को स्थायी बना लिया। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह का उदाहरण ले लें। वे भी बार-बार रिपीट हुए हैं। राजस्थान में भी वसुंधरा भले ही इस बार सत्ता में नहीं है पर उनके नेतृत्व की भी राज्य में बड़ी स्वीकार्यता है। बिहार में भाजपा से ही सहयोग लेकर नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने थे और अब अंगद के पांव की तरह राज्य की सत्ता में जमे हुए हैं। इसलिए भाजपा के नेतृत्व के सामने यह विचारणीय होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में जहां योगी को विशाल बहुमत की विरासत सौंपकर मुख्यमंत्री बनाया गया था उनकी पारी इतनी जल्दी कैसे लड़खड़ा गई। इस प्रश्न के उत्तर को खोजा जायेगा तो पार्टी नेतृत्व इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि जर्जर हो चुकी सामाजिक व्यवस्था के पुराने ढ़ांचे से लगाव ही इसकी मुख्य वजह है जिसके चलते उन्होंने राज्य में संवैधानिक दिशा को बेपटरी किया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कांग्रेस का ब्राह्मण शासन-

कांग्रेस युग में पिछड़े उससे बहुत नाराज रहते थे। यहां तक कि कांग्रेस के ही पिछड़े वर्ग के नेता तक उसके निजाम को ब्राह्मण निजाम बताकर आलोचना करने में नहीं चूकते थे। कई बार इस पर चैधरी चरण सिंह ने जब वे कांग्रेस में थे प्रधानमंत्री पं0 नेहरू को चिट्ठियां लिखी थी। पर वास्तविकता में उसके ब्राह्मण शासन में पूरी तरह प्रगतिशील तत्व रहे। कांग्रेस पर यथा स्थितिवादी होने का आरोप लगता रहा पर सिर्फ इतना था कि विपलवकारी तरीकों में विश्वास करने की बजाय बदलाव के लिए कांग्रेस बहुत सुनियोजित ढ़ंग से संवैधानिक उपायों के जरिये मूक क्रांति को अंजाम देती रही थी जिसकी प्रक्रिया भले ही बेहद धीमी रही हो। राजीव गांधी के समय पंचायती राज और स्थानी निकायों में दलित पिछड़ों व महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करके बदलाव के संदेश को जड़ों तक पहुंचाने का बड़ा कार्य किया गया था। उत्तर प्रदेश में 1988 में कांग्रेस के समय ही नाराण दत्त तिवारी ने सबसे पहले पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था। इसके पहले हेमबतीनंदन बहुगुणा ने मुख्यमंत्री रहते हुए उत्तर प्रदेश में हर जिले में डीएम एसपी में से एक पद पर अनु0जाति या जनजाति के अधिकारी की नियुक्ति को अनिवार्य बनाया था। यहां तक कि भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इसी दिशा के अनुशीलन में रूचि दिखायी। पदोन्नति में आरक्षण के सुप्रीम कोर्ट द्वारा खतम किये गये प्रावधान को बहाल कराने के लिए उन्होंने संविधान संशोधन विधेयक पारित कराये। खुद नरेन्द्र मोदी ने जब संघ प्रमुख की जुबान बिहार के विधानसभा चुनाव के समय आरक्षण को लेकर फिसल गई थी तो इस हेतु अपनी दृढ़ प्रतिबद्धता जताते हुए कहा था कि वे मरते दम तक आरक्षण को समाप्त नहीं होने देंगे। उन्होंने जिस नये भारत के निर्माण की बात ही है वह पुराने ढ़ांचे के ध्यंसावशेषों पर ही खड़ा हो सकता है। यह जानते हुए भी आधुनिक विश्व से जुड़ने और उसमें सबसे ऊंचा स्थान पाने की कशिश के बावजूद भाजपा योगी आदित्यनाथ जैसे रूढ़िवादी नेतृत्व का चयन देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री के रूप में करके चूक कैसे गये।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक K.P. Singh यूपी के जालौन जिले के निवासी हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- Mob.No.09415187850

Advertisement. Scroll to continue reading.
2 Comments

2 Comments

  1. Amit Sharma

    March 5, 2022 at 8:35 pm

    क्या ही कहा जाए इस लेख पर

    सच्चाई से बिल्कुल आंखें मूंदकर लिखा गया है

  2. विजय सिंह

    March 5, 2022 at 11:12 pm

    असहमत।
    राजा सन्यासी बन सकता है पर सन्यासी राजा नहीं ,ऐसा कोई विधिसम्मत नियम तो नहीं !! जहाँ तक योगी आदित्यनाथ का प्रश्न है , वे अचानक रातों रात राजनीति में नहीं आये।मुख्यमंत्री बनने से पहले उत्तर प्रदेश के ही गोरखपुर से १९९८ से २०१७ तक पांच बार लगातर सांसद होने का रुतबा प्राप्त कर चुके थे। २०१७ में मुख्यमंत्री के रूप में ‘बेहतर प्रतिभागी’ के रूप में ही उनकी ताजपोशी को देखा जाना उचित होगा।

Leave a Reply

Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement