: मीडिया समझ ले, सत्ता ही है पूर्ण लोकतंत्र और पूर्ण स्वराज! : मौजूदा दौर में मीडिया हर धंधे का सिरमौर है। चाहे वह धंधा सियासत ही क्यों न हो। सत्ता जब जनता के भरोसे पर चूकने लगे तो उसे भरोसा प्रचार के भोंपू तंत्र पर होता है। प्रचार का भोंपू तंत्र कभी एक राह नहीं देखता। वह ललचाता है। डराता है। साथ खड़े होने को कहता है। साथ खड़े होकर सहलाता है और सिय़ासत की उन तमाम चालों को भी चलता है, जिससे समाज में यह संदेश जाये कि जनता तो हर पांच बरस के बाद सत्ता बदल सकती है। लेकिन मीडिया को कौन बदलेगा? तो अगर मीडिया की इतनी ही साख है तो वह भी चुनाव लड़ ले… राजनीतिक सत्ता से जनता के बीच दो-दो हाथ कर ले… जो जीतेगा, उसी की जनता मानेगी!
इस अंदाज को 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने कहना चाहा। मोदी सरकार ने अपनाना चाहा। इसी राह को केजरीवाल सरकार कहना चाहती है। अपनाना चाहती है। और, पन्नों को पलटें तो मनमोहन सरकार में भी आखिरी दिनों यही गुमान आ गया था जब वह खुले तौर पर अन्ना आंदोलन के वक्त यह कहने से नहीं चूक रही थी कि चुनाव लड़कर देख लीजिये। अभी हम जीते हैं तो जनता ने हमें वोट दिया है, तो हमारी सुनिये। सिर्फ हम ही सही हैं। हम ही सच कह रहे हैं। क्योंकि जनता को लेकर हम ही जमींदार हैं। यही है पूर्ण ताकत का गुमान। यानी लोकतंत्र के पहरुये के तौर पर अगर कोई भी स्तंभ सत्ता के खिलाफ नजर आयेगा तो सत्ता ही कभी न्याय करेगी तो कभी कार्यपालिका, कभी विधायिका तो कभी मीडिया बन कर अपनी पूर्ण ताकत का एहसास कराने से नहीं चूकेगी। ध्यान दें तो बेहद महीन लकीर समाज के बीच हर संस्थान में संस्थानों के ही अंतर्विरोध की खिंच रही है।
दिल्ली सरकार का कहना है, मानना है कि केन्द्र सरकार उसे ढहाने पर लगी है। बिहार में लालू यादव को इस पर खुली आपत्ति है कि ओवैसी बिहार चुनाव लड़ने आ कैसे गये। नौकरशाही सत्ता की पसंद नापसंदी के बीच जा खड़ी हुई है। केन्द्र में तो खुले तौर पर नौकरशाह पसंद किये जाते हैं या ठिकाने लगा दिये जाते हैं लेकिन राज्यो के हालात भी पसंद के नौकरशाहों को साथ रखने और नापसंद के नौकरशाहों को हाशिये पर ढकेल देने का हो चला है। पुलिसिया मिजाज कैसे किसी सत्ता के लिये काम कर सकता है और ना करे तो कैसे उसे बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है, यह मुबंई पुलिस कमिश्नर मारिया के तबादले और तबादले की वजह बताने के बाद उसी वजह को नयी नियुक्ति के साथ खारिज करने के तरीको ने बदला दिया। क्योंकि मारिया जिस पद के लाय़क थे वह कमिश्नर का पद नहीं था और जिस पद से लाकर जिसे कमिश्नर बनाया गया वह कमिश्नर बनते ही उसी पद के हो गये, जिसके लिये मारिया को हटाया गया। यानी संस्थानों की गरिमा चाहे गिरे लेकिन सत्ता गरिमा गिराकर ही अपने अनुकूल कैसे बना लेती है, इसका खुला चेहरा पीएमओ और सचिवों को लेकर मोदी मॉडल पर अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक की रिपोर्ट बताती है तो यूपी सरकार के नियुक्ति प्रकरण पर इलाहबाद हाईकोर्ट की रोक भी खुला अंदेशा देती है कि राजनीतिक सत्ता पूर्ण ताकत के लिये कैसे मचल रही है। और, इन सभी पर निगरानी अगर स्वच्छंद तौर पत्रकारिता करने लगे तो पहले उसे मीडिया हाउस के अंतर्विरोध तले ध्वस्त किया गया। और फिर मीडिया को मुनाफे के खेल में खड़ा कर बांटने सिलसिला शुरू हुआ। असर इसी का है कि कुछ खास संपादक-रिपोर्टरो के साथ प्रधानमंत्री को डिनर पसंद है और कुछ खास पत्रकारों को दिल्ली सरकार में कई जगह नियुक्त कर सुविधाओं की पोटली केजरीवाल सरकार को खोलना पसंद है।
इसी तर्ज पर क्या यूपी क्या बिहार हर जगह ‘निगाहों में भी मीडिया को और निशाने पर भी मीडिया को’ लेने का खुला खेल हर जगह चलता रहा है। तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया समूहों ने अपनी गरिमा खत्म कर ली है या फिर मुनाफे की भागमभाग में सत्ता ही एकमात्र ठौर हर मीडिया संस्थान का हो चला है। इसलिये जो सत्ता कहे उसके अनुकूल या प्रतिकूल जनता के खिलाफ चले जाना है या फिर सत्ता मीडिया के इसी मुनाफे के खेल का लाभ उठाकर सबकुछ अपने अनुकूल चाहती है। और वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती कि कोई उस पर निगरानी रखे कि सत्ता का रास्ता सही है या नहीं। इतना ही नहीं सत्ता मुद्दों को लेकर जो परिभाषा गढ़ता है उस परिभाषा पर अंगुली उठाना भी सत्ता बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। हिन्दू राष्ट्र भारत कैसे हो सकता है, कहा गया तो सत्ता के माध्यमों ने तुरंत आपको राष्ट्रविरोधी करार दे दिया। अब आप वक्त निकालिये और लड़ते रहिये हिन्दू राष्ट्र को परिभाषित करने में।
इसी के समानांतर कोई दूसरा मीडिया समूह बताने आ जायेगा कि हिन्दू राष्ट्र तो भारतीय रगों में दौड़ता है। अब दो तथ्य ही मीडिया ने परिभाषित किये। जो सत्ता के अनुकूल, उसे सत्ता के तमाम प्रचार तंत्र ने पत्रकारिता करार दिया बाकियों को राष्ट्र विरोधी। इसी तर्ज पर किसी ने विकास का जिक्र किया तो किसी ने ईमानदारी का। अब विकास का मतलब दो जून की रोटी के बाद वाई फाई और बुलेट ट्रेन होगा या बुलेट ट्रेन और डिजिटल इंडिया ही। तो मीडिया इस पर भी बंट गई। जो सत्ता के साथ खड़ा, वह देश-हित में सोचता है। जो दो जून की रोटी का सवाल खड़ा करता है, वह बिका हुआ है। किसी पत्रकार ने सवाल खड़ा कर दिया कि सौ स्मार्ट सिटी तो छोडिये सिर्फ एक स्मार्ट सिटी बनाकर तो बताईये कि कैसी होगी स्मार्ट सिटी। तो झटके में उसे कांग्रेसी करार दिया गया। किसी ने गांव के बदतर होते हालात का जिक्र किया तो सत्ता ने भोंपू तंत्र बजाकर बताया कि कैसे मीडिया आधुनिक विकास को समझ नहीं पाता। और जब संघ परिवार ने गांव की फिक्र की तो झटके में स्मार्ट गांव का भी जिक्र सरकारी तौर पर हो गया।
इसी लकीर को ईमानदारी के राग के साथ दिल्ली में केजरीवाल सरकार बन गयी तो किसी पत्रकार ने सवाल उठाया कि जनलोकपाल से चले थे लेकिन आपका अपना लोकपाल कहां है तो उस मीडिया समूह को या निरे अकेले पत्रकार को ही अपने विरोधियो से मिला बताकर खारिज कर दिया गया। पांच साल केजरीवाल का नारा लगाने वाली प्रचार कंपनी पायोनियर पब्लिसिटी को ही सत्ता में आने के बाद प्रचार के करोड़ों के ठेके बिना टेंडर निकाले क्यों दे दिये जाते हैं। इसका जिक्र करना भी विरोधियो के हाथों में बिका हुआ करार दिया जाता है। जैन बिल्डर्स को लेकर जब दिल्ली सरकार से तार जोड़ने का कोई प्रयास करता है तो उसे बीजेपी का प्रवक्ता करार देने में भी देर नहीं लगायी जाती। और, इसी दौर में मुनाफे के लिये कोई मीडिया संस्थान सरकार से गलबिहयां करता है या फिर सत्ता नजदीक जाता है कि किसी एक मीडिया संस्थान से गलबहियां कर उससे पत्रकारो के बीच अपनी साख बनाये रखी जाती है तो बकायदा मंच पर बैठकर केजरीवाल यह कहने से नहीं हिचकते कि हम तो आपके साझीदार हैं।
यानी कैसे मीडिया को खारिज कर और पत्रकारों की साख पर हमला कर उसे सत्ता के आगे नतमस्तक किया जाये, यह खेल सत्ता के लिये ऐसा सुहावना हो गया है जिससे लगने यही लगा है कि सत्ता के लिये मीडिया की कैडर है। मीडिया ही मुद्दा है। मीडिया ही सियासी ताकत है और मीडिया ही दुश्मन है। यानी तकनीक के आसरे जन जन तक अगर मीडिया पहुंच सकती है और सत्ता पाने के बाद कोई राजनीतिक पार्टी एयर कंडिशन्ड कमरों से बाहर निकल नहीं सकती तो फिर कार्यकर्ता का काम तो मीडिया बखूबी कर सकती है। और मीडिया का मतलब भी अगर मुनाफा है या कहें कमाई है और सत्ता अलग अलग माध्यमों से यह कमाई कराने में सक्षम है तो फिर दिल्ली में डेंगू हो या प्याज। देश में गांव की बदहाली हो या खाली एकाउंट का झुनझुना लिये 18 करोड़ लोग। या फिर किसी भी प्रदेश में चंद हथेलियों में सिमटता समूचा लाभ हो, उसकी रिपोर्ट करने निकलेगा कौन सा पत्रकार या कौन सा मीडिया समूह चाहेगा कि सत्ता की जड़ों को परखा जाये।
पत्रकारों को ग्राउंड जीरो पर रिपोर्ट करने भेजा जाये तो क्या मौजूदा वक्त एक ऐसे नेक्सस में बंध गया है, जहां सत्ता में आकर सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र को ही खत्म कर जनता को यह एहसास कराना है कि लोकतंत्र तो राजनीतिक सत्ता में बसता है। क्योंकि हर पांच बरस बाद जनता वोट से चाहे तो सत्ता बदल सकती है। लेकिन वोटिंग ना तो नौकरशाही को लेकर होती है ना ही न्याय पालिका को लेकर ना ही देश के संवैधानिक संस्थानों को लेकर और ना ही मीडिया को लेकर। तो आखिरी लाइन उन पत्रकारों को धमकी देकर हर सत्ताधारी अपने अपने दायरे में यह कहने से नहीं चूकता की हमें तो जनता ने चुना है। आप सही हैं तो चुनाव लड़ लीजिये। और फिर मीडिया से कोई केजरीवाल की तर्ज पर निकले और कहे कि हम तो राजनीति के कीचड़ में कूदेंगे तभी राजनीति साफ होगी। और जनता को लगेगा कि वाकई यही मौजूदा दौर का अमिताभ बच्चन है। बस हवा उस दिशा में बह जायेगी। यानी लोकतंत्र ताक पर और तानाशाही का नायाब लोकतंत्र सतह पर।
लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी जाने-माने पत्रकार हैं और आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.
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Rohit
September 22, 2015 at 10:01 pm
बड़े ही क्रांतिकारी विचार हैं। पर आप लालू यादव के सामने मीडिया इंटर्न बन कर मुंह पर ताला जड़े क्यों बैठ गए थे?
RAJ KUMAR
September 23, 2015 at 1:16 am
MEDIA KE MITR SAB KO JI BHAR KAR JUTHI, SACHI, APHWA KE AADHAR PAR GALI DETE H, LOGO KI JINDGI BHAR KI IJJAT SE KHELTE H, KOI BAT NAHI ? LEKIN JAB SOCIAL MEDIA PAR V ANNY LOG MEDIA V PATRKARO KO GALI DETE H TO, LOKTANTRA KHATRE ME, MERE BHAI LOGO, JARA AAPNA AAPA MAT KHOWO, ADHIKANS MEDIA HAMESA SATA KE SATH RAHI, JIS NE VIRODH KIYA USKO GALI DI GAI,
सईद खान
September 26, 2015 at 2:26 am
Moti salary pane vali in patrakaron ki bus muhchodi sun lo. Aaj tak kisi ki koi madad nahi ki hogi aur janta ke sarokaron ke thekedar bane baithe hain