समरेंद्र सिंह-
ये बदलाव की आहटें हैं… मैं सुन रहा हूं, क्या नरेंद्र मोदी भी सुन रहे हैं?
70 के दशक में इंदिरा गांधी गूंगी गुड़िया से दुर्गा में परिवर्तित हो गई थीं। देश और दुनिया में उनका नाम हो रहा था। देश के स्वाभिमान को केंद्र में रख कर वो अमेरिका को भी ललकार रही थीं। उसी बीच दिसंबर 1973 में, गुजरात के छात्र महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल पर सड़कों पर उतर आए। अगले कुछ महीनों में छात्रों के इस विरोध प्रदर्शन ने नवनिर्माण आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया। फिर जो हुआ वो इतिहास है। डेढ़ साल बाद कांग्रेस की “दुर्गा” इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोप दी। दिसंबर 1973 से दमन चक्र चला। लेकिन विरोध की मशाल शांत नहीं हुई। 1977 में इंदिरा की विदाई हुई।
ये पुराना उदाहरण है। नया उदाहरण लीजिए। 2012-17 के बीच उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार थी। उनके कार्यकाल में सिपाही की भर्ती से लेकर एसडीएम की भर्ती तक खूब घोटाले हुए। बलिया, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, गाजियाबाद, नोएडा से लेकर दिल्ली तक छात्र एक अदद नौकरी के लिए दिन रात मेहनत कर रहे थे। वो परीक्षा देते और इंटरव्यू तक पहुंचते, लेकिन सभी योग्यताओं के बाद भी भर्ती नहीं हो रही थी। उसी बीच उन्हें खबर मिलती कि उनसे कमजोर छात्रों की भर्ती हो गई है क्योंकि पद के हिसाब से किसी ने 10, किसी ने 20, किसी ने 40 लाख रुपये की रिश्वत दी है।
युवाओं को लगने लगा कि वो चाहे कितनी भी मेहनत कर लें, कुछ होगा नहीं। नौकरी उन्हें ही मिलेगी जो खरीद सकेंगे। इस अहसास के साथ छात्रों में गुस्सा बढ़ता गया। लैपटॉप बांट का छात्रों के नायक बने अखिलेश यादव खलनायक बन गए। 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया।
दूसरे विश्वयुद्ध पर Enemy at gate नाम की एक फिल्म है। उस फिल्म के केंद्र में स्तालिनग्राद युद्ध है। स्तालिनग्राद युद्ध में जर्मन सेना लगातार रूसी सेना को पीट रही थी। रूसी सेना ने उस युद्ध का नायक बदल दिया। वह पहुंचता है और सभी अफसरों को बुला कर युद्ध जीतने की योजना पूछता है। कोने में खड़ा एक अफसर कहता है कि “Give them HOPE”. मतलब सैनिकों को और जनता को उम्मीद दो। उसने जवानों को उम्मीद से भर दिया और बाजी पलट गई।
आखिर उम्मीद कौन देगा? युद्ध का नायक देगा। वो हुक्मरान देगा जो सत्ता में है। जिसे लोगों ने चुना है। जिस पर लोगों ने विश्वास किया है। उम्मीद और विश्वास वो मंत्र हैं जिनके सहारे बड़े से बड़ा युद्ध जीता जा सकता है। उम्मीद का अर्थ होता है कि मेहनत करेंगे तो हालात बदलेंगे। कोई है जो संघर्ष का साक्षी और साथी है। वो भी हमारे साथ संघर्ष कर रहा है। वह हमारा भला चाहता है। जब स्थितियां बिगड़ेंगी तो संभाल लेगा। डूबने नहीं देगा।
इंदिरा गांधी और अखिलेश यादव ने यही गलती हुई थी। उन्होंने लोगों की उम्मीद तोड़ दी थी। जिन लोगों ने उन पर भरोसा किया था, उन्होंने उस भरोसे को तोड़ दिया था। लोगों का विश्वास खंडित कर दिया। जब यह लगने लगे कि अपना ही नायक विश्वासघात कर रहा है। सत्ता के मद में चूर होकर बेअंदाजी कर रहा है, तब निर्णायक युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। जनता ने वह निर्णायक युद्ध लड़ा और सत्ता पलट दी।
इस देश में अब यह शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महानायकत्व का तिलिस्म टूट रहा है। युवाओं का विश्वास डोल रहा है। उन्हें लग रहा है कि यह नेता सिर्फ भाषण देता है। सब्जबाग दिखाता है। लेकिन असल में छलावा है। एक धोखा है। नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर सोशल मीडिया पर राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस का ट्रेंड करना हल्की बात नहीं है। यह इस बात का सुबूत है कि युवा गुस्से में है। और यह सब यूं ही चलता रहा तो यह गुस्सा बढ़ता जाएगा। फिर धीमे-धीमे यह एक सैलाब बनेगा और वह सैलाब बीजेपी के युगपुरुष को तिनके की भांति बहा देगा।
दरअसल, कोई युवा निराश होता है, नाराज होता है और सुनहरे भविष्य के सपनों को त्याग कर सड़क पर संघर्ष करने उतरता है तो वह अकेले नहीं उतरता। उसके साथ उसका पूरा परिवार मैदान में उतरता है। यह संभव ही नहीं कि कोई नौजवान निराशा में डूबा हुआ हो और उसके मां-बाप शांत बैठे रहें। यह संभव नहीं है कि जिसकी वजह से युवा निराश हो, मां-बाप उसे समर्थन देते रहें। इसलिए हर एक युवा के पीछे एक परिवार खड़ा होता है। और ऐसा कौन सा परिवार है जिसके घर में कोई युवा नहीं है!
2016 से यह देश नरेंद्र मोदी की सनक झेलता रहा है। सत्ता के मद में चूर नरेंद्र मोदी के बेवकूफी भरे फैसलों की मार झेलता रहा। यह देश सब कुछ इसलिए झेलता रहा क्योंकि उसे लगता था कि उसके नेता की मंशा ठीक है। उसे यह भी लगता था कि उसका नेता सक्षम है।
मगर इस बार बात दूसरी है। अब लोगों को लगने लगा है कि मंशा तो उस बंदर की भी ठीक ही थी, जिसने मक्खी उड़ाने के चक्कर में तलवार से राजा की नाक काट दी थी। लोग यह महसूस कर रहे हैं कि बात सिर्फ मंशा की नहीं होती। बात क्षमता की भी होती है। नरेंद्र मोदी में वह क्षमता नहीं है कि देश को आगे ले जा सकें।
इसलिए लोग सवाल कर रहे हैं। लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। और इस बार सड़कों पर उतरने वाले मुसलमान नहीं हैं। हिंदू हैं। धीमे-धीमे इन सवालों की ध्वनि बढ़ती जाएगी। सड़कों पर उतरने वालों की संख्या बढ़ेगी। उनके कदमों की थाप तेज होगी। फिर युद्ध का उद्घोष होगा और नरेंद्र मोदी इतिहास बन जाएंगे। मुझे बदलाव की वो आहटें सुनाई दे रही हैं। देखना यह है कि क्या ये आहटें नरेंद्र मोदी को भी सुनाई दे रही हैं? या सत्ता का नशा कुछ ज्यादा ही है?
lav kumar singh
September 18, 2020 at 6:54 pm
आपको कुछ और ठोस तर्क रखने थे। आपके तर्क का आधार केवल ट्विटर ट्रेंड ही है, लेकिन हम पिछले काफी समय से देख रहे हैं कि ट्विटर पर तो राम रहीम और रामपाल के समर्थक भी अपने विषय को टॉप ट्रेंड में ला देते हैं। रोजगार या बेरोजगारी निश्चित ही बड़ा मुद्दा है, लेकिन अभी इस संबंध में जो कथित आंदोलन हो रहा है, उसमें सपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ही भागीदारी ज्यादा दिखाई दे रही है।