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सियासत

मोदी का रेल बजटः देश बेचने की दिशा में पहला कदम

अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब पूरा देश नरेन्द्र मोदी के ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ वाले थीम साँग को कोरस में गाते हुए नमोमय हो गया था। और उसी के प्रतिफलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बरास्ता भाजपा ऐतिहासिक रूप से देश की सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो गया। हालिया लोकसभा आमचुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया कि नमो के ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ थीम साँग ने देश की जनता को सम्मोहित कर दिया था। अमेरिकी पीआर एजेंसी द्वारा प्रायोजित देशभक्ति की लहर के बीच उनकी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ कैच लाइन ने तब ऐसा जोर मारा कि नमोमय हो गये मतदाता ने देश का स्वर्णिम भविष्य लाने का जिम्मा उन्हें सौंप दिया। मगर उनकी सरकार के पहले ही रेल बजट में उनकी मंशा स्पष्ट हो गई कि उन्होंने आधिकारिक तौर पर देश की जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से बनी रेलवे में निजीकरण की शुरूआत करते हुए देश बेचने के अभियान का श्री गणेश कर दिया है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जिस नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश भर में घूम-घूम कर अपनी 56 इंच चैड़ी छाती को फुलाकर कहा था कि उसकी प्राथमिकता देश है, उसके गरीब-गुरबा हैं, महिलाएं हैं, किसान हैं, मजदूर हैं, युवा हैं और न जाने क्या-क्या हैं, वह कोई और था, यह वाला नरेन्द्र मोदी तो कतई नहीं था।

<p>अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब पूरा देश नरेन्द्र मोदी के 'देश नहीं बिकने दूँगा' वाले थीम साँग को कोरस में गाते हुए नमोमय हो गया था। और उसी के प्रतिफलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बरास्ता भाजपा ऐतिहासिक रूप से देश की सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो गया। हालिया लोकसभा आमचुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया कि नमो के ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ थीम साँग ने देश की जनता को सम्मोहित कर दिया था। अमेरिकी पीआर एजेंसी द्वारा प्रायोजित देशभक्ति की लहर के बीच उनकी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ कैच लाइन ने तब ऐसा जोर मारा कि नमोमय हो गये मतदाता ने देश का स्वर्णिम भविष्य लाने का जिम्मा उन्हें सौंप दिया। मगर उनकी सरकार के पहले ही रेल बजट में उनकी मंशा स्पष्ट हो गई कि उन्होंने आधिकारिक तौर पर देश की जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से बनी रेलवे में निजीकरण की शुरूआत करते हुए देश बेचने के अभियान का श्री गणेश कर दिया है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जिस नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश भर में घूम-घूम कर अपनी 56 इंच चैड़ी छाती को फुलाकर कहा था कि उसकी प्राथमिकता देश है, उसके गरीब-गुरबा हैं, महिलाएं हैं, किसान हैं, मजदूर हैं, युवा हैं और न जाने क्या-क्या हैं, वह कोई और था, यह वाला नरेन्द्र मोदी तो कतई नहीं था।</p>

अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब पूरा देश नरेन्द्र मोदी के ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ वाले थीम साँग को कोरस में गाते हुए नमोमय हो गया था। और उसी के प्रतिफलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बरास्ता भाजपा ऐतिहासिक रूप से देश की सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो गया। हालिया लोकसभा आमचुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया कि नमो के ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ थीम साँग ने देश की जनता को सम्मोहित कर दिया था। अमेरिकी पीआर एजेंसी द्वारा प्रायोजित देशभक्ति की लहर के बीच उनकी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ कैच लाइन ने तब ऐसा जोर मारा कि नमोमय हो गये मतदाता ने देश का स्वर्णिम भविष्य लाने का जिम्मा उन्हें सौंप दिया। मगर उनकी सरकार के पहले ही रेल बजट में उनकी मंशा स्पष्ट हो गई कि उन्होंने आधिकारिक तौर पर देश की जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से बनी रेलवे में निजीकरण की शुरूआत करते हुए देश बेचने के अभियान का श्री गणेश कर दिया है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जिस नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश भर में घूम-घूम कर अपनी 56 इंच चैड़ी छाती को फुलाकर कहा था कि उसकी प्राथमिकता देश है, उसके गरीब-गुरबा हैं, महिलाएं हैं, किसान हैं, मजदूर हैं, युवा हैं और न जाने क्या-क्या हैं, वह कोई और था, यह वाला नरेन्द्र मोदी तो कतई नहीं था।

नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी इतना जल्दी केंचुल उतार कर खोल से बाहर आ जायेंगे, इसकी उम्मीद शायद किसी को भी नहीं रही होगी। मोदी सरकार देश के सीमांत व पिछड़े क्षेत्रों तक रेल का विस्तार करने की अपेक्षा 60 हजार करोड़ फूँक कर मुंबई-अहमदाबाद के बीच पीपीपी. मोड में बुलेट ट्रेन चलाने का इरादा जाहिर करती है। इस ट्रेन की जरूरत आखिर है किसको? अहमदाबाद और मुंबई के बीच ट्रेनों की कोई कमी नहीं है। इस रूट पर पहले से ही बहुत अधिक और अच्छी ट्रेनें उपलब्ध हैं, तो अब यहाँ बुलेट ट्रेन चलाने की क्या तुक है? रेलवे नेटवर्क के मामले में पहले से पिछड़े पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र, असम, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा के बारे में रेल बजट में कुछ नहीं है। पिछड़े इलाकों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों? बुलेट ट्रेन की इस शाह खर्ची की अपेक्षा यदि विश्व के सबसे बड़े सार्वजनिक रेलवे नेटवर्क में मोदी, उनके रेल मंत्री सदानंद गौड़ा और उनके मातहतों ने गरीब गुरबों और आम आदमी की सुविधा के लिए ट्रेनों में जनरल डिब्बे ही बढ़ा दिये होते तो लोगों को अधिक सुविधा होती। मगर यह रेल बजट गरीबों की फिक्र करने के बजाय उन्हें मुँह चिढ़ाता है।     
  
मोदी सरकार की यह अमीरों की यात्रा के लिए ‘हाई स्पीड नेटवर्क‘ विकसित करने के लिए विदेशी निवेश का फैसला रेलवे के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में उतावलेपन भरी छलांग है। रक्षा क्षेत्र के बाद रेलवे में विदेशी निवेश का फैसला करके मौजूदा सरकार ने रेलवे को भी मुनाफाखोर कॉरपोरेट घरानों की लूट के लिए खोल दिया है। दरअसल, यह एक नवउदारवादी बजट है जिसका लक्ष्य कॉरपोरेट घरानों और नवउदारवाद से लाभान्वित तबके के सपने पूरा करना है। जबकि रेलवे परिचालन का सबसे ज्यादा सरोकार गरीब लोगों से जुड़ा हुआ होना चाहिए, जिनके पास स्लीपर व सामान्य श्रेणी में यात्रा करने के अलावा यात्रा के अन्य विकल्प हैं ही नहीं। रेलवे को सुनिश्चित करना चाहिए कि देश की यह अधिसंख्य किंतु साधनहीन आबादी आराम, सम्मान और सुरक्षा के साथ रेलयात्रा कर सके। अहमदाबाद और मुंबई के बीच क्या ट्रेनों की कमी है? वहाँ पहले ही अधिक और अच्छी ट्रेनें उपलब्ध हैं, तो अब उसी इलाके में बुलेट ट्रेन चलाने का मतलब क्या?

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शायद मतलब है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था अपने वर्ग चरित्र के अनुसार हर चीज को माल में और लोगों को निष्क्रिय उपभोक्ता में तब्दील करने की कोशिश करती है। पूँजीवाद मुनाफाखोरी की जो अंधी हवस पैदा करता है उसका परिणाम अपरिहार्य रूप से आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संकट के रूप में सामने आता है। समाज को बहुआयामी भीषण संकट की गर्त में धकेलने के बावजूद पूँजीपतियों की मुनाफे की हवस शान्त नहीं होती, उल्टे वे इस संकटकालीन परिस्थिति का भी लाभ अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए करते हैं। इसको मूर्तरूप लेते हुए हम भारत में देख ही रहे हैं कि पूँजीवाद जैसे-जैसे यहाँ अपने पैर पसार रहा है, यहाँ की हर चीज- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, जंगल, जमीन, पहाड़, नदियाँ, रिश्ते, नाते, आँसू, गम, खुशियाँ, त्योहार, धर्म, नैतिकता आदि मण्डी में बिकने वाले माल में तब्दील हो गये हैं। संकट के दलदल में धँसती जा रही अर्थव्यवस्था वाले इस देश में सामाजिक तथा नैतिक पतन अपनी पराकाष्ठा पार करता जा रहा है। लोकसभा के पिछले चुनावी दौर में अमेरिकी पीआर एजेंसी द्वारा प्रायोजित देशभक्ति की लहर हिलोरें मार रही थी। जिसने देशभक्ति की भावना को मण्डी में बिकाऊ माल बनाने के बाद लोगों को ऐसा राजनीतिक विकल्प अपनाने को सम्मोहित कर दिया जो वास्तव में कोई विकल्प था ही नहीं। बल्कि वह पहले से ही देश के अर्थतंत्र पर अपनी गहरी पकड़ बनाये उसी लुटेरी व्यवस्था को और मजबूती से कायम करने के लिए एक नया, पैना और प्रतिबद्ध औजार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि इस बार का रेल बजट देश की ग्रोथ बढ़ाने वाला है। रेलवे का यह बजट भविष्यवादी, वृद्धि आधारित और आम आदमी के लिए है। इस बजट से यात्रियों के लिए सुविधाएं बढ़ेंगी तथा यात्रा और अधिक सुखद बनेगी। उनके अनुसार रेल बजट में बेहतर सेवा, गति और सुरक्षा को ध्यान में रखा गया है। केंद्रीय रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने लोकसभा में बजट पेश करते हुए कहा कि उनके इस पहले रेल बजट में यात्री सुविधाओं पर जोर दिया गया है। अब यात्रियों के लिए नई सुविधाओं के साथ ही पुरानी सुविधाओं को बेहतर बनाया जायेगा। रेलमंत्री की इस घोषणा के आलोक में कि ‘परिचालन को छोड़कर रेलवे में सर्वत्र निजी पूँजी का स्वागत है’, दरअसल ये सहूलियतें निजीकरण की सायास दलीलें और ‘शॉक एब्जॉर्बर’ हैं तथा निजीकरण के मार्फत ही प्राप्त होनी हैं।

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नई सरकार के रेल बजट से यह साफ हो गया है कि नवउदारवादी मुखौटा लगाये पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का यह मॉडल निन्यानवे फीसद जनता पर घात लगाकर बाजार का हमला है। मुक्त बाजार की साइलेंट किलर मार्केटिंग है यह, और पूँजी का नरमेधी महायज्ञ। धर्म, राजनीति और पूँजी के मारक हथियारों से जन-गण-मन और जनतंत्र के विरुद्ध एकतरफा लड़ा जाने वाला युद्ध है। वह तो भला हो सोशल मीडिया या कबीर की तरह अपना घर-फूँक तमाशा देखने-दिखाने वाले कुछेक कलमजीवियों का, जो यदा-कदा नक्कारखाने में तूती की तरह कुछ ऐसे खट्टे-मीठे विचार हवाओं में तैरा ही जाते हैं, वरना देश के मीडिया पर कब्जा किये बैठे कॉरपोरेट घरानों के अखबार तथा चैनलों ने तो जैसे धृतराष्ट्र बन कर कसम ही खा ली है- हम नहीं सुधरेंगे। अन्यथा वे क्यों कर लिखते-दिखाते कि- ‘रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने मोदी सरकार का पहला रेल बजट बुलेट ट्रेन और सेमी बुलेट ट्रेन की सौगात से किया। साथ ही भारतीय रेलवे की स्थिति को सुधारने के लिए निजी निवेश को आमंत्रित करने की बात की।’ सभी पीपीपी. मॉडल की दुन्दुभी बजाने में मशगूल रहे। जैसे पीपीपी. महाअमृत है और इसे चखने मात्र से भक्तजनों की सारी भव-बाधाएं दूर हो जायेंगी और वे परमपद को प्राप्त कर लेंगे। कॉरपोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया के धुरंधर ढिंढोरची अपने मालिकों के निर्देश पर ही तो अमल करेंगे, आखिर जिसका नमक खाना उसके गीत गाना यह तो उन्हें मालूम ही है। देश व समाज जाये भाड़-चूल्हे में। ये कोई भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खाँ या झांसी की रानी लक्ष्मीबाई थोड़े ना हैं जो अपनी कुर्बानी दे दें। ये पंडों की उसी जमात के प्रतिनिधि हैं जो 17 बार सोमनाथ मंदिर को लूटने आये मुहम्मद गौरी का मुकाबला करने के बजाय सब कुछ भगवान भोलेनाथ पर छोड़ कर भाग खड़े होते रहे और फिर-फिर कर श्रद्धालुओं की धर्मभीरुता से उपजी अंधभक्ति की बदौलत मजे लूटते रहे।   

यह नवउदारवादी मुखौटे वाली पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का ही कमाल है कि देश के नवरत्न सरकारी उपक्रम ओएनजीसी के सेल ऑफ पर 35 हजार करोड़ का सौदा पक्का है, कोल इंडिया को बेचने की पूरी तैयारी है। दूसरी सार्वजनिक कंपनियों, उपक्रमों और संस्थानों की भी बिक्री तय समझिए। तेल गैस, कोयला, इस्पात, खनन, ऊर्जा, औषधि, बैंकिंग, रेलवे, पोर्ट आदि के कॉरपोरेटीकरण के बाद यह जंगल की आग रक्षा और आंतरिक सुरक्षा क्षेत्र के बाद खेतों, खलिहानों, घाटियों, नदियों और समंदर को भी जलाकर भस्मीभूत करने वाली है। तब भी प्रायोजित राष्ट्रभक्ति के नशेड़ी आँखों पर पट्टी बाँधे, कानों में रुई ठूंसे बुलेट ट्रेन के अनंत स्वप्नलोक में विचर रहे होंगे। इसी बीच नई सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों की पूँजी का चालीस फीसद हिस्सा म्युचुअल फंड में डालना तय कर लिया है। सेबी के नियम ऐसे बनवाये जा रहे हैं कि विदेशी पूँजी विनियमन और विनियंत्रण के मार्फत पूरा देश और देश के सारे संसाधन विदेशी लुटेरों के हवाले कर दिये जायें।

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यह बजट इस मायने में अभूतपूर्व है कि बजट सीधे प्रधानमंत्री की निगरानी में बनाया गया। उसमें योजना आयोग की कोई भूमिका नहीं रही। स्वयं वित्त मंत्री इससे कितने सम्बद्ध रहे और कॉरपोरेट लॉबीइस्टों की पेशबंदी कितनी रही इसका सही-सही अंदाजा लगाना मुश्किल है। नई सरकार का कोई मुख्य आर्थिक सलाहकार भी नहीं है। पहली बार व्यय सचिव और राजस्व सचिव ने रेल बजट तैयार करने में खास भूमिका निभाई। इस रेल बजट में निजीकरण के अलावा आश्चर्यजनक रूप से यात्री किराये को तेल की कीमतों से जोड़ने की नई व्यवस्था लागू किये जाने का प्रस्ताव किया गया है। जबकि तेल-गैस की कीमतें पहले से ही विनियंत्रित हैं और बाजार दरों से संबद्ध होने के कारण बिना सरकारी हस्तक्षेप के बदलती रहती हैं। इस तरह बिना रेलवे भाड़े को विनियंत्रित किये फ्यूल सरचार्ज के जरिये रेलभाड़े को भी डीरेगुलेट डीकंट्रोल कर दिया गया है। जैसे मुंबई मेट्रो के किराये रिलायंस ने तय किये हैं, उसी तरह रेलभाड़ा और तमाम सेवाओं की कीमतें निजी पूँजी के पीपीपी. मॉडल के जरिये देशी-विदेशी निजी कंपनियां तय करेंगी। रिलायंस द्वारा कावेरी बेसिन से गैस निकाल कर पिछली सरकारों को बेचने में दामों को लेकर जिस तरह की पैंतरेबाजी करके मुकेश अंबानी सरकारी खजाना खाली करते रहे हैं, वह जगजाहिर हो चुका है। यदि बुलेट ट्रेन को भी पीपीपी. मोड में देकर चलाना है तो फिर यह देश के लिए एक नये विवाद को जन्म देने की तैयारी जैसा ही होगा। जिस बुलेट ट्रेन पर साठ हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं और उसमें विमान भाड़े से दोगुनी रकम का भाड़ा चुका कर यात्रा करने वाला भले ही देश का एक फीसद मलाईदार तबका ही होगा, लेकिन उसकी लागत, परिचालन आदि खर्चों में देश के गरीब-गुरबा व आम आदमी की जेब का पैसा ही तो लगेगा।

बहरहाल नई सरकार के रेल बजट से यह साफ हो गया है कि रेलवे के अलावा इस पूरे देश का किस हद तक निजीकरण किया जायेगा और कहाँ तक आर्थिक सुधार लागू किये जायेंगे। और लोग हैं कि मूकदर्शक बनकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विनियमन और विनियंत्रण का विरोध नहीं कर रहे। इस तरह के विनिवेश के जरिये देश के संसाधनों की लूट के खिलाफ कोई आवाज बुलंद नहीं हो रही, कोई बंद मुट्ठी हवा में लहरा नहीं रही, विरोध का कोई परचम उठाया नहीं जा रहा। जागो भारत महान, अब तो जागो।

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श्यामसिंह रावत

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0 Comments

  1. kp

    July 13, 2014 at 5:32 pm

    रावत जी, खुले सिरे के विमर्श का उतना अर्थ नहीं होता जितना कि होना चाहिए। लोगों को जागरूक कर रहे हैं अच्छी बात है पर क्या इस व्यवस्था के विकल्प को बता कर लोगों को गोलबंद करने का काम नहीं होना चाहिए। वह कैसे हो इस पर अपनी ऊर्जा लगाएं तो ज्यादा अच्छा होगा।

  2. Arif M

    October 27, 2014 at 8:15 am

    Rawat sahab madhya pradesh , madhya pradesh andhra aur karnatak me bhi rail network badhane ki bahot awshyakta hai

  3. sanjeev singh thakur

    December 4, 2014 at 12:28 pm

    100% right article

  4. sanjeev singh thakur

    December 4, 2014 at 12:28 pm

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