पुरुषोत्तम पाठक-
क्योंकि अगले क्षण जब मृत्यु की ट्रेन आपसे टकराएगी तो आपके साथ कोई नहीं मरेगा
कोई अपने परिवार से भेंटकर लौटता था, कोई परिवार से मिलने की कामना में उल्लासित, किसी का अंतिम चुम्बन अधूरा रह गया होगा, किसी की कोई बात हवाओं में अटक गयी होगी,किसी का प्रेम, किसी की दुश्मनी, किसी का नफरत सब एक झटके में पूर्ण विराम पर ठहर गया होगा. इसमें एक गहरा दुःख तो है, मगर आश्चर्य क्या है. मृत्यु पर कोई आश्चर्य नहीं, हम जी रहे हैं, यह आश्चर्य के लिए पर्याप्त है. वरना हर क्षण मृत्यु के हज़ार आमंत्रण हैं.
हम घर में बैठे हैं, किसी भी क्षण धरती के अन्दर हल्का सा कम्पन और सब समाप्त, हम रास्ते पर हैं और चारों ओर से दौड़ती लोहे की भीमकाय गाड़ियों का ज़रा सा असंतुलन और विराम, किसी दिन कोई असंतुलन हुआ, कोई बाँध टूटा और पूरा शहर जलमग्न, किसी दिन समंदर में कोई तूफ़ान आया और जीवन समाप्त, किसी दिन कोई विश्वयुद्ध हुआ या यूं भी किसी ग़लती से कोई न्यूक्लियर बम फटा और जीवन समाप्त, आकाश में तैरते असंख्य पिंडों में दशमलव भर असंतुलन और कोई पिंड पृथ्वी से टकराया और सम्पूर्ण जीवन की समाप्ति, इतना छोड़ें साँसें आ रही हैं, जा रही हैं, उसपर हमारा कोई वश नहीं, रक्त नसों में संचारित हो रहा है, हृदय धड़क रहा है, रोटी मांस मज्जा, रक्त में परिवर्तित हो जा रही है, इनमें से कुछ भी कुछ मिनटों के लिए असंतुलित हुआ और सारी लीला समाप्त, सोते में कोई नस दब गयी और पुनः जग न सके, चलते में लड़खड़ा कर गिरे और फिर कभी उठ ही न सके.
जीवन चल रहा है यह पर्याप्त है, यह संयोग है. जीवन को लेकर कोई महान उम्मीद लगाना ही व्यर्थ है. जिसपर हमारा रत्ती भर वश नहीं उसे लेकर नैतिकता और सामाजिकता की इतनी यंत्रणा, महत्त्वाकांक्षाओं का इतना बोझ, नफरतों का इतना ज़हर सब व्यर्थ है. ये सारी नैतिकता, सामाजिकता, प्रेम, नफरत सब केवल जीवन के संयोग पर टिकी है, वह एक छोटी सी दुर्घटना से अकारथ साबित होगी.
जीवन जब तक है, उसे जी लें, प्रकृति को धन्यवाद कहें, कि उसने एक घड़ी और जीने का अवसर दिया यह पर्याप्त है. अनावश्यक आकांक्षाओं और नैतिकताओं ने जीवन को नरक बना दिया है. हम आकांक्षाओं और नफरतों के लिए समय निकालते रहते हैं मगर जीवन को कल पर मुल्तवी करते हैं. आज का जीवन नैतिकता और आकांक्षाओं की बलि देकर कोल्हू के बैल की तरह मरे जाते हैं, मन में हज़ार कुंठाएं दबाएँ बैठे हैं, मन चाहता है कुछ और करें, थोड़ा नाच लें, थोड़ा प्रेम कर लें, थोड़ा चीख लें, थोड़ा गा लें, लेकिन सामजिकता के आवरण में सब दबा दिया है, इस भरोसे कि संभवतः कल अच्छा होगा. कल कभी अच्छा नहीं होता. किसी का नहीं हुआ, वह दीखता अवश्य है, होता कभी नहीं.
लगता है कि कोई प्रधानमंत्री बन गया उससे ज्यादा खुशी क्या हो सकती है, कोई आईएएस बन गया, कोई अरबपति बन गया, परन्तु भरोसा रखिये खुश कोई नहीं है. और अगर किसी को खुशी मिलती भी है तो क्या वह वहाँ तक की यातनाभरी यात्रा की कीमत है? कभी नहीं, वह उम्र, वह दौर, वह समय जिसे इस तुच्छ को पाने के लिए बर्बाद कर दिया गया है, वह कभी नहीं लौटता, अब जो जीवन है भी तो उसे भोगने की आकांक्षा, शक्ति सब समाप्त हो चुकी है है. और क्या जाने इस यातनाभरी यात्रा में एक दुह्संयोग घटित होता, अक्सर होता ही है, और सब समाप्त. न जीवन जिए और न आकांक्षाएँ.
बचपन में किताबों और माँ-पिता की आकांक्षाओं का भारी बस्ता लिए ढोते रहे कि दसवीं के बाद सब ठीक होगा, दसवीं के बाद सामजिक दबाव ने आइआइटी और नीट की महत्त्वाकांक्षा थोप दी, उसके बाद कॉलेज में अच्छे ग्रेड से पास होने का दबाव, फिर नौकरी और रोज़गार की भागदौड़, फिर ब्याह बच्चे और क्या ..और कुछ नहीं. इस बीच में कहीं भी दुह्संयोग घटित हो सकता है, कभी भी जीवन ठहर सकता है और जीवन के सारे दुःख लिए बेचैनी से मर जायेंगे.
दुनिया में केवल मनुष्य है जिसे मरने में इतनी मुश्किल होती है, इतनी तड़प होती है. उसके प्राण निकलना नहीं चाहते, अन्य जीव तो पेंड़ से गिरे पत्ते की तरह मृत्यु को पा लेते हैं, यदि उसमें मनुष्य ने अपना हस्तक्षेप न किया हो. यदि प्रेतात्मा होती भी होगी तो भी वह केवल मनुष्यों की होगी, हमने कभी एक कबूतर की प्रेतात्मा के बारे में सुना नहीं. प्रेत दरअसल असीम तड़प का पर्याय है. मुझे अनुभव नहीं है परन्तु लगता है कि मनुष्यों की प्रेतात्मा होनी चाहिए. जिसने जीवन कभी जिया नहीं वह शांत होकर मर कैसे सकता है, उसमें तड़प तो होगी ही. मनुष्य मृत्यु के बाद भी अशांत रहेगा, रहना ही होगा.
मुझे अपने जीवन की एक घटना का स्मरण होता है. इंजीनियरिंग के दिनों में मेरा एक मित्र हुआ करता था. पढ़ने में अत्यंत मेधावी, क्लास में एकदम पंक्चुअल, हम परीक्षा के एक दिन पहले उसी के लैब रिकॉर्ड से उतारा करते थे और उसी के नोट्स फोटो कॉपी कराकर परीक्षा देते थे. मित्रता का एकमात्र कारण यही था, इसके अलावा हमारे एक गुण भी नहीं मिलते. आवश्यकता से अधिक शरीफ, न कभी शराब पिया, न सिगरेट पी, न लड़कियों के पीछे में पड़ा, न प्रेम हुआ, न दैहिक सम्बन्ध का सुख लिया, न क्लास बंक की, न रात में आवारागर्दी की, न ताश खेला. लेकिन अन्दर असीम दमित इच्छाएं थीं. मुझे ऐसे लोगों को छेड़ने में बड़ी रुचि होती, ज़रा सा कुरेदते ही उसके अन्दर की सारी आदिम इच्छाएँ प्रकट हो जातीं. फिर वह ऐसी ऐसी बातें करता, और इस तरह की फंतासी रचता था कि लगता इसमें सामान्य से कहीं अधिक आकांक्षाएँ हैं.
लेकिन उसने अपनी सारी आकांक्षाओं को कल पर मुल्तवी कर रखा था. परिवार का इतना नैतिक दबाव था कि वह हज़ार किलोमीटर दूर भी काम करता. कुछ अश्लील बोल देने पर भी वह बाद में पछताता. आगे कॉलेज समाप्त हुआ, उसने गेट की तैयारी की, मेधावी था सफल हुआ, आइआइटी से एम टेक किया, मुझे उम्मीद है कि इस बीच भी वह वैसा ही रहा होगा, और फाइनल रिजल्ट से पहले ही एक दिन खबर आई कि वह इस दुनिया में नहीं रहा. मुझे असीम दुःख हुआ, इसलिए नहीं कि वह मेरा मित्र था, इसलिए कि उसने जीवन को कभी नहीं जिया, इसके बावजूद कि उसमें जीने की असीम आदिम इच्छा थी. और मुझे यह तथ्य भली भांति पता था.
ठीक है कि जीवन में एक लक्ष्य, या कोई काम सोचकर चल रहे हैं, परन्तु उसके लिए जीवन को दांव पर क्या लगाना. उसे जीवन के एक हिस्से की तरह निभा रहे हैं, जिसके मिलने पर भी बहुत खुशी नहीं और न मिलने पर कोई दुःख नहीं, वह जीवन नहीं है, वह इस खेल का एक छोटा सा हिस्सा है. जीवन तो वह है जिसे हर क्षण जीना है, जिसपर सामाजिकता, नैतिकता और आदर्श,आकांक्षाओं के बोझ न हों .
जीवन को इस तरह से जिएँ कि यदि अगले क्षण मेरी मौत हो जाए तो मुझे कोई पछतावा न हो, किसी से कुछ कहना न शेष रह गया हो, किसी से प्रेम हुआ और प्रकट करना न छूट गया हो, किसी से कोई बात कहनी थी वह न छूट गयी हो, किसी को बुरा कहा, किसी के साथ बुरा कर दिया तो तत्क्षण क्षमा मांग लिया, ताकि कल पर कोई बोझ न रहे, किसी से नफरत है तो भी प्रकट कर खेल समाप्त कर दिया, दो लोगों में दैहिक आकर्षण हुआ तो भी कल पर मुल्तवी न किया, मन में जो भी भाव उठे उसे मुकम्मल किया, जीवन को पूरी तरह से जिया, जितना जिया जा सकता था.
मनुष्य ने सामजिक नैतिकताओं के चक्कर में खुद को असभ्य कर लिया है, अपने जीवन को जटिल कर लिया है, खुद को इतना दुःख में झोंक दिया है कि मृत्यु का एक झटका उसे असंख्य दुःख से भर देता है, जबकि जीवन तो एक संयोग है.
जीवन जो हर सामाजिकता, पारिवारिकता से ऊपर उठकर जिएँ, केवल इसलिए जीवन को न कुंठित करें कि समाज ने ऐसा कहा है, क्योंकि जब अगले क्षण मृत्यु की ट्रेन आपके साथ टकराएगी तो समाज आपके साथ नहीं मरेगा, जीवन को इसलिए जटिल न करें कि पारिवार का आदर्श ऐसा है, क्योंकि अगले क्षण जब जीवन की बाँध टूट जाएगी तो परिवार आपके साथ अर्थी पर नहीं लेटेगा, जीवन को इसलिए नर्क मत करें क्योंकि धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा है, क्योंकि अगले क्षण जब जीवन में प्रलय आएगा तो धर्मग्रन्थ मछली के पेट में छुपकर स्वयं को बचाएगा, आपको नहीं.