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साहित्य

मेरे प्रति तबके तीन सीनियर हरिवंशजी, संजीव क्षितिज और हरिनारायणजी का नजरिया काफी बदल गया था

ओमप्रकाश अश्क


जीवन में जटिलताएं न आयें तो आनंद की अनुभूति अलभ्य है। मुंह जले को ही तो मट्ठे की ठंडाई का एहसास हो सकता है। जो ठंड में ही रहने का आदी हो, उसके लिए ठंड का का क्या मायने? और अगर ठंड के बाद जलन की पीड़ा झेलनी पड़े तो उसकी हालत का आप अनुमान लगा सकते हैं। हरिवंशजी ने प्रथमदृषटया भले ही मुझे घमंडी समझ लिया था, लेकिन बाद के दिनों में उनकी यह धारणा बदली और वह मेरी शालीनता के कायल हो गये। मैं दफ्तर में शायद ही किसी से घुल-मिल कर बातें करता था। तब अपने काम में मगन रहना ही मुझे ज्यादा श्रेयस्कर लगा। बीच-बीच में हरिवंशजी मुझे अंगरेजी-हिन्दी अखबारों की कतरनें देते और उनसे एक नयी स्टोरी डेवलप करने को कहते। मैं वैसा करने लगा। हरिनारायण जी की कृपा से वैसे पीस बाईलाइन छप जाते। ऐसी बाईलाइन स्टोरी की संख्या जितनी होती, उतने 40 रुपये की कमाई हो जाती। इसका भुगतान वेतन वितरण के पखवाड़े-बीस दिन बाद होता।

ओमप्रकाश अश्क


जीवन में जटिलताएं न आयें तो आनंद की अनुभूति अलभ्य है। मुंह जले को ही तो मट्ठे की ठंडाई का एहसास हो सकता है। जो ठंड में ही रहने का आदी हो, उसके लिए ठंड का का क्या मायने? और अगर ठंड के बाद जलन की पीड़ा झेलनी पड़े तो उसकी हालत का आप अनुमान लगा सकते हैं। हरिवंशजी ने प्रथमदृषटया भले ही मुझे घमंडी समझ लिया था, लेकिन बाद के दिनों में उनकी यह धारणा बदली और वह मेरी शालीनता के कायल हो गये। मैं दफ्तर में शायद ही किसी से घुल-मिल कर बातें करता था। तब अपने काम में मगन रहना ही मुझे ज्यादा श्रेयस्कर लगा। बीच-बीच में हरिवंशजी मुझे अंगरेजी-हिन्दी अखबारों की कतरनें देते और उनसे एक नयी स्टोरी डेवलप करने को कहते। मैं वैसा करने लगा। हरिनारायण जी की कृपा से वैसे पीस बाईलाइन छप जाते। ऐसी बाईलाइन स्टोरी की संख्या जितनी होती, उतने 40 रुपये की कमाई हो जाती। इसका भुगतान वेतन वितरण के पखवाड़े-बीस दिन बाद होता।

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मेरे प्रति तबके तीन सीनियर हरिवंशजी, संजीव क्षितिज और हरिनारायणजी का नजरिया काफी बदल गया था। भरोसा इतना कि मुझे संपादकीय लिखनेवालों की टीम में शामिल कर लिया गया। उस टीम में थे- तबके हमारे चीफ सब एडिटर अविनाश ठाकुर, यशोनाथ झा और अनुज कुमार सिन्हा। अनुज जी सिटी डेस्क के इनचार्ज थे। काफी गरम और तुनकमिजाज। मेरी नियुक्ति भले सब एडिटर के रूप में हुई थी, लेकिन वेतन ट्रेनी सब एडिटर वाला ही मिल रहा था। ट्रेनिंग के लिए जिन लोगों का चयन हुआ था, उनमें संदीप कमल (फिलहाल खबर मन्त्र में हैं), विजय पाठक (संप्रति प्रभात खबर, रांची संस्करण के संपादक), जयनंदन शर्मा (अभी प्रभात खबर, जमशेदपुर), दो लड़कियां- एक का नाम शादां नियाजी और एक का नाम याद नहीं आ रहा, ललित मुर्मू शामिल थे। मैं उन्हीं लोगों के स्केल में था।

रोज सुबह संपादकीय लिखनेवाला व्यक्ति विषय के साथ संजीव क्षितिज से मिलता। विश्लेषण के प्वाइंट्स बताता। कुछ संजीव जी खुद सुझाते और संपादकीय का पीस तैयार होने पर खुद चेक कर ओके करते। शाम को चीफ सब खबरों की प्लानिंग लेकर जाते और संजीव जी के साथ ही पहले पेज की लीड, वाटम और दूसरी खबरें तय होतीं। संजीव जी अक्सर लीड की हेडिंग पूछते। फिर तर्क-वितर्क के बाद शीर्षक तय होता। चीफ सब की गैरहाजिरी में पहले पेज की खबरों के चयन के लिए एक-दो बार मेरा भी उनके पास जाना हुआ। वह पुराने अंक के प्वांइंट साइज के आधार पर हेडिंग सुझाते। चूंकि अक्षर गिन कर हेडिंग लगाने की कला में मैं पारंगत था, इसलिए एकाध बार मैंने टोक दिया कि हेडिंग लटक जायेगी या तीन लाइन की हो जायेगी। इसका वह बुरा नहीं मानते।

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कहते- जाइए, सोच कर बताता हूं। फिर एक पर्ची लेकर पिउन आता। उसमें लिखा होता- ऐसा करना ठीक रहेगा क्या? जाहिर है कि अब उनकी बात काटने की गुंजाइश भी नहीं होती या सच कहें तो साहस नहीं जुटता। अलबत्ता उनसे एक चीज सीखने को जरूर मिली कि कभी अपना निर्णय किसी साथी पर मत थोपो। सीनियर भी अपनी बात सलाह के तौर पर रखे।

उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा है। हरिनारायण जी छुट्टी पर थे। ईरान-इराक युद्ध की खबर देर रात आयी तो सबकी सहमति से शाम में संजीव जी द्वारा तय लीड हम लोगों ने बदल ली। अति उत्साह में एडिट लिखने वाली टीम के सदस्य अनुज ने अविनाश ठाकुर पर दबाव डाला कि एडिट भी बदल देना चाहिए। तब दो संस्करण छपते थे। डाक में पहला एडिट छप चुका था। अविनाश जी अनिर्णय की स्थिति में थे। उन्होंने मुझे देखा तो मैने कहा कि अखबार में एक ही एडिट होना चाहिए। जो डाक में छप गया है, उसे ही जाने दें। अनुज नाक-भौं सिकोड़ने लगे। अविनाश जी ने उनकी बात मान ली। आनन-फानन में उन्होंने एडिट लिखा और सिटी संस्करण में परिवर्तित एडिट छप गया।

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दूसरे दिन संजीव जी आये तो लीड बदल लेने के लिए बधाई दी। तब तक उनका ध्यान बदले एडिट पर नहीं गया था। चूंकि कैंटीन में ही चाय-नाश्ता होता था, इसलिए सुबह में 11 बजे तक मैं भी पहुंच चुका था। बधाई मुझे ही पहले मिली। इसी बीच एडिट पेज देखने वाली शादां नियाजी ने सिटी में बदला एडिट देख लिया। वह संजीव जी के पास पहुंची। उन्हें बताया। इस पर वह भड़क गये। मुझे बुला कर पूछा तो मैंने बड़ी ही बेचारगी के साथ सफाई दे डाली। यह कहते हुए कि आप लोगों की नजर में मैं भले ही औरों से ऊपर या अलग हूं, पर मेरा पद इतना छोटा है कि किसी को रोक पाना मेरे वश की बात नहीं। मैंने सलाह दी थी अविनाश जी को, लेकिन अनुज जी की जिद को वह रोक नहीं पाये। मैं तो बच गया, पर अविनाशजी  को क्या-क्या सुनना पड़ा होगा, यह उन्हें मिले शोकाज से मालूम हो गया। अनुज को सजा के तौर पर एडिट लिखने वाली टीम से हटा दिया गया।

मैं अपनी बदहाली को लेकर हमेशा उदास रहता था। चुपचाप खबरें एडिट करता और खामोशी से पेज बनवाता। संजीव जी के कमरे में जब कभी जाता, वह मेरे और परिवार के बारे में जानकारी हासिल करते। मेरी तनख्वाह वाली गड़बड़ी को लेकर दुखी भी होते। मेरी मनोदशा को शायद सबसे ज्यादा उन्होंने पढ़ा था। मेरे बारे में उनकी चिंता का एक ही उदाहरण काफी है। कलकत्ता से जनसत्ता का संस्करण शुरू हो रहा था। कई अखबारों में विज्ञापन निकला था। मित्रों ने दफ्तर में आने वाले अखबारों से विज्ञापन कुतर लिये थे। उन दिनों जनसत्ता के मुंबई संस्करण में काम करने वाले पंकज जी (उनकी उपाधि मुझे नहीं मालूम, पर इतना जानता हूं कि वह भी प्रभात खबर के शुरुआती दिनों में साथ थे) से देर रात बात हो रही थी। मैंने वैसे ही पूछ लिया कि पंकज जी, क्या जनसत्ता में हम लोगों की नौकरी नहीं लग सकती। उन दिनों जनसत्ता पत्रकारिता की बाइबिल के समान था। उन्होंने कहा, क्यों नहीं? विज्ञापन निकला है, अप्लाई कीजिए। अखबार टटोले तो पता चला कि जिन अखबारों के बीच से कुछ काटा गया है, वह जनसत्ता का ही विज्ञापन था।

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बड़ी पसोपेश में पड़ा। किसी से मैं खुला तो था नहीं, इसलिए इस बारे में पूछूं किससे। दूसरे दिन एडिट के सिलसिले में संजीव जी के कमरे में गया। विषय पर बात खत्म हुई तो आम दिनों की तरह संजीव जी ने मेरे बारे में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी पीड़ा उनसे साझी की तो उन्होंने कहा कि कहीं और क्यों नहीं कोशिश करते हैं। मैंने कहा कि जनसत्ता में वेकेंसी निकली है, पर उसकी कटिंग नहीं मिल रही। दफ्तर के अखबारों से लोगों ने काट लिया है। इस पर उन्होंने तपाक से कहा कि मेरे घर आता है, मैं ला दूंगा। दूसरे दिन उन्होंने कटिंग ला दी। मैंने आवेदन कर दिया। टेस्ट होना था, पर मुझे समय की सही जानकारी नहीं थी। मैं गांव चला गया था। इसी बीच टेस्ट का टेलीग्राम धुर्वा वाले मेरे चाचा के घर के पते- डीटी 2472- पर पहुंच गया।

संजीव जी को टेस्ट की तिथि मालूम हुई तो वह काफी परेशान हुए। तब मोबाइल का जमाना था नहीं, इसलिए वह मुझे सूचित भी नहीं कर सकते थे। गांव में टेलीफोन तब सोचा भी नहीं जा सकता था। उन्होंने जनसत्ता में तब काम कर रहे और प्रभाष जोशी के करीबी आलोक तोमर से बात की। आलोक जी ने उनको बताया कि पहले टेस्ट में अच्छे लोग नहीं मिले हैं, इसलिए फिर टेस्ट हो सकता है। उनको कहिए कि फिर से आवेदन भेजें और बतायें कि पारिवारिक कारणों से पहले टेस्ट में शामिल नहीं हो पाये थे। मैंने वैसा ही किया। तब प्रभाष जी के पीए रामबाबू होते थे। हफ्ते भर में रामबाबू का टेलीग्राम मिला, जिसमें कलकत्ता में टेस्ट के लिए बुलाया गया था। टेस्ट के लिए छुट्टी कैसे लूं, यह बड़ी समस्या थी। इसलिए कि मैं झूठ बोल कर जाना नहीं चाहता था।

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काफी सोच-विचार के बाद मैंने तय किया कि हरिवंश जी को बताऊं। मैं सीधे उनके पास गया और आवेदन करने से लेकर टेस्ट के लिए काल लेटर आने तक की बात बता दी। उस हरिवंश जी को टेस्ट की बात मैंने बतायी, जिनसे एक बार मैं कह चुका था कि टेस्ट देकर नौकरी की मेरी अब उम्र नहीं रही। बहरहाल, उन्होंने खुशी से कहा- जाओ, भगवान करे तुम कामयाब हो जाओ। यह भी पूछा कि कैसे जाओगे। मैंने कहा कि बस से। तब उन्होंने कहा कि बस से थकान होगी, तुम ट्रेन से जाओ। कहो तो मैं टिकट कनफर्म कराने के लिए किसी से कह दूं। मैंने कहा कि नहीं, मैं कर लूंगा। वैसे मैं कलकत्ता बस से ही गया। बस ने सुबह 8 बजे तक कलकत्ता ग्रेट ईस्टर्न होटल के सामने उतार दिया। उसी होटल में टेस्ट होना था।

जिस वक्त मेरी बस कलकत्ता पहुंची थी, उस समय आसापस एक-दो फुटपाथी चाय-नाश्ते की दुकानों के अलवा सब बंद था। होटल के बाहर इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी के अलावा कोई काम न था। इसी दौरान मैंने एक आदमी को अपनी ही तरह उतने ही दायरे में टहलते देखा। उस आदमी की उम्र मुझसे थोड़ी ज्यादा थी, पर दाढ़ी मेरी ही तरह थी। मन ही मन मैंने उसमें और अपने में काफी समानता देखी। बाद में जब हम लोगों का इंटरव्यू के बाद सेलेक्शन हुआ तो पता चला कि टेस्ट के दिन मिला आदमी कोई और नहीं, प्रभातरंजन दीन थे। वह पटना से आये थे। तब आज अखबार में काम करते थे। जब साथ काम करने लगे तो अपनी उस अपरिचय की स्थिति में भी आंतरिक परिचय की चर्चा अक्सर हम करते। उनसे नजदीकी दो ही मुलाकातों में इतनी बढ़ गयी कि सेलेक्शन के बाद उसी शाम वह पटना लौट रहे थे तो मैंने अपने सेलेक्शन की सूचना का एक पत्र देवेंद्र मिश्र जी के नाम उनके ही हाथों पठाया था।

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टेस्ट देकर उसी शाम मैं रांची के लिए निकल गया था। अगले दिन हरिवंश जी ने पूछा कि टेस्ट कैसा गया। मैंने ठीक कहा और साथ में संशय भी जोड़ा कि पता नहीं, होगा भी या नहीं। तब उन्होंने कहा था कि विश्वास रखो, हो जायेगा। महीने भर बाद ही इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया। इस बीच दिल्ली में प्रभात खबर के विशेष संवाददाता के रूप में नियुक्त कृपाशंकर चौबे जी से फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। इंटरव्यू लेटर आने के पहले उन्होंने ही बताया था कि आपका सेलेक्शन हो गया है। तब मुझे यह मालूम नहीं था कि इतनी आंतरिक जानकारी कृपाजी मेरे लिए क्यों जुटा रहे हैं। दरअसल एक टेस्ट दिल्ली में हुआ था, जिसमें वह भी शामिल हुए थे।

जनसत्ता का इंटरव्यू 30 सितंबर 1991 को था। मैंने फिर बस का टिकट कटाया। तब तक मुझे मालूम नहीं था कि प्रभात खबर से इंटरव्यू के लिए किन-किन लोगों को बुलाया गया है। मुझे दो दिनों की छुट्टी लेनी थी। 2 अक्तूबर को अवकाश था। मैं इंटरव्यू का टेलीग्राम लेकर हरिवंश जी के पास पहुंचा। उन्हें इंटरव्यू के बारे में बताया। वह खुश थे। मुझे शुभकामनाएं दीं और कहा कि जाओ, देखो- क्या होता है। वैसे तुम्हारा हो जाना चाहिए। मैंने तो छुट्टी ले ली। इंटरव्यू कलकत्ता के होटल ताज बंगाल में होना था। दूसरे दिन पूछ-पता कर वहां पहुंच गया। वहां जाने पर देखा कि रांची प्रभात खबर से विनय विहारी सिंह, जो उस वक्त चीफ सब एडिटर थे और संडे सप्लीमेंट- रविवार का काम देखते थे, वह भी पहुंचे थे।  रविवार के लिए फ्रीलांस के तौर पर विनय जी के सथ काम करने वाले युवक रंजीव भी थे। परिचितों में फजल इमाम मल्लिक भी थे। मेरा उनसे परिचय गुवाहाटी से था।

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सुबह नौ बजे से इंटरव्यू शुरू हुआ। होटल ताज बंगाल के फर्स्ट फ्लोर पर इंटरव्यू चल रहा था। एक-एक कर लोगों को बुलाया जा रहा था। लोग जाते और खुश होकर लौटते। पता ही नहीं चलता कि कोई छंट भी गया या सबका हो गया। देखते-देखते दोपहर हो आई। बिना खाये-पीये इंटरव्यू का इंतजार और उससे भी खतरनाक स्थिति- क्या होगा की मनोदशा। भूख से सिर दुखने लगा। बाहर निकले और अफरातफरी में फुटपाथ से पूड़ी लेकर हड़बड़ी में अंदर धकेला। फिर भाग कर आये, यह पूछते हुए कि कहीं मेरा नंबर तो नहीं आया था। जब पता चला कि अभी नहीं तो थोड़ी राहत जरूर हुई, लेकिन उससे भी ज्यादा घबराहट इस बात को लेकर थी कि ज्यादातर लोग इंटरव्यू दे चुके थे या देकर जा चुके थे। चार बजने को थे। मन घबराया कि सब सीटें भर जायेंगी तो मेरा क्या होगा। एक तरह से
निराश हो गया था। मुंह लटकाये बैठा था कि पौने पांच बजे के करीब मेरा बुलावा आया। भूख-प्यास से तो बिलबिला ही रहा था, इंटरव्यू की घबराहट ऊपर से। अंदर गया।

दो लोग बैठे थे। एक तो प्रभाष जोशी खुद थे और दूसरे कवि त्रिलोचन जी के पुत्र अमित प्रकाश सिंह थे। बाद में जाना कि अमित जी न्यूज एडिटर की हैसियत से आये थे। प्रभाष जी ने अपने अंदाज में पूछा- अश्क जी, आपका उपेंद्र नाथ अश्क से क्या रिश्ता है?

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मैंने जवाब दिया- कोई नहीं

फिर अश्क नाम क्यों रखा? कहीं कविता तो नहीं लिखते?- यह प्रभाष जी का सवाल था।

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मैंने स्वीकारा- कविता लिखने की वजह से ही मैं अखबार तक पहुंचा। बचपन में कविताएं लिखता था।

प्रभाष जी का प्रतिप्रश्न- अब भी लिखते हैं?

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मेरा जवाब- जी नहीं, अखबार में आकर संवेदनाएं बची ही कहां?

प्रभाषजी- कैसे?

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मेरा जवाब- जब रिपोर्टर किसी बस दुर्घटना के बारे में सूचना देता है तो हमारा पहला सवाल होता है कि कितने मरे? अगर उसने कहा कि मरा कोई नहीं, पर 79 घायल हैं तो हमारा जवाब होता है कि छोटी खबर भेज दो। अगर उसने कहा कि 25 मरे हैं तो हम उछल पड़ते हैं कि आज की लीड मिल गयी। ऐसे संवेदनशून्य हो जाने पर कविता की गुंजाइश ही कहां बचती।

शायद मेरा जवाब उन्हें जंच गया। उनका अगला सवाल कि आप सिंह की जगह अश्क क्यों लिखते हैं।

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मैंने बताया कि जिस चीज में प्रत्यक्ष दुर्गुण नजर आये, उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर है। सिंह लिखने पर किसी भी दफ्तर में जायें तो लोग यही समझते हैं कि राजपूत हैं। अगर दूसरी जाति का कोई अफसर हुआ तो बहाना बना कर काम लटका देता है। अश्क नाम से प्रथमदृष्टया यह पता नहीं चलता कि मैं किस जाति का हूं। संदेह का लाभ मिल जाता है।

यहां बताना प्रासंगिक होगा कि मैं यह जवाब बिहार की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रख कर दे रहा था। इसलिए कि बिहार में पल-बढ़-पढ़ कर जो अनुभूतियां हुई थीं, मैंने उसी को बयां किया। इसके बाद अमित प्रकाश जी ने पूछा कि आप लाइट इकोनामी पर लिखते हैं? मैंने कहा- नहीं।

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अमित जी ने कहा- आपने जनसत्ता को तो एक लेख भेजा था इकोनामी पर? मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। मैंने दो बार में दो लेख भेजे थे। एक असम में रहते हुए, जो छप गया था और  दूसरा प्रभात खबर में रहते हुए, जो छपा नहीं था। उसका विषय मुझे याद है- आर्थिक उदारीकरण पर वह लेख था। प्रभात खबर में बिजनेस इनचार्ज की अनुपस्थिति में मैं बिजनेस पेज भी देखता था, इसलिए थोड़ा ज्ञान था। अमित जी ने अगला सवाल किया- आर्थिक उदारीकरण के बारे में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार का क्या नजरिया है?

मेरा जवाब था- सिद्धांत रूप से यह सरकार विरोधी है, पर व्यावहारिक रूप से नहीं।

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अमित जी ने पूछा- कैसे?

मैंने कहा- ज्योति बसु हर साल विदेश दौरे पर जाते हैं। हर बार उनकी विदेश यात्रा की आफिसियल मुलाकातों में उद्योगपति स्वराजपाल जैसे लोगों का नाम होता है। जाहिर है कि वे विदेशी निजी पूंजी आमंत्रित करने का आग्रह करते होंगे।

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मैंने देखा कि मेरे जवाब को प्रभाष जी बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अगला सवाल अब प्रभाष जी का था। वैसे भी प्रभाष जी का किसी को परखने का तरीका मुझे भाने लगा था। उनका अगला और सपाट सवाल था- अभी आपको कितने रुपये मिलते हैं?

मेरा भी सत्य, सरल और सीधा जवाब था – 1800 के करीब।

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आप कितना चाहते हैं वेतन?

मेरा जवाब- मुझे कलकत्ता के बाजार का भाव मालूम नहीं कि कितना महंगा या सस्ता है शहर। आप जो उचित समझें, तय कर दें।

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इसके बाद उन्होंने कहा कि कल 83, बीके पाल एवेन्यू आ जाइए।

मैं लौटने लगा तो दरवाजा खोलते वक्त प्रभाष जी की आवाज कानों में पड़ी कि यह लड़का अपने यहां बिजनेस का असिस्टेंट एडिटर बन सकता है। चलिए बिजनेस का तो हो गया, अब खेल का देखते हैं। मेरे बाद फजल इमाम मल्लिक की बारी थी। वह ऊपर आ रहे थे। मैंने उनको हिंट किया- आप सिर्फ स्पोर्ट्स की बात करेंगे। उसी में अब जगह खाली है। बहरहाल, वह भी खेल के लिए सेलेक्ट हो गये। फजल से मेरी नजदीकी गुवाहाटी से थी। जब हम गुवाहाटी में थे तो फजल मेरे ही साथ रहते थे। बाद में उनकी पत्नी मनु आईं, तब भी कुछ दिन हम एक ही मकान में रहे। जब फजल की चर्चा चल ही रही है तो उनके बारे में एक प्रसंग का जिक्र जरूरी लगता है।

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फजल ने हिन्दू लड़की से विवाह किया था। उनकी पत्नी मनु ने विस्तार से बताया था कि कैसे नाटकों के मंचन के दौरान वह फजल के करीब आईं और परिजनों द्वारा तय की गई स्वजातीय शादी छोड़ कर भाग गईं। फजल से शादी की। दोनों को पुलिस ने परेशान भी किया। जब लफड़े से मुक्त हुए तो दोनों साथ रहने लगे। फजल ने मनु पर कभी यह दबाव नहीं डाला कि वह इसलाम धर्म कबूल कर लें, बल्कि यह छूट दे दी कि वह हिन्दू रीति रिवाज से अपने पर्व-त्योहार मनायें। मनु ने ही बताया था कि वह फजल के साथ एक बार उनके घर गईं तो वहां का इसलामी आचरण उन्हें रास नहीं आया और वह फजल के साथ लौट गईं। काफी दिनों से इस बात को लेकर फजल की अपने घर वालों से बात भी नहीं होती थी।

जनसत्ता में जब हम सेलेक्ट हो गए तो प्रभाष जी ने अगले दिन 83, बी.के. पाल एवेन्यू स्थित जनसत्ता के दफ्तर आने को कहा। रात में कहां ठहरें, इस बात को लेकर मैं परेशान था। फजल ने बताया कि उनका एक मित्र यहीं रहता है। वह बिहार का ही था और शायद जान बाजार की एक मसजिद में रहता  था। फजल के साथ मैं चल पड़ा और उस मित्र के ठिकाने पर हम पहुंचे। मुझे तब तक या यों कहें कहें कि अभी तक किसी मसजिद में ठहरने का वह पहला मौका था। सामान रख कर कुछ देर तक हम लोग मसजिद कैंपस में ही बने एक कमरे के बाहर बरामदे में फर्श पर बैठे। रात में खाने के लिए वह लड़का हम लोगों को लेकर चांदनी चौक के एक होटल में गया। वह शबीर होटल था। होटल का मुसलिम नाम देख कर मेरे मन में भारी संशय हुआ। तब मुझे पता नहीं था के नानवेज खाने के लिए कलकत्ता के कुछ नामी-गिरामी होटलों में वह शुमार था। वहां बड़ी संख्या में आज भी हिन्दू खाना खाते हैं। नो बीफ का बोर्ड देख कर थोड़ी राहत हुई, पर पूरी तरह नहीं।

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उस लड़के ने मुझसे पहले ही पूछ लिया था कि नानवेज खाते हैं ना। मेरे हामी भरने पर ही शायद वह हमें वहां लेकर गया था। उसने आर्डर दिया। मेरे लिए रोटी और मटन आ गया। मटन के बड़े पीस देख कर मैं घबड़ाया। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। कुछ देर ठहरा रहा, लेकिन जब उन्होंने कहा कि खाते क्यों नहीं तो बड़े रुंआसे मन से मैंने शोरबे से बमुश्किल एक रोटी खाई, मटन छुआ तक नहीं। यह कह कर कि मन ठीक नहीं लग रहा है। वोमेटिंग जैसा लग रहा है। जो लड़का हमें लेकर गया था, शायद उसने मेरी मनोदशा भांप ली।

होटल से निकलने के बाद उसने एपल खरीद लिया। घर लौटने पर उसने कहा कि आपने खाना जानबूझ कर नहीं खाया। मैं समझ गया था, इसीलिए आपके लिए एपल खरीद लिया। मैंने ईमानदारी से उसे अपने मन का संशय बता दिया। फिर उसी ने बताया कि उस होटल में हिन्दू लोग भी खाते हैं और वहां गलत चीजें परोसी नहीं जाती हैं। अगले दिन हमलोग बीके पाल एवेन्यू पहुंचे। वहां प्रभात खबर के साथी विनय विहारी सिंह मिले। वह पहले टेस्ट में शामिल हुए थे, इसलिए उनका इंटरव्यू पहले ही हो गया था। उन्हें हम लोगों के साथ सिर्फ यह सूचना देने के लिए बुलाया गया था कि उनका सेलेक्शन हो गया है। रंजीव भी मिले, जो प्रभात खबर के लिए तब फ्रीलांसिंग करते थे।

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प्रभाष जी ने इंडियन एक्सप्रेस के लेटर पैड पर अपने हाथ से आफर लेटर लिखा और सबको दिया। जितने लोगों को आफर लेटर मिले, उनमें दो ही श्रेणी बनी थी- उप संपादक और रिपोर्टर। अलबत्ता सीनियरिटी के हिसाब से इंक्रीमेंट का जिक्र उसमें जरूर था। मुझे जो आफर लेटर मिला, उसमें बच्छावत के ग्रेड वन के वेतनमान और एक इंक्रीमेंट का जिक्र था। कुछ को दो इंक्रीमेंट भी मिले थे। आफर लेटर के हिसाब से पता किया तो वेतन करीब 3500 रुपये बनता था। जाहिर है कि मेरी खुशी परवान चढ़ी होगी। इसलिए कि 2375 की नौकरी छोड़ कर मैं प्रभात खबर में अपनी ही गलती से 1500 रुपये पर फंस गया था। एक और रोचक प्रसंग।

प्रभात खबर में रहते सजने-संवरने की कल्पना ही बेमानी थी। इसलिए कि जरूरत भर के तो पैसे मिलते नहीं थे, साज-शृंगार पर खर्च तो दूर की कौड़ी थी। हालत यह थी कि जो सैंडल पहन कर मैं इंटव्यू देने कलकत्ता के ताज बंगाल होटल पहुंचा था, वह एड़ी की तरफ से आधा घिस चुका था। चूंकि एड़ी का हिस्सा ज्यादा सख्त होता है, इसलिए चलते समय यह महसूस ही नहीं हो पाता था कि चप्पल तो आधी ही बची है। शायद यह भी वजह थी कि घर से आफिस ही आना-जाना होता था। फुल पैंट की मोहरी चौड़ी थी, इसलिए चप्पल की घिसावट किसी को दिखती भी नहीं थी। मुझे चप्पल घिसने का एहसास तब हुआ, जब होटल के फर्श पर बिछे कालीन की नरमी एड़ी को मिली। अचानक इस अनुभव ने चप्पल निकाल कर देखने को विवश किया था। जब असलियत का पता चला तो समझ में आया कि मेरी स्थिति कैसी है।

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खैर, सेलेक्शन का लेटर लेकर मुझे बस से रांची लौटना था। बस बाबूघाट से खुलने वाली थी। मुझे वह लोकेशन पता नहीं था। विनय जी और रंजीव शायद ट्रेन से लौटने वाले थे। मैंने विनय जी से आग्रह किया कि मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दें। शाम में तीनों एक साथ बस अड्डे के लिए निकले। बाबूघाट जाने के लिए रोड क्रास करना था। दोनों तरफ से वाहनों की भाग-दौड़ मेरे लिए नई बात थी। इसलिए कि महानगर में मैं पहली बार गया था। मुझे लगा कि सड़क पार नहीं कर पाउंगा। फिर सोचा कि सड़क पार करने में इतनी झल्लाहट मुझे इस शहर में हो रही है तो नौकरी कैसे यहां कर पाऊंगा। विनय जी आगे, बीच में मैं और पीछे रंजीव हुए। किसी तरह सड़क पार की। रास्ते में विनयजी और रंजीव की झल्लाहट की बातें भी सुनीं। विनय जी की झल्लाहट इस बात को लेकर थी कि वह प्रभात खबर में चीफ सब एडिटर थे और जनसत्ता में उपसंपादक का पद मिला। पैसे का भी उन्हें ज्यादा लाभ नहीं हुआ था। रंजीव को इस बात की तकलीफ थी  कि उनका सेलेक्शन ट्रेनी के रूप में हुआ था और वह भी खेल रिपोर्टर के तौर पर। उनकी रुचि पालिटिकल बीट में थी। दोनों ने कहा कि वे ज्वाइन नहीं करेंगे। इससे मुझे भी थोड़ी तसल्ली हुई कि इस भीड़भाड़ वाले शहर से तो अपनी रांची भली। भले ही कम पैसे मिल रहे हैं।

दो अक्तूबर को हम रांची लौटे। उस दिन छुट्टी थी। अखबार बंद था या मेरा साप्ताहिक अवकाश था, याद नहीं। यहां यह बताना आवश्यक है कि प्रभाष जी ने जो आफर लेटर दिया था, उसमें सात अक्तूबर तक ज्वाइन कर लेने को कहा गया था। ज्यादा सोच-विचार का वक्त भी नहीं बचा था। तीन अक्तूबर को आफर लेटर लेकर मैं हरिवंश जी से मिला। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ तो मैंने आफर लेटर उनको दे दिया। आश्चर्यजनक ढंग से वह दुखी होने के बजाय खुश थे। उन्होंने पूछा कि अब क्या सोचा है? मैंने जवाब दिया- आप से ही पूछ कर टेस्ट और इंटरव्यू में गया था। अब आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए।

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उन्होंने कहा- पत्रकारिता की मुख्य धारा में शामिल होने का यह मौका है। तुम्हें जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक टिप्पणीं मेरे बारे में की, जिसे मैं अब तक गांठ बांध कर लिये फिरता हूं। उन्होंने कहा- तुम्हारे आचरण, तुम्हारी वाणी और तुम्हारे लेखन में जो संयम है, वह तुम्हें काफी आगे ले जायेगा। फिर उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआती परेशानियों का जिक्र किया कि मुंबई में मेरी ही तरह उन्हें भी कई परेशानियां झेलनी पड़ी थीं। उन्होंने कहा- तुम्हारे पास समय नहीं है। तुम्हारा प्लान क्या है? जब मैंने बताया कि दो-तीन दिन के लिए गांव जाऊंगा, फिर रांची लौटूंगा और यहीं से कोलकाता के लिए निकलूंगा। इस पर उनका जवाब था- तब तो आज ही तुम इस्तीफा दे दो। मैं हिसाब करवा देता हूं।

इस्तीफा लिखने के लिए मैं बाहर निकला तो पता चला कि विनय जी और रंजीव भी चलने को तैयार हो गये हैं। बहुत खुश हुआ कि अपनों की कंपनी मिल गई। संपादकीय विभाग में हरिनारायण जी बैठे थे। उन्होंने कहा कि आप मत जाइए। हरिवंश जी से कह कर आपकी तनख्वाह तीन हजार करवा देता हूं। वहां भी करीब इतने ही पैसे मिलेंगे। मैंने कहा कि अगर हरिवंश जी चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। वह हरिवंश जी के पास चले गए और मैं इस्तीफा लिखने बैठ गया। जब निकल कर आये तो मेरा इस्तीफा तैयार था। उन्होंने कहा कि आपको नहीं जाना है। मैंने सोचा कि शायद हरिवंश जी के कहने पर हरिनारायण जी ऐसा कह रहे हैं। मैं इस्तीफा लिये हरिवंश जी के पास चला गया। उन्हें देते हुए यह भी कहा कि आप चाहते हैं तो मैं नहीं जाऊंगा। लेकिन हरिवंश जी का जवाब हरि जी की बातों से से मेल नहीं खाया।

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उन्होंने कहा- अभी तुम जाओ, मैं नहीं रोकूंगा, पर इतना वादा करो कि जिस दिन मैं तुम्हें पैसे देने लायक हो जाऊं, उस दिन आने से तुम मना नहीं करोगे। मैंने कहा, आप कहें तो अभी रुक जाता हूं। उन्होंने मना कर दिया। शाम तक मुझे पैसे मिल गये और रात की बस पकड़ कर मैं गांव के लिए निकल गया। हिसाब लेने के वक्त तक मैं हरिनारायण जी से कन्नी काटता रहा। मुझे बस तक छोड़ने संजय सिंह आये थे। ये वही संजय सिंह हैं, जो अभी भास्कर के जमशेदपुर संस्करण के संपादक हैं।

संजय सिंह से दोस्ती की भी एक कहानी है। वह प्रभात खबर के अंग्रेजी संस्करण में प्रूफ रीडर हुआ करते थे। घनश्याम श्रीवास्तव भी उनके साथ थे। 1989 में नए प्रबंधन के हाथ जब प्रभात खबर आया तो उसके अंग्रेजी संस्करण को बंद करने का फैसला हुआ। तकरीबन कुछ दिनों तक संस्करण सस्पेंड रहा। फिर सबको बुला कर प्रबंधन ने हिसाब थमाने की योजना बनाई। जो लोग हिन्दी प्रभात खबर में जाने के इच्छुक थे, उनके लिए दरवाजा खोल दिया गया। इसी दरवाजे से यशोनाथ झा, अनिल झा, घनश्याम श्रीवास्तव का प्रवेश तब प्रभात खबर में हो गया। कुछ लोग इस बात पर अड़े रहे कि अंग्रेजी संस्करण खुलवा कर ही रहेंगे। यूनियन बनी। संजय सिंह उसके सेक्रेटरी बनाये गये। कुछ दिन तो अकड़ में रहे, पर अपने कुछ साथियों को चुपचाप प्रभात खबर में काम करते देखा तो हताश हो गये। इसी हताशा के दौरान वह मेरे संपर्क में आये। कभी विज्ञापन तो कभी अंग्रेजी की कुछ सामग्री का अनुवाद कर दिया करते थे।

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एक दिन पता चला कि अंग्रेजी वालों को थोक के भाव बुलाया गया है और उनको हिसाब देकर टरकाया जा रहा है। मैंने हरिनारायण जी के माध्यम से हरिवंश जी को कहलवाया कि संजय को हिन्दी में ले लिया जाये। हरिवंश जी उस दिन दफ्तर नहीं आये थे। शायद विवाद का भय रहा होगा। उन्होंने सूचना भिजवायी कि संजय को दफ्तर आने से आज मना कर दें। बाद में देखा जायेगा। मैंने संजय सिंह को मना कर दिया। शाम में उन्होंने बताया कि जिन्हें हिसाब थमा दिया गया था, वे उनके घर पहुंच कर हंगामा कर रहे थे। खैर, जब मेरे जनसत्ता जाने की बात पक्की हो गयी तो मैंने हरिवंश जी से मुलाकात के दौरान संजय को प्रभात खबर में ले लेने के लिए आग्रह किया था। उन्होंने तब यही कहा था कि देखेंगे। जब मैं जनसत्ता चला गया तो हरिवंश जी ने कलकत्ता आने पर मुझे बताया कि तुम्हारे लड़के का काम कर दिया है। मुझे याद नहीं आ रहा था कि किस लड़के का काम। पूछा तो उन्होंने बताया कि संजय के बारे में तुमने कहा था न, उसे ज्वाइन करा लिया है। संजय सिंह ने बाद में मुझे यह जानकारी दी थी। मेरे अंदर एक ऐसा गुण है, जिसकी हरिवंश जी मेरे संपादक बन जाने पर अक्सर तारीफ करते थे और अपने अंदर उसका अभाव महसूस करते थे। वह कहते कि मेरे अंदर धैर्य का भंडार है और वह अतिशय अधैर्यवान हैं।

मेरे अंदर धैर्य की एक सबसे बड़ी वजह शायद यह रही कि परिस्थितियों ने इतनी उठा-पटक मेरी जिंदगी में की, जिसमें धैर्य ने ही मुझे जिंदा रहने की तसल्ली दी। वर्ना बहन के विवाह में दहेज के लिए ससुरालियों का हड़बोंग मचाना, स्कूली जीवन में असमय अभिभावक की भूमिका का निर्वाह, परिवार की परविरिश की चिंता ने मुझे कब का लील लिया होता। आज जब मामूली परेशानी से घबड़ा कर किसी की आत्महत्या की खबर सुनता-पढ़ता हूं तो असमय अपनी परिस्थियों के खेल को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने प्रतिकूलताओं में भी जीने की कला सिखायी।

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जीवन में मैंने दो बातों का शिद्दत से एहसास किया है। जिद और जद्दोजहद में बड़ा फर्क होता है। कई लोग जीत के लिए जिद्द करते हैं, जद्दोजहद से परहेज करते हैं। मैं जीत के लिए जद्दोजहद करता रहा रहा हूं, जिद्द कभी नहीं की। कभी ट्यूटर, तो कभी मास्टर या कस्बाई पत्रकार बन कर जीत के लिए मैंने जद्दोजहद की। महज जिद्द ठान कर बैठ नहीं गया। प्रभात खबर से मेरा पहला इस्तीफा अक्तूबर 1991 में हुआ था। अगस्त 1990 में मेरी ज्वाइनिंग हुई थी। यानी सवा साल के भीतर प्रभात खबर छोड़ दिया। इस्तीफे के बाद घर गया। खुशखबरी परिवार वालों को दी और दो दिन बिता कर पांच अक्तूबर को नई यात्रा के लिए निकला। पहले रांची आया और विदाई के बाद 6 अक्तूबर 1991 को कलकत्ता के लिए ट्रेन से रवाना हुआ।

विदाई के दिन का एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है। सुबह हरिवंश जी से मिला और बताया कि आज रात निकल जायेंगे। उस दिन उन्होंने टेलीग्राफ का एक पेज दिया, जिसमें बढ़ती महंगाई पर सामग्री थी। उन्होंने कहा कि इसे बनवा दो। यह तबके संपादकों के साथ अपने मातहतों के रिश्ते होते थे। जो जा रहा है, उसे साधिकार कोई संपादक काम सौंप रहा है। मैंने अनुवाद कर सामग्री कंपोज कराई, प्रूफ पढ़ कर पेज बनवा दिया। तब पेज की पेस्टिंग होती थी। उसका लेआउट भी ठीक टेलीग्राफ की तर्ज पर बनवाया। पेज हरिवंश जी को दिखाया तो उसकी सुंदरता देख कर वह बहुत खुश हुए। इस तरह मैं सप्रेम प्रभात खबर से विदा हुआ।

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अगले दिन रंजीव, विनय जी और मैं कलकत्ता पहुंचे। एक दिन तो होटल में गुजारा। पहली रात सेंट्रल एवेन्यू के किसी छोटे होटल में ठहरे। तीनों मित्र टैक्सी से बीके पाल एवेन्यू के लिए निकले। भाषा समस्या तो थी, पर रंजीव को थोड़ी आती थी। इसलिए कि उनकी ननिहाल बांकुड़ा में थी। वहीं आते-जाते उन्हें बांग्ला का ज्ञान हुआ था। हम लोग हिन्दी में बात कर रहे थे। उसी टैक्सी में सेंट्रल एवेन्यू से एक और सज्जन चढ़े, जो हमारी हिंदी में बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने हिन्दी में ही पूछा- आपलोग कहां आये हैं? कलकत्ता में किसी अनजान के मुंह से हिन्दी सुन कर मन खुश हुआ। उन्हें शायद श्याम बाजार जाना था। उनसे हमलोगों ने जनसत्ता वाली बात बतायी तो उन्होंने हमें बता दिया कि यहां उतर कर बायीं तरफ सीधे चले जायें। दाहिनी ओर एक दुर्गा मंदिर मिलेगा, उसके पास ही बीके पाल एवेन्यू है। उन्होंने अपना नाम अक्षय उपाध्याय बताया। उनकी शुद्ध और स्पष्ट हिन्दी सुन कर तब मन को बड़ा सुकून मिला था। जब कलकत्ता रहने लगे, तब मालूम हुआ कि वह सेंट्रल एवेन्यू में खादी के कपड़ों की दुकान चलाते थे और कवि-लेखक के रूप में वहां उनकी पहचान थी। यह भी सुना कि उन्होंने किसी हिन्दी फिल्म के लिए गाने भी लिखे थे।

दिन भर हम लोग दफ्तर में रहे। कई जगहों से लोग आये थे, इसलिए पहला दिन मिलने-जुलने और जान-पहचान में ही चला गया। पहले ही दिन जो साथी मिले, उनमें पलाश विश्वास, सुमंत भट्टाचार्य, दिलीप मंडल, अनिल त्रिवेदी, गंगा प्रसाद, प्रकाश चंडालिया, साधना शाह, दिनेश ठक्कर, राजेश्वर सिंह, प्रमोद मल्लिक, प्रभात रंजन दीन, अरविंद चतुर्वेद, कृपाशंकर चौबे, मान्धाता सिंह, दीपक रस्तोगी, कृष्णा शाह (जो नाम याद आ रहे हैं) थे। उनमें सबसे एक्टिव सुमंत भट्टाचार्य दिखे। तब लगा कि वह शायद किसी बड़े ओहदे पर हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो मुझसे एक इंक्रीमेंट नीचे उपसंपादक बनाये गये थे। अमित प्रकाश सिंह समाचार संपादक और श्याम आचार्य संपादक बन कर आये थे।

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वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क की आने वाली किताब ”मुन्ना मास्टर बने एडिटर” का एक अंश. Omprakash Ashk से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.


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टेस्ट देकर नौकरी मांगने की मेरी उम्र बीत चुकी है, रखना है तो रखिए वर्ना…

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0 Comments

  1. kalindi singh

    April 27, 2015 at 9:32 am

    Dono piece padh gayi. Vyaktigat taur par Ashk ji ko janti hun. Jaisa padha, waisa hi aaj bhi pati hun. Unhone kitne ka kalyan kiya hai, yah imandari se unke sath kaam karne wale hi batayenge. Dono piece padh kar kabhi aankhen bhar aayin to kabhi dil ko santwna bhi mili. Kitab patrakarita ke nawelon ko padhni chahiye

  2. Lela

    August 28, 2015 at 2:57 pm

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